अमी झरत बिगसत कंवल-।।
भगवान! अपने एक प्रवचन में कहा है कि भारत अपने आध्यात्मिक मूल्यों में गिरता जा रहा है। कृपया बताएं कि आगे कोई आशा की किरण नजर आती है?
रामानंद भारती! आध्यात्मिक मूल्य सदा ही वैयक्तिक घटना है, सामूहिक नहीं। नैतिकता सामूहिक है; अध्यात्म वैयक्तिक। कोई समाज नैतिक हो सकता है, क्योंकि नीति बाहर से आरोपित की जा सकती है, लेकिन कोई समाज आध्यात्मिक नहीं होता। व्यक्ति आध्यात्मिक होता है। समाज की तो कोई आत्मा ही नहीं है तो संबंध नैतिक हो सकते हैं, अनैतिक हो सकते हैं। अच्छे हो सकते हैं, बुरे हो सकते हैं; पाप के हो सकते हैं, पुण्य के हो सकते हैं।
अध्यात्म तो अतिक्रमण है। अध्यात्म तो वैसी चैतन्य की दशा है जहां न पाप बचता न पुण्य, न लोहे की जंजीरें ने सोने की जंजीरें। जहां चित्त ही नहीं हो वहां द्वंद्व कहां? वहां दुई कहां? और निश्चित ही वैसा अध्यात्म भारत से खोता जा रहा है। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, कबीर, दादू, दरिया, वैसे लोग कम होते जा रहे हैं, वैसी ज्योतियां विरल होती जा रही हैं, बहुत विरल होती जा रही हैं! धर्म के नाम पर पाखंड बहुत हैं, पांडित्य बहुत है। उस में कोई कमी नहीं हुई; उस में बढ़ती हुई है। लेकिन धर्म नहीं है, क्योंकि धर्म के लिए जो मौलिक आधार चाहिए वे खो गए हैं। लेकिन धर्म पहीं है, क्योंकि धर्म के लिए जो मौलिक आधार चाहिए वे खो गए हैं।
पहली तो बात तो बात, देश बहुत गरीब हो, समाज बहुत गरीब हो तो सारा जीवन, सारी ऊर्जा रोटी-रोजी में ही उलझी समाप्त हो जाती है। गरीब आदमी कब वीणा बजाए, कब बांसुरी बजाए? दीन-हीन रोटी न जुटा पाए तो अध्यात्म की उड़ाने कैसे भरे? अध्यात्म तो परम विलास है; वह तो आखिरी भोग है, आत्यंतिक भोग! चूंकि देश गरीब होता चला गया, उस ऊंचाई पर उड़ने की क्षमता लोगों की कम होती चले गई।
मेरे हिसाब में जितना समृद्धि हो उतने ही बुद्धों की संभावना बढ़ जाएगी। इसलिए मैं समृद्धि के विरोध में नहीं हूं; मैं समृद्धि के पक्ष में हूं। मैं चाहता हूं यह देश समृद्ध हो। यह सोने की चिड़िया फिर सोने की चिड़िया हो। यह दरिद्रनारायण की बकवास बंद होनी चाहिए। लक्ष्मीनारायण ही ठीक हैं; उनको दरिद्रनारायण से न बदलो।
बुद्ध पैदा हुए तब देश सच में सोने की चिड़िया था। चौबीस तीर्थंकर जैनों के, सम्राटों के बेटे थे--और राम और कृष्ण भी, और बुद्ध भी। इस देश में जो महाप्रतिभाए पैदा हुई वे राजमहलों से आई थीं। अकारण नहीं नहीं, आकस्मिक ही नहीं। जिसने भोगा है वही विरक्त होता है। तेन त्यक्रतेन भुंजीयाः! वही छोड़ पाता है है जिसने जाना है, जीया है, भोगा है। जिसके पास धन ही नहीं है उससे तुम कहो धन छोड़ दो, क्या खाक छोड़ेगा! जो संसार का अनुभव ही नहीं किया है उससे कहो संसार छोड़ दो, कैसे छोड़ेगा?
