।।ब्रह्मास्त्र महा विद्या श्रीबगला स्तोत्र।।
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ध्यान
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मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्याम्,
सिंहासनोपरि-गतां परिपीत-वर्णाम् ।
पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीम्,
देवीं नमामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।। १ ।।
अर्थात् अमृत का सागर । बीच में मणि-मण्डप की रत्न-वेदी । उस पर सिंहासन । उस पर पीले रंग की देवी ‘बगला’ आसीन हैं । उनके वस्त्र, आभूषण तथा पुष्प-माला- सब कुछ पीले रंग के ही हैं । बाँएँ हाथ में शत्रु की जीभ खींचकर, दाहिने हाथ से मुद्-गर लेकर, उस पर प्रहार करने जा रही है । उन्हीं माँ बगला को मेरा प्रणाम ।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीम्,
वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाऽभिघातेन च दक्षिणेन,
पीताम्बराढ्यां द्वि-भुजां नमामि ।। २ ।।
अर्थात् बाँएँ हाथ में शत्रु की जीभ को खींचकर, दाहिने हाथ में गदा लेकर प्रहार करती हुई, पीताम्बरा द्वि-भुजा बगला को मेरा प्रणाम ।।
।। मूल-पाठ ।।
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चलत्-कनक-कुण्डलोल्लसित-चारु-गण्ड-स्थलीम्,
लसत्-कनक-चम्पक-द्युतिमदिन्दु-बिम्बाननाम् ।
गदा-हत-विपक्षकां कलित-लोल-जिह्वाऽञ्चलाम्,
स्मरामि बगला-मुखीं विमुख-वाङ्-मनस-स्तम्भिनीम् ।। ३ ।।
अर्थात् चञ्चल सुवर्ण-कुण्डलों से शोभित कपोलों वाली तथा कनक एवं चम्पा के पुष्प-सदृश शरीर की कान्ति वाली चन्द्र-मुखी, गदा-प्रहार से विपक्षियों को सदा विनष्ट करनेवाली, सुन्दर चञ्चल-जीभवाली, विमुखों की वाणी और मन का स्तम्भन करनेवाली बगला-मुखी को स्मरण करता हूँ ।
पीयूषोदधि-मध्य-चारु-विलसद्-रत्नोज्जवले मण्डपे,
तत्-सिंहासन-मूल-पतित-रिपुं प्रेतासनाध्यासिनीम् ।
स्वर्णाभां कर-पीडितारि-रसनां भ्राम्यद् गदां विभ्रतीम्,
यस्त्वां ध्यायति यान्ति तस्य विलयं सद्योऽथ सर्वापदः ।। ४ ।।
अर्थात् जो भक्त साधक सुधा-समुद्र के बीच में रत्नोज्ज्वल मण्डप में अनेकानेक रत्न-जटित स्वर्ण-सिंहासन पर आसीन, सुवर्ण कान्ति-वाली, एक हाथ से शत्रु की जीभ और दूसरे से घूमती हुई गदा को धारण किए, प्रेतासन पर बैठी हुई, शत्रुओं के शिरों को झूकानेवाली तुमको ध्यान करता है, उसकी समस्त आपदाएँ, तुरन्त समाप्त हो जाती हैं ।
देवि ! त्वच्चरणाम्बुजार्च-कृते यः पीत-पुष्पाञ्जलिम्,
भक्त्या वाम-करे निधाय च मनुं मन्त्री मनोज्ञाक्षरम् ।
पीठ-ध्यान-परोऽथ कुम्भक-वशाद् बीजं स्मरेत् पार्थिवम्,
तस्यामित्र-मुखस्य वाचि हृदये जाड्यं भवेत् तत्क्षणात् ।। ५ ।।
