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बुधवार, 27 जून 2018

#सनातन धर्म संस्कृति : जानिए हिन्दू धर्म के पवित्र #सोलह संस्कार #Sixteen rites #Sanatan Dharm


 *सनातन धर्म के 16 संस्कार*
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आज सनातन धर्म में 16 प्रमुख संस्कार होते हैं। सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का अविष्कार किया। धार्मिक के साथ ही वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का काफी महत्व है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया गया है। इस लेख के जरिये हम आपको सनातन धर्म के 16 संस्कारों के बारे में बता रहे हैं।
*गर्भाधान संस्कार*
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शास्त्रों में मान्य संस्कारों में पहला संस्कार गर्भाधान है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के बाद पहले कर्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गृहस्थ जीवन का प्रमुख उद्देश्य सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान के लिए अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए।
*पुंसवन संस्कार*
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गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास किया जाए। गर्भ के तीसरे माह में विधिवत पुंसवन संस्कार कराया जाता है। हिन्दू धर्म में संस्कार परंपरा के अंतर्गत भावी माता-पिता को यह तथ्य समझाए जाते हैं कि शारीरिक, मानसिक दृष्टि से परिपक्व हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प के साथ ही संतान पैदा करने की पहल करें।
*सीमन्तोन्नयन संस्कार*
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सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण या सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का तात्पर्य है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मकसद है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भावस्था से गुजर रही महिला का मन प्रसन्न रखने के लिए सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे या आठवें महीने में होता है।
*जातकर्म संस्कार*
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नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। दुनिया से प्रत्यक्ष संपर्क में आने वाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत गुरु मंत्र के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद मां बालक को स्तनपान कराती है।
*नामकरण संस्कार*
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शिशु जन्म के बाद पहला संस्कार नामकरण को कहा जा सकता है। वैसे जन्म के तुरंत बाद तो जातकर्म संस्कार का विधान है, किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में जातकर्म संस्कार व्यवहार में दिखाई नहीं देता। अपनी पद्धति में उसके तत्व को भी नामकरण के साथ समाहित कर लिया गया है। इस संस्कार के माध्यम से शिशु रूप में अवतरित जीवात्मा को कल्याणकारी यज्ञीय वातावरण का लाभ पहुंचाने का प्रयास किया जाता है।
*निष्क्रमण संस्कार*
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निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इस संस्कार में शिशु को पहली बार सूर्य और चंद्रमा की रोशनी दिखाने का विधान है। इस संस्कार के पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी और विनम्र बनाना उद्देश्य होता है। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन और उससे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिए आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने में इस संस्कार का विधान है।
*अन्नप्राशन संस्कार*
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शिशु को जब पेय पदार्थ, दूध आदि के अलावा अन्न देना शुरू किया जाता है तो इस प्रक्रिया को अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है। बालक के दांत निकलने पर उसे पेय पदार्थ के अलावा अतिरिक्त खाद्य पदार्थ दिये जाने का का संकेत होता है।
*मुंडन संस्कार*
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इसमें बच्चे के सिर से बालों को पहली बार उतारा जाता है। हिन्दु धर्म में यह रिवाज प्रचलित है कि मुंडन, बालक की आयु एक वर्ष की होने तक या दो वर्ष या फिर तीन वर्ष पूरे होने तक अवश्य करा लें।
*विद्यारंभ संस्कार*
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जब शिशु की आयु शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाए तो उसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है। इसमें समारोह के जरिये बालक में अध्ययन का उत्साह पैदा होता है। दूसरी तरफ अभिभावकों, शिक्षकों को भी उनके दायित्व के प्रति जागरूक कराया जाता है।
*कर्णवेध संस्कार*
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कर्णवेध संस्कार का वैज्ञानिक आधार है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा करना इस संस्कार का मकसद है। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है।
*यज्ञोपवीत संस्कार*
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यज्ञोपवीत यानी उपनयन संस्कार। इसमें जनेऊ पहना जाता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। यज्ञोपवीत सूत से बना वह पवित्र धागा है जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर और दाईं भुजा के नीचे पहनता है।
*वेदारम्भ संस्कार*
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यह संस्कार ज्ञानार्जन से संबंधत है। शास्त्रों में ज्ञान को सर्वोपरि माना गया है। प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यों के पास भेजा जाता था।
*केशान्त संस्कार*
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गुरुकुल में वेद का ज्ञान प्राप्त करने के बाद आचार्य के सम्मुख यह संस्कार संपन्न किया जाता था। यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने और गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है।
*समावर्तन संस्कार*
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गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशांत संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था।
*विवाह संस्कार*
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हिन्दू धर्म में परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक परिपक्वता आ जाने पर युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबन्ध मात्र नहीं है। यहां दाम्पत्य को श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का भी रूप दिया गया है।
*अन्त्येष्टि संस्कार*
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हिन्दूओं में किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके मृत शरीर को वेदोक्त रीति से चिता में जलाने की प्रक्रिया को अन्त्येष्अि क्रिया अथवा अन्त्येष्टि संस्कार कहा जाता है। हिन्दू मान्यता के अनुसार यह सोलह संस्कारों में से एक संस्कार है।
हिन्दू धर्म भारत ही नही अपितु विश्व का सर्वप्रमुख धर्म है। इसमें पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं। हिंदू धर्म की प्राचीनता एवं विशालता के कारण ही उसे 'सनातन धर्म' भी कहा जाता है।

इस्लाम ईसाई जैन बौद्ध आदि धर्मों के समान हिन्दू धर्म किसी भी व्यक्ति विशेष द्वारा स्थापित किया गया धर्म नहीं, बल्कि प्राचीन काल से चले आ रहे विभिन्न धर्मों एवं आस्थाओं का बड़ा समुच्चय है। महर्षि वेदव्यास के अनुसार मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक पवित्र सोलह संस्कार संपन्न किए जाते हैं। जो निम्नानुसार है :-
 