अनुभव से मुक्ति आती है, अनुभव से विरक्ति आती है। राग का अनुभव वैराग्य के मंदिर में प्रवेश करा देता है। भोग में जितने गहरे उतरोगे उतने ही तुम्हारे भीतर त्याग की क्षमता सघन होगी।
ये मेरी बातें उल्टी लगती हैं, उलटबांसियां मालूम होती हैं। जरा भी उल्टी नहीं हैं। इनका गणित बहुत सीधा-साफ है। जिस चीज को भी तुम भोग लेते हो उसे की व्यर्थता दिखाई पड़ जाती है। जिस चीज को नहीं भोग पाते उस मग रस बना रहता है, कहां कोने-कतार में, मन के किसी अंधेरे में वासना दबी पड़ी रहती है कि कभी अवसर मिले जाए तो भोग लूं। जाना नहीं है। हां, बुद्ध कहते हैं कि असार है; मगर तुमने जाना है असार है? और जब तक तुमने नहीं जाना असार है तब तक लाख बुद्ध कहते रहें, किस काम का है? बुद्ध की आंख तुम्हारी आंख नहीं बन सकती, मेरी आंख तुम्हारी आंख नहीं बन सकती। तुम्हारी आंख ही तुम्हारी आंख है, और तुम्हारा अनुभव ही तुम्हारा अनुभव है। परमात्मा की तरफ जाने के लिए संसार सीढ़ी है। और भारत में आध्यात्मिकता की संभावना की संभावना कम होती जाती है, क्योंकि भारत रोज-रोज दीन होता जाता है, रोज-रोज दरिद्र होता जाना है। और कारण? कारण हमारी धारणाएं हैं।
पहली तो धारणा, हमने मान रखा है कि लोग गरीब और अमीर भाग्य से हैं। यह बात नितांत मूढ़तापूर्ण है। न कोई अमीर है भाग्य से, न कोई गरीब है भाग्य से। गरीबी-अमीरी सामाजिक व्यवस्था की बात है। गरीबी-अमीरी बुद्धिमत की बात है। गरीबी-अमीरी विज्ञान और टेक्नालाजी की बात है। क्या तुम सोचते हो सब भाग्यशाली अमरीका में ही पैदा होते हैं? मगर तुम्हारे शास्त्र सही हैं तो सब भाग्यशाली अमरीका में पैदा होते हैं। और अब अभागे भारत में पैदा होते हैं। अगर तुम्हारे शास्त्र सही हैं तो भारत में सिर्फ पापी ही पैदा होते हैं, जिन्होंने पहले पाप किए हैं और अमरीका में वे सब पैदा होते हैं जिन्होंने पहले पुण्य किए। तुम्हारे शास्त्र गलत हैं, तुम्हारा गणित गलत है।
अमरीका समृद्ध इसलिए नहीं है कि कहां पुण्यवान लोग पैदा हो रहे हैं। अमरीका समृद्ध इसलिए है कि विज्विज्ञान है, तकनीक है, बुद्धि का प्रयोग है। अमरीका समृद्ध होता जा रहा है, रोज-रोज समृद्ध होता जा रहा है। और तुम देखते हो अमरीका में कितने जोर की लहर है आध्यात्मिक की, कितनी अभीप्सा है ध्यान की, कितनी आतुरता है अंतर्यात्रा की! हजारों लोग पश्चिम से पूरब की तरफ यात्रा करते हैं, इसी आशा में कि शायद पूरब के पास कुंजियां मिल जाएं। उन्हें पता नहीं पूरब अपनी कुंजियां खो चुका है। पूरब बहुत दरिद्र है। और इन दरिद्र हाथों में परमात्मा के मंदिर की कुंजियां बहुत मुश्किल हैं।