अर्थात् हे देवि ! जो भक्त तुम्हारे चरण-कमलों के अर्चन में पीत-पुष्पों की अञ्जलि भक्ति-पूर्वक निज वाम कर में रचकर, पीठ-ध्यान में तत्पर होकर, कुम्भक, प्राणायाम द्वारा तुम्हारे मनोज्ञ (मनोहर) अक्षरवाले मन्त्र भूमि-बीज (लं) का स्मरण करता है, उसके शत्रु के मुख-वचन और हृदय में तुरन्त जड़ता व्याप्त हो जाती है ।
वादी मूकति रंकति क्षिति-पतिर्वैश्वानरः शीतति,
क्रोधी शाम्यति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति ।
गर्वी खर्वति सर्व-विच्च जडति त्वन्मन्त्रिणा यन्त्रितः,
श्री-नित्ये, बगला-मुखि ! प्रतिदिनं कल्याणि ! तुभ्यं नमः ।। ६ ।।
अर्थात् तुम्हारे मन्त्र के जानकार साधक के द्वारा यन्त्रित किया गया वादी गूँगा, राजा रंक, अग्नि शीतल, क्रोधी शान्त, दुष्ट-जन सु-जन, तीव्र गतिवाला लँगड़ा, घमण्डी छोटा तथा सर्वज्ञ जड़ हो जाता है । इसीलिए हे कल्याणि ! श्री-स्वरुपे ! नित्ये ! भगवति बगले ! मैं तुम्हें प्रतिदिन नमस्कार करता हूँ ।
मन्त्रस्तावदलं विपक्ष-दलने स्तोत्रं पवित्रं च ते,
यन्त्रं वादि-नियन्त्रणं त्रि-जगतां जत्रं च चित्रं च ते ।
मातः ! श्रीबगलेति नाम ललितं यस्यास्ति जन्तोर्मुखे,
त्वन्नाम-स्मरणेन संसदि मुख-स्तम्भो भवेद् वादिनाम् ।। ७ ।।
अर्थात् विपक्षियों के दमनार्थ तुम्हारा मन्त्र ही पर्याप्त है और तद्-वत् पवित्र स्तोत्र भी । वादियों के नियन्त्रण के लिए त्रिलोक प्रसिद्ध तुम्हारा विजय-शाली-यन्त्र भी विचित्र है । हे माँ ! ‘श्रीबगला’-यह ललित तुम्हारा नाम जिस साधक के मुख को शोभित करता है, वह भाग्य-शाली है, क्योंकि सभा में तुम्हारे नाम का स्मरण करते ही वादियों का मुख स्तम्भित हो जाता है ।
दुष्ट-स्तम्भनमुग्र-विघ्न-शमनं दारिद्र्य-विद्रावणम्,
भूभृत्-सन्दमनं चलन्मृग-दृशां चेतः समाकर्षणम् ।
सौभाग्यैक-निकेतनं सम-दृश कारुण्य-पूर्वेक्षणम्,
मृत्योर्मारणमाविरस्तु पुरतो मातस्त्वदीयं वपुः ।। ८ ।।
अर्थात् दुष्ट जनों का स्तम्भक, उग्र विघ्नों का शामक, दरिद्रता-निवारक, राजाओं का दमन-कारक, मृगाक्षियों के चञ्चल चित्त का समाकर्षक एवं सम-दर्शियों के लिए सौभाग्य का एकमेव निकेतन, करुणा-पूर्ण नेत्रोंवाला और मृत्यु का भी मारक तुम्हारा सुन्दर शरीर हे माँ ! मेरे आगे प्रकट हो ।
मातर्भञ्जय मद्-विपक्ष-वदनं जिह्वां च संकीलय,
ब्राह्मीं मुद्रय दैत्य-देव-धिषणामुग्रां गतिं स्तम्भय ।
शत्रूंश्चूर्णय देवि ! तीक्ष्ण-गदया गौरांगि, पीताम्बरे !
विघ्नौघं बगले ! हर प्रणमतां कारुण्य-पूर्णेक्षणे ! ।। ९ ।।
अर्थात् हे गौरांगि ! पीताम्बरे ! माँ देवि ! मेरे विपक्षियों के मुख को तोड़ दो, उनकी जिह्वा को कील दो, वाणी को बन्द करो, देव और दैत्यों की उग्र बुद्धि तथा गतियों को स्तम्भित करो, अपनी तीक्ष्ण गदा से शत्रुओं को चूर्ण कर दो, अपनी करुणा-पूर्ण दृष्टि से भक्तों के विघ्नों के समूह को दूर करो ।
मातर्भैरवि ! भद्र-कालि विजये ! वाराहि ! विश्वाश्रये !