तो पहली तो बात है कि भारत पुनः समृद्ध होना चाहिए। और समृद्ध होने के लिए जरूरी है कि गांधीवादी जैसे विचारों से भारत का छुटकारा हो। बिना बड़ी टेक्नालाजी के अब यह देश समृद्ध नहीं हो सकता। अब इसकी संख्या बहुत है। बुद्ध के समय में पूरे देश की संख्या दो करोड़ थी। निश्चित देश समृद्ध रहा होगा--इतनी भूमि और दो करोड़ लोग। भूमि अब भी उतनी है और साठ करोड़ लोग! और यह सिर्फ अब भारत की बात कर रहा हूं, पाकिस्तान को भी जोड़ना चाहिए, बंगला देश को की जोड़ना चाहिए क्योंकि बुद्ध के समय में दो करोड़ में वे लोग भी जुड़े थे। अगर उन दोनों को भी जोड़ लो तो अस्सी करोड़। कहां दो करोड़ लोग और कहां अस्सी करोड़ लोग! और इंचभर जमीन बढ़ी नहीं। हां, जमीन घटी बहुत, घटी इन अर्थों में कि इन ढाई हजार सालों में हमने जमीन का इतना शोषण किया, इतनी फसलें काटीं कि जमीन रोज-रोज रूखी होती चली गई। हमने जमीन का रस कुछ छीन लिया। वापस कुछ भी नहीं दिया। वापस देने की हमें सूझ ही नहीं है, लेते ही चले गए, लेते ही चले गए। जमीन दीन-हीन होती चली गई, उसके साथ हम दीन-हीन होते चले गए। और जितना ही समाज दीन-हीन होता है उतने ज्यादा बच्चे पैदा करता है।
इस जगत में बड़े अनूठे हिसाब हैं! अमीर घर में बच्चे कम पैदा होते हैं, गरीब घर में, बच्चे ज्यादा पैदा होते हैं। क्यों? अमीरों को अक्सर, बच्चे गोद लेना पड़ते हैं। कारण है जितना ही जीवन में सुख-सुविधा होती है, जितना ही जीवन में विश्राम होता है, जितना ही जीवन में भोग के और-और अन्य-अन्य साधन होते हैं, उतनी ही कामवासना की पकड़ कम हो जाती है। जिनके पास और भोग के कोई भी साधन नहीं हैं उनके बस एक ही मनोरंजन है कामवासना, और कोई मनोरंजन नहीं है। फिल्म जाओ तो पैसे लगते; रेडियो-टेलीविजन, नृत्य-संगीत सब में खर्चा है। कामवासना बेखर्च मालूम होती है। तो गरीब आदमी का एक ही मनोरंजन है कामवासना। तो गरीब आदमी बच्चे पैदा किए चला जाता है। जितने गरीब देश हैं उतने और गरीब होते चले जाते हैं। जितने अमीर देश हैं उतने और अमीर होते चले जाते हैं; क्योंकि अमीर देशों में बच्चे पैदा करना बहुत सोच विचार कर होता है। कम बच्चे चाहिए, ज्यादा विज्ञान चाहिए--और तुम्हारे चित्त में भौतिकवाद के प्रति जो विरोध है उसका अंत चाहिए। क्योंकि अध्यात्म केवल भौतिकता के ही आधार पर खड़ा हो सकता है।
मंदिर बनाते हो, स्वर्ण के शिखर चढ़ाते हो मगर नींव में तो अनगढ़ पत्थर ही भरने पड़ते हैं, नींव में तो सोना नहीं भरना पड़ता। जरूर जीवन के मंदिर में शिखर तो अध्यात्म का होना चाहिए लेकिन बुनियाद तो भौतिकता की होनी चाहिए। मेरे हिसाब में भौतिकवादी और अध्यात्मवादी में शत्रुता नहीं होनी चाहिए, मित्रता होनी चाहिए। हां, भौतिकवाद पर ही रुक मत जाना। अन्यथा ऐसा हुआ कि नींव तो भर लोग और मंदिर कभी बनाया नहीं। भौतिकवाद नहीं। भौतिकवादी पर रुक मत जाना। भौतिकवाद की बुनियाद बना लो फिर उस पर अध्यात्म का मंदिर खड़ा करो। भौतिकवाद तो ऐसे है जैसे वीणा बनी है लकड़ी की, तारों से और अध्यात्मवाद ऐसे हैं जैसे वीणा पर उठाया गया संगीत। वीणा और संगीत में विरोध तो नहीं है। वीणा भौतिक है, संगीत अभौतिक है। वीणा को पकड़ सकते हो, छू सकते हो, संगीत को न पकड़ सकते न छू सकते हो, उस पर मुट्ठी नहीं बांध सकते। अध्यात्म जीवन की बुनियाद बनाना चाहा, बिना वीणा से संगीत को लाना चाहा। हम चूकते चले गए।पश्चिम की भूल है, वीणा तो बन गई है लेकिन वीणा का बजाना नहीं आता, नींव तो भर गई है लेकिन मंदिर के बनाने की कला भूल गई है, याद ही नहीं रहा कि नींव क्यों बनायी थी। पश्चिम ने आधी भूल की है, आधी भूल हमने की है। और फिर भी मैं तुमसे कहता हूं: पश्चिम की आधी भूल ही तुम्हारी आधी भूल से ज्यादा बेहतर है। नींव हो तो मंदिर बन सकता है; लेकिन सिर्फ मंदिर की कल्पनाएं हों और नींव न हो तो मंदिर नहीं बन सकता। भारत को फिर से भौतिकवाद के पाठ सिखाने होंगे। और मैं तुमसे कहता हूं कि वेद और उपनिषद भौतिकवाद विरोधी ही हैं। कहानियां तुम उठा कर देखो।
जनक ने एक बहुत बड़े शास्त्रार्थ का आयोजन किया है। एक हजार गौओं, सुंदर गौओं को, उनके सींगों को सोने से मढ़ कर, हीरे-जवाहरात जड़ कर महल के द्वार पर खड़ा किया है कि जो भी शास्त्रार्थ में विजेता होगा वह इन गौओं को ले जाएगा।
ऋषि-मुनि आए हैं, बड़े विद्वान पंडित आए हैं। विवाद चल रहा है, कौन जीतेगा पता नहीं! दोपहर हो गई, गौएं धूप में खड़ी हैं। तब याज्ञावल्क्य आया--उस समय का एक अदभुत ऋषि, रहा होगा मेरे जैसा आदमी! आया अपने शिष्यों के साथ--रहे होंगे तुम जैसे संन्यासी। महल में प्रवेश करने के पहले अपने शिष्यों से कहा कि सुनो, गौओं को घेरकर आश्रम ले जाओ, गौएं थक गई, पसीने-पसीने हुई जा रही हैं। रहा विवाद, सो मैं जीत लूंगा।
हजार गौएं, सोने से मढ़े हुए उनके सींग, हीरे-जवाहरात जुड़े हुए याज्ञवल्क्य की हिम्मत देखते हो! यह कोई अभौतिकवादी है? और इसकी हिम्मत देखते हो, और इसका भरोसा देखते हो! यह भरोसा केवल उन्हीं को हो सकता है जिन्होंने जाना है। पंडित विवाद कर रहे थे। वे तो आंखें फाड़े, मुंह फाड़े रह गए--जब उन्होंने देखा कि गौएं तो याज्ञवल्क्य के शिष्य घेर कर ले ही गए! उनकी तो बोलती बंद हो गई। किसी ने खुसफुसाया जनक कोकि यह क्या बात है, अभी जीत तो हुई नहीं है! लेकिन याज्ञवल्क्य ने कहा कि जीत होकर रहेगी, मैं आ गया हूं। जीत होती रहेगी, लेकिन गौएं क्यों तड़फें?
और याज्ञवल्क्य जीता। उसकी मौजूदगी जीत थी। उसके वक्तव्य में बल था क्योंकि अनुभव था। अब जिसके आश्रम में हजार गौएं हों, सोने के मढ़े हुए सींग हों, उसका आश्रम कोई दीन-हीन आश्रम नहीं हो सकता। उसका आश्रम सुंदर रहा होगा, सुरम्य रहा होगा, सुविधापूर्ण रहा होगा।
आश्रम समृद्ध थे। उपनिषद और वेदों में दरिद्रता की कोई प्रशंसा नहीं है, कहीं भी कोई प्रशंसा नहीं है। दरिद्रता पाप है, क्योंकि और सब पाप दरिद्रता से पैदा होते हैं। दरिद्र बेईमान हो जाएगा, दरिद्र चोर हो जाएगा, दरिद्र धोखेबाज हो जाएगा। स्वाभाविक है, होना ही पड़ेगा।
समृद्धि से सारे सदगुण पैदा होते हैं, क्योंकि समृद्धि तुम्हें अवसर देती है कि अब बेईमानी की जरूरत क्या है? जो बेईमानी से मिलता है वह मिला ही हुआ है।