श्रीविद्ये ! समये ! महेशि ! बगले ! कामेशि ! वामे रमे !
मातंगि ! त्रिपुरे ! परात्पर-तरे ! स्वर्गापवर्ग-प्रदे !
दासोऽहं शरणागतः करुणया विश्ववेश्वरि ! त्राहि माम् ।। १० ।।
अर्थात् हे माँ बगले ! भैरवी, भद्र-काली, वाराही, भुवनेश्वरी, श्रीविद्या, षोडशी, बाला-त्रिपुर-सुन्दरी, कमला आदि सब तुम्ही हो, स्वर्ग और मोक्ष भी तुम्हीं देती हो, परात्पर ब्रह्म भी तुम हो, मैं तुम्हारा शरणागत हूँ । हे विश्वेश्वरि ! करुणा करके मेरी रक्षा करो ।
त्वं विद्या परमा त्रिलोक-जननी विघ्नौघ-संच्छेदिनी,
योषाकर्षण-कारिणि पशु-मनः-सम्मोह-सम्वर्द्धिनी ।
दुष्टोच्चाटन-कारिणी पशु-मनः-सम्मोह-सन्दायिनी,
जिह्वा-कीलन-भैरवी विजयते ब्रह्मास्त्र-विद्या परा ।। ११ ।।
अर्थात् तुम परमा विद्या हो, त्रिलोकों की जननी हो, विघ्न-समूह की नाशिका हो, स्त्रियों को आकर्षित करने वाली हो, जगत्-त्रय का आनन्द बढ़ाने वाली हो, दुष्टों का उच्चाटन करने वाली हो, पशु-जन के मन को सम्मोह देनेवाली हो और शत्रु की जिह्वा-कीलन करने में भैरवी हो । सदैव विजय देनेवाली परा ब्रह्मास्त्र-विद्या हो ।
विद्या-लक्ष्मीर्नित्य-सौभाग्यमायुः,
पुत्रैः पौत्रैः सर्व-साम्राज्य-सिद्धिः ।
मानं भोगो वश्यमारोग्य-सौख्यम्,
प्राप्तं सर्वं भू-तले त्वत्-परेण ।। १२ ।।
अर्थात् सम्पूर्ण विद्याएँ, लक्ष्मी, नित्य सौभाग्य, दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि-सहित सर्व-साम्राज्य-सिद्धि, मान, भोग, वश्यता, आरोग्यता, सुख आदि समस्त जो-जो भी मनुष्य को प्राप्त होना चाहिए, वह सब तुम्हारी कृपा से इस पृथ्वी पर ही साधक को प्राप्त होता है ।
पीताम्बरां द्वि-भुजां च, त्रि-नेत्रां गात्र-कोमलाम् ।
शिला-मुद्-गर-हस्तां च, स्मरामि बगला-मुखीम् ।। १३ ।।
अर्थात् कोमल शरीरवाली, वज्र और मुद्गर हाथों में धारण करने वाली, त्रि-नेत्र एवं दो भुजाओं वाली पीताम्बरा बगला-मुखी का मैं स्मरण करता हूँ ।
पीत-वस्त्र-लसितामरि-देह-प्रेत-वासन-निवेशित-देहाम्,
फुल्ल-पुष्प-रवि-लोचन-रम्यां दैत्य-जाल-दहनोज्जवल-भूषां ।
पर्यंकोपरि-लसद्-द्विभुजां कम्बु-जम्बु-नद-कुण्डल-लोलाम्,
वैरि-निर्दलन-कारण-रोषां चिन्तयामि बगलां हृदयाब्जे ।। १४ ।।
अर्थात् पीले वस्त्र पहननेवाली, शत्रु के शव पर अधिष्ठाता, फूल की तरह विकसिता और सूर्य की तरह दीप्त लोचन, असुरों के निधन के लिए जो उजले वस्त्र धारण करती है, पलँग पर शोभा पाने वाली द्वि-भुजा देवी, वलयाकार स्वर्ण-कुण्डल-सुशोभिता, शत्रुओं के निधन के लिए जो अत्यन्त क्रोधी हैं, उन्हीं का हृदय-कमल में ध्यान करता हूँ ।
गेहं नाकति, गर्वितः प्रणमति, स्त्री-संगमो मोक्षति,