लेकिन एक समय आया इस देश का, जब पश्चिम से लुटेरे आए, सैकड़ों हमलावर आए--हूण आए, तर्क आए, मुगल आए, फिर अंग्रेज, पुर्तगीज--और यह देश लुटता ही रहा, लुटता ही रहा! और यह देश दीन होता चला गया।
और ध्यान रखना, मनुष्य का मन हर चीज के लिए तर्क खोज लेता है। जब यह देश बहुत दीन हो गया तो अब अपने अहंकार को कैसे बचाएं! तो हमने दीनता की प्रशंसा शुरू कर दी। हम कहने लगे: अंगूर खट्टे हैं। जिन अंगूरों तक हम पहुंच नहीं सकते उनको हम खट्टे कहने लगे! और हम कहने लगे अंगूरों में हमें रस ही नहीं है। जैसे हम दरिद्र हुए वैसे ही हम दरिद्रता का यशोगान करने लगे। यह अपने अहंकार को समझाना था, लीपा-पोती करनी थी। और अब भी यह लीपा-पोती चल रही है। इसे तोड़ना होगा।यह देश समृद्ध हो सकता है, इस देश की भूमि फिर सोना उगल सकती है। मगर तुम्हारी दृष्टि बदले तो। तुम्हारे भीतर वैज्ञानिक सूझ-बूझ पैदा हो तो। कोई कारण नहीं है दरिद्र रहने का और एक बार तुम समृद्ध हो जाओ तो तुम्हारे भीतर भी आकाश को छूने की आकांक्षा बलवती होने लगेगी। फिर करोगे क्या? जब धन होता, पद होता, प्रतिष्ठा होती, सब होता है, फिर तुम प्रश्न जीवन के-- आत्यंतिक प्रश्न--उठने शुरू होते हैं...मैं कौन हूं? ये भरे पेट ही उठ सकते हैं। भूखे भजन न होइ गोपाला। यह भजन, यह कीर्तन, यह गीत, यह आनंद यह उत्सव भरे पेट ही हो सकता है। और परमात्मा ने सब दिया है। अगर वंचित हो तो तुम अपने कारण से वंचित हो। अगर वंचित हो तो तुम्हारी गलत धारणाओं के कारण तुम वंचित हो।
अमरीका की कुल उम्र तीन सौ साल है और तीन सौ साल की उम्र में आकाश छू लिया, सोने के ढेर लगा दिए! और यह देश कम से कम दस हजार साल से जी रहा है और हम रोज दीन होते गए, रोज दरिद्र होते चले गए। यहां तक दरिद्र हो गए कि अपनी दरिद्रता को हमें सुंदर वस्त्र पहनाने पड़े--दरिद्रनारायण! हमें दरिद्रता के गुनगान गाने पड़े। हमने दरिद्रता को अध्यात्म बनाना शुरू कर दिया।
जर्मनी का एक विचारक काउन्ट कैसरलिंग जब भारत से वापस लौटा तो उस ने भारत की यात्रा की अपनी डायरी लिखी। उस डायरी में उस ने जगह-जगह एक बात लिखी है जो बड़ी हैरानी की है। उस ने लिखा: भारत जा कर मुझे पता चला कि दरिद्र होने में अध्यात्म है। भारत जा कर मुझे पता चला कि बीमार, रुण्ण, दीन-हीन होने में अध्यात्म है। भारत जा कर मुझे पता चला कि उदास, मुर्दा होने में अध्यात्म है।
तुमसे मैं कहना चाहता हूं: ऐसा चलता रहा तो कोई आशा की किरण नहीं है रामानंद! आशा की एक किरण है, सिर्फ एक किरण कि यह देश समृद्ध होने की अभीप्सा से भरे। फिर उस अभीप्सा से अपने-आप अध्यात्म का जन्म होगा।
हवा में इन दिनों जहरीला सरूर है।
हवा में इन दिनों जहरीला सरूर है।
हर एक सर उठाए है गोवर्धन
परेशानियों के
हर एक अधमरा है अनिश्चयों आर बेहालियों से हर एक है हर एक से नाराज
पर टहलता है होकर बगलगीर
रिश्ता आदमी का आदमी से
चकनाचूर है।
हवा मग इन दिनों जहरीला सरूर है।
कोई बात है कि आदमी सब सह कर भी
बच रहता है
आंसुओं में हंस सकता है, दुखों मग भी
नच सकता है
दुश्मनी के दायरों, दौरों में
वह चीते की तरह है चौकन्ना
अपने पे की हद पर जिसे
मर जाना मंजूर है।
हवा में इन दिनों जहरीला सरूर है।
हवा में बहुत जहर छाया हुआ है। प्रेम की जगह घृणा के बीज हमने बोए हैं--हिंदू के, मुसलमान के ईसाई के, जैन के...! खंड-खंड हो गए हैं। अध्यात्म अखंड हवा में पैदा होता है। हमने भाईचारा तक छोड़ दिया है, मैत्री तक भूल गए हैं, प्रार्थना कैसे पैदा होगी? हम प्रेम के दुश्मन हो गए हैं, प्रार्थना कैसे पैदा होगी? और मैं अगर प्रेम की बात करता हूं तो सारा देश गालियां देने को तैयार है।प्रेम न करोगे तो तुम कभी प्रार्थना भी न कर सकोगे। क्योंकि यह प्रेम का ही इत्र है प्रार्थना। पत्नी को किया प्रेम का किया प्रेम, मिठ को किया, बेटे को, मां को, भाई को, पिता को, बंधु-बांधवों को और अब जगह पाया कि प्रेम बड़ा है और प्रेम का पात्र छोटा पड़ जाता है। उंडेलते हो, पात्र छोटा पड़ जाता है। पूरा तुम्हें झेल नहीं पाता। ऐसे अनेक-अनेक अनुभव होंगे तब एक दिन तुम उस परम पात्र को खोजोगे--परमात्मा को, जिसमें तुम अपने को उंडेल दो, तुम छोटे पड़ जाओ, पात्र छोटा न पड़े, कि तुम पूरे के पूरे चुक जाओ। तुम सागर हो और छोटी-छोटी गागरों में अपने उंडेल रहे हो; तृप्ति नहीं मिलती, कैसे मिलेगी? सागर को उंडेलना हो तो आकाश चाहिए। मगर सागर आकाश तक आए इसके पहले बहुत गागरों का अनुभव अनिवार्य है।
प्रेम करो! जीवन की निसर्गता से विरोध न करो, जीवन का निषेध न करो। जीवन का अंगीकार करो, अहोभाव से अंगीकार करो। क्योंकि उसी अंगीकार से फिर एक दिन तुम परमात्मा को भी अंगीकार कर सकोगे। परमात्मा यहीं छिपा है--इन्हीं वृक्षों में, इन्हीं लोगों में, इन्हीं पहाड़ों, इन्हीं पर्वतों में। तुम अस्तित्व को प्रेम करना सीखो। तुम्हारा तथाकथित धर्म तुम्हें अस्तित्व को घृणा करना सिखाता है। बाहर जो है निसर्ग, उसको भी घृणा करना सिखाता है और तुम्हारे भीतर जो है निसर्ग, उसे भी घृणा करना सिखाता है। निसर्ग को प्रेम करो क्योंकि निसर्ग परमात्मा का घूंघट है। निसर्ग को प्रेम करो तो घूंघट उठा सकोगे।
आशा की किरण तो निश्चित है। आशा की किरण तो कभी नष्ट नहीं होती। रात कितनी ही अमावस की आ गई हो, सुबह तो होगी। सुबह तो हो कर रहेगी। अमावस की रात कितनी ही लंबी हो, और कितना ही यह देश गलत धारणाओं में डूब गया हो, लेकिन फिर भी कुछ लोग हैं जो सोच रहे, विचार रहे, ध्यान कर रहे हैं। वे ही थोड़े से लोग तो धीरे-धीरे मेरे पास इकट्ठे हुए जा रहे हैं।
रोटी का मारा
यह देश
अभी कमल को
सही पहचानता है।
माना भूखा है, माना दीन-हीन है; मगर कुछ आंखें अभी भी आकाश की तरफ उठती हैं। कीचड़ बहुत है मगर कमल की पहचान बिलकुल खो गई हो ऐसा भी नहीं है। लाख में किसी एकाध को अभी भी कमल पहचान में आ जाता है, प्रत्यभिज्ञा हो जाती है। नहीं तो तुम यहां कैसे होते? जितनी गालियां मुझे पड़ रही हैं, जितना विरोध, जितनी अफवाहें उन सब के बावजूद भी तुम यहां हो। जरूर तुम कमल को कुछ पहचानते हो। लाख दुनिया कुछ कहे, सब लोक-लाज छोड़कर भी तुम मेरे साथ होने को तैयार हो। आशा की किरण है।