द्वेषी मित्रति, पातकं सु-कृतति, क्ष्मा-वल्लभो दासति ।
मृत्युर्वैद्यति, दूषण सु-गुणति, त्वत्-पाद-संसेवनात्,
वन्दे त्वां भव-भीति-भञ्जन-करीं गौरीं गिरीश-प्रियाम् ।। १५ ।।
अर्थात् हे माँ ! तुम्हारी चरण-सेवा से घर स्वर्ग बन जाता है, अहंकारी नम्र तथा विनीत बन जाता है, स्त्री-संसर्ग करने वाला मोक्ष प्राप्त करता है, शत्रु मित्र बन जाता है, पापी पुण्यवान् बन जाता है, राजा दास बन जाता है, यम भी वैद्य बन जाता है तथा दुर्गुण सद्गुण में बदल जाता है । हे संसार-भय दूर करने वाली, शिव-प्रिया, गौरी, बगला ! तुम्हारी वन्दना करता हूँ ।
आराध्या जदम्ब ! दिव्य-कविभिः सामाजिकैः स्तोतृभि-
र्माल्यैश्चन्दन-कुंकुमैः परिमलैरभ्यर्च्चिता सादरात् ।
सम्यङ्-न्यासि-समस्त-निवहे, सौभाग्य-शोभा-प्रदे !
श्रीमुग्धे बगले ! प्रसीद विमले, दुःखापहे ! पाहि माम् ।। १६ ।।
अर्थात् अध्यात्म-वादी कवि, सामाजिक जनता और स्तुति करने वाले भक्त जगज्जननी बगला की सादर पूजा करते हैं । पुष्प-माला, चन्दन, कुंकुम और सुगन्धित-द्रव्यों से देवी की आराधना की जाती है । सब प्राणियों के शरीर में सम्यक् रुप से रहने वाली, सौभाग्य-प्रदा, श्री-मुग्धा, विमला, दुःख-हारिणी माँ बगला मेरी रक्षा करें ।
यत्-कृतं जप-सन्नाहं, गदितं परमेश्वरि !
दुष्टानां निग्रहार्थाय, तद् गृहाण नमोऽस्तु ते ।। १७ ।।
अर्थात् हे परमेश्वरि ! दुष्टों के निग्रहार्थ तुम्हारे विषय में जो मैंने जपादि-पूर्वक कहा है, उसे तुम स्वीकार करो, तुम्हें नमस्कार है ।
सिद्धिं साध्येऽवगन्तुं गुरु-वर-वचनेष्वार्ह-विश्वास-भाजाम्,
स्वान्तः पद्मासनस्थां वर-रुचि-बगलां ध्यायतां तार-तारम् ।
गायत्री-पूत-वाचां हरि-हर-नमने तत्पराणां नराणाम्,
प्रातर्मध्याह्न-काले स्तव-पठनमिदं कार्य-सिद्ध प्रदं स्यात् ।। १८ ।।
अर्थात् हे हरि-हर आदि की वन्दनीया माँ बगला ! सद्-गुरु के वचनों में विश्वास रखने वाला, तुममें अटल भक्ति रखने वाला, गायत्री-सिद्ध व्यक्ति, साध्य-विषय में सिद्धि प्राप्ति के लिए अपने हृदय में पद्मासना, उत्तम ज्योति-विशिष्टा बगला का ध्यान कर प्रातः और मध्याह्न में इस स्तव का निरन्तर पाठ करे, तो कार्य सिद्ध होता है ।
विद्या लक्ष्मीः सर्व-सौभाग्यमायुः,
पुत्रैः पौत्रौः सर्व-साम्राज्य-सिद्धिः ।
मानं भोगो वश्यमारोग्य-सौख्यम्,
प्राप्तं सर्वं भू-तले त्वत्-परेण ।। १९ ।।
अर्थात् विद्या, लक्ष्मी, सारे सौभाग्य, आयु, पुत्र-पौत्रादि के साथ सारे साम्राज्य की प्राप्ति, सम्मान, भोग, यश, आरोग्य तथा सुख आदि संसार का सब कुछ तुम्हारी आराधना से प्राप्त होता है ।
यत्-कृतं जप-संध्यानं, चिन्तनं परमेश्वरि !