रोटी का मारा
यह देश
अभी कमल को
सही पहचानता है।
तल के पंक तक फैली
जल की गहराई से
उपजे सौंदर्य को
भूख के आगे झुके बिना
--धुर अपना मानता है।
रूखी रोटी पर तह-वत्तह
ताजा मक्खन लगाकर
कच्ची बुद्धिवाले कुछ लोगों के
हाथ में थमाकर
कृष्ण-कृष्ण कहते हुए
जो उनका कमल
छीन लेना चाहते हैं
उनकी नियत को
भली भांति जानता है।
भोले का भक्त है
फक्कड़ है
पक्का पियक्कड़ है
बांध कर अंगौछा
यहीं गंगा से घाट पर
दोनों जून छानता है;
किंतु मौका पड़ने पर
हर हर महादेव कहते हुए
प्रलयंकर त्रिशूल भी तानता है।
रोटी का मारा
यह देश
अभी कमल को
ठीक ठीक पहचानता है।
पहचान बिलकुल मर नहीं गई है। खो गई है, बहुत खो गई है। कभी-कभी कोई आदमी मिलता है--कोई आदमी, जिससे बात करो, जो समझ। मगर अभी आदमी मिल जाते हैं भीड़ अंधी हो गई है, मगर सभी अंधे नहीं हो गई हैं। लाख दो लाख में एकाध आंख वाला भी है, कान वाला भी है, हृदय वाला भी है। उसी से आशा है। अभी भी कुछ लोग तैयार हैं कि परमात्मा की मधुशाला कहीं हो तो द्वार पर दस्तक दें कि खोलो द्वार। अभी कुछ लोग तैयार हैं कि कहीं बुद्धत्व की संभावना हो तो हम उस से जुड़ जाए, चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। अभी भी कुछ लोग तैयार हैं कि कहीं पियक्कड़ों की जमात बैठे तो हम भी पीए, हम भी डूबें; चाहे दांव कुछ भी लगाना पड़े, चाहे दांव जीवन ही क्यों न लग जाए। इसलिए आशा की किरण है रामानंद! आशा की किरण नहीं खो गई है। निराश होने को कोई कारण नहीं है।
सच तो यह है, जितनी रात अंधेरी हो जाती है उतनी ही सुबह करीब होती है। रात बहुत अंधेरी हो रही है, इसलिए समझो कि सुबह बहुत करीब होगी। लोग बहुत क्षुद्र बातों के अंधेरे में खो रहे हैं, इसलिए समझो कि अगर सत्य प्रकट हुआ, प्रकट किया गया तो पहचानने वाले भी जुड़ जाएंगे, सत्य के दीवाने भी इकट्ठे हो जाएंगे।
और सत्य संक्रामक होता है। एक को लग जाए, एक को छू जाए, तो फैलता चला जाता है। एक जले दीए से अनंत-अनंत दीए जल सकते हैं। आशा है, बहुत आशा है। निराश होने का कोई कारण नहीं है। उसी आशा के भरोसे तो मैं काम में लगा हूं। जानता हूं कि भीड़ नहीं पहचान पाएगी, लेकिन यह भी जानता हूं कि उस भीड़ में कुछ अभिजात हृदय भी हैं, उस भीड़ में कुछ प्यासे भी हैं--जो तड़प रहे हैं और जिन्हें कहीं जल-स्रोत नहीं पड़ता; जहां जाते हैं पाखंड है, जहां जाते हैं व्यर्थ की बकवास है, जहां जाते हैं शास्त्रों का तोता-रटंत व्यवहार है, पुनरुक्ति है। वैसे कुछ लोग हैं। थोड़े से वैसे ही लोग इकट्ठे होने लगें कि संघ निर्मित हो जाए। संघ निर्मित होना शुरू हो गया है। यह मशाल जलेगी। यह मशाल इस अंधेरे को तोड़ सकती है। सब तुम पर निर्भर है!