शत्रूणां स्तम्भनार्थाय, तद् गृहाण नमोऽस्तु ते ।। २० ।।
अर्थात् हे परमेश्वरि ! शत्रुओं के स्तम्भन के लिए मैंने जो जप, ध्यान तथा चिन्तन किया, वह सब ग्रहण करो । तुमको मेरा प्रणाम है ।
।। फल-श्रुति ।।
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नित्यं स्तोत्रमिदं पवित्रमिह यो देव्याः पठत्यादरात्,
धृत्वा यन्त्रमिदं तथैव समरे बाहौ करे वा गले ।
राजानोऽप्यरयो मदान्ध-करिणः सर्पा मृगेन्द्रादिकाः,
ते वै यान्ति विमोहिता रिपु-गणा लक्ष्मोः स्थिरा सर्वदा ।। २१ ।।
अर्थात् भगवती पीताम्बरा के इस पवित्र स्तोत्र का पाठ जो साधक नित्य आदर-पूर्वक करता है तथा इनके यन्त्र को बाहु में अथवा कर में या गले में युद्ध-काल में धारण करता है, तो राजा एवं शत्रु-गण विमोहित हो जाते हैं । इतना ही नहीं, इसे साधक को लक्ष्मी की भी स्थिरता प्राप्त होती है ।
संरम्भे चौर-संघे प्रहरण-समये बन्धने व्याधि-मध्ये,
विद्या-वादे विवादे प्रकुपित-नृपतौ दिव्य-काले निशायाम् ।
वश्ये वा स्तम्भने वा रिपु-वध-समये निर्जने वा वने वा,
गच्छँस्तिषठँस्त्रि-कालं यदि पठति शिवं प्राप्नुयादाशु धीरः ।। २२ ।।
अर्थात् हे देवि ! विप्लव-काल में, चोरों के समूह में, शत्रु पर प्रहार-काल में बन्धन में, व्याधि-पीड़ा में, विद्या-सम्बन्धी विवाद में, मौखिक कलह में, नृप-कोप में और रात्रि के दिव्य-काल में, वश्य कार्य में, स्तम्भन में तथा शत्रु-वध के समय, निर्जन स्थान में अथवा वन में कहीं भी चलता हुआ, बैठा हुआ तीनों काल में जो साधक तुम्हारे स्तोत्र का पाठ करता है, वह धीर पुरुष शीघ्र ही कल्याण प्राप्त करता है ।
अनुदिनमभिरामं साधको यस्त्रि-कालम्,
पठति स भुवनेऽसौ पूज्यते देव-वर्गैः ।
सकलममल-कृत्यं तत्त्व-द्रष्टा च लोके,
भवति परम-सिद्धा लोक-माता पराम्बा ।। २३ ।।
अर्थात् जो साधक प्रति-दिन त्रि-सन्ध्या में इसका पाठ करता है, वह इस जगत् में देवताओं के द्वारा पूजित होता है । उसके सारे काम बन जाते हैं और वह संसार में तत्त्व-दर्शी बनता है । जगज्जननी पराम्बा बगला उसके लिए परम सिद्ध देवी बन जाती है ।
ब्रह्मास्त्रमिति विख्यातं, त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ।
गुरु-भक्ताय दातव्यं, न देयं यस्य कस्यचित् ।। २४ ।।
अर्थात् त्रिलोक में ‘ब्रह्मास्त्र’ नाम से ख्यात इस स्तोत्र को सबको न देकर केवल गुरु-भक्त शिष्यों को देना चाहिए ।
।। श्रीरुद्र-यामले उत्तर-खण्डे श्रीब्रह्मास्त्र-विद्या श्रीबगला-मुखी स्तोत्रम् ।।
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