1. गर्भाधान : गर्भाधान संस्कार महर्षि चरक ने कहा है कि मन का प्रसन्न और पुष्ट रहना गर्भधारण के लिए आश्यक है इसलिए स्त्री एवं पुरुष को हमेशा उत्तम भोजन करना चाहिए और सदा प्रसन्नचित्त रहना चाहिए। गर्भ की उत्पत्ति के समय स्त्री और पुरुष का मन उत्साह, प्रसन्नता और स्वस्थ्यता से भरा होना चाहिए। उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए सबसे पहले गर्भाधान-संस्कार करना होता है। माता-पिता के रज एवं वीर्य के संयोग से संतानोत्पत्ति होती है। यह संयोग ही गर्भाधान कहलाता है। स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है।  गर्भस्थापन के बाद अनेक प्रकार के प्राकृतिक दोषों के आक्रमण होते हैं, जिनसे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिससे गर्भ सुरक्षित रहता है। विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है।
 
2. पुंसवन : : पुंसवन संस्कार तीन महीने के पश्चात इसलिए आयोजित किया जाता है क्योंकि गर्भ में तीन महीने के पश्चात गर्भस्थ शिशु का मस्तिष्क विकसित होने लगता है। इस समय पुंसवन संस्कार के द्वारा गर्भ में पल रहे शिशु के संस्कारों की नींव रखी जाती है। मान्यता के अनुसार शिशु गर्भ में सीखना शुरू कर देता है, इसका उदाहरण है अभिमन्यु जिसने माता द्रौपदी के गर्भ में ही चक्रव्यूह की शिक्षा प्राप्त कर ली थी।

3. सीमंतोन्नायन सीमंतोन्नायन संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म का ज्ञान आए, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। इस दौरान शांत और प्रसन्नचित्त रहकर माता को अध्ययन करना चाहिए।

4. जातक्रम : बालक का जन्म होते ही जातकर्म संस्कार को करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है ताकि बच्चा स्वस्थ और दीर्घायु हो।
 
5. नामकरण : जातकर्म के बाद नामकरण संस्कार किया जाता है। जैसे की इसके नाम से ‍ही विदित होता है कि इसमें बालक का नाम रखा जाता है। शिशु के जन्म के बाद 11वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बच्चे का नाम तय किया जाता है। बहुत से लोगों अपने बच्चे का नाम कुछ भी रख देते हैं जो कि गलत है। उसकी मानसिकता और उसके भविष्य पर इसका असर पड़ता है। जैसे अच्छे कपड़े पहने से व्यक्तित्व में निखार आता है उसी तरह अच्छा और सारगर्भित नाम रखने से संपूर्ण जीवन पर उसका प्रभाव पड़ता है। ध्यान रखने की बात यह है कि बालक का नाम ऐसा रखें कि घर और बाहर उसे उसी नाम से पुकारा या जाना जाए।
 
6. निष्क्रमण : इसके बाद जन्म के चौधे माह में निष्क्रमण संस्कार किया जाता है। निष्क्रमण का अर्थ होता है बाहर निकालना। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश आदि से बना है जिन्हें पंचभूत कहा जाता है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। साथ ही कामना करते हैं कि शिशु दीर्घायु रहे और स्वस्थ रहे।
 
7. अन्नप्राशन : अन्नप्राशन संस्कार संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है। प्रारंभ में उत्तम प्रकार से बना अन्न जैसे खीर, खिचड़ी, भात आदि दिया जाता है।
 
8. चूड़ाकर्म : सिर के बाल जब प्रथम बार उतारे जाते हैं, तब वह चूड़ाकर्म या मुण्डन संस्कार कहलाता है। जब शिशु की आयु एक वर्ष हो जाती है तब या तीन वर्ष की आयु में या पांचवें या सातवें वर्ष की आयु में बच्चे के बाल उतारे जाते हैं। इस संस्कार से बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है। साथ ही शिशु के बालों में चिपके कीटाणु नष्ट होते हैं जिससे शिशु को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है।
 
9. कर्णवेध : : कर्णवेध संस्कार का अर्थ होता है कान को छेदना। इसके पांच कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से ज्योतिषानुसार राहु और केतु के बुरे प्रभाव बंद हो जाते हैं। तीसरा इसे एक्यूपंक्चर होता जिससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होने लगता है। चौथा इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है और कई रोगों की रोकथाम हो जाती है। पांचवां इससे यौन इंद्रियां पुष्ट होती है।
 
10. यज्ञोपवीत :उपनयन : वेदारम्भ:

यज्ञोपवित को उपनय या जनेऊ संस्कार भी कहते हैं। प्रत्येक हिन्दू को यह संस्कार करना चाहिए। उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। आज भी यह परंपरा है।

जनेऊ यानि यज्ञोपवित में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। इस संस्कार से शिशु को बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है। साथ ही उसमें आध्यात्मिक भाव जागृत होता है।

वेदारंभ : इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है।
 
11. केशांत : केशांत का अर्थ है बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत या कहें कि मुंडल किया जाता है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें। प्राचीनकाल में गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद भी केशांत संस्कार किया जाता था।
 
12. समावर्तन : समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम या गुरुकुल से शिक्षा प्राप्ति के बाद व्यक्ति को फिर से समाज में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार किया जाना।
 
13  विवाह : उचित उम्र में विवाह करना जरूरी है। विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है। इसके अंतर्गत वर और वधू दोनों साथ रहकर धर्म के पालन का संकल्प लेते हुए विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान ही नहीं दिया जाता बल्कि व्यक्ति के आध्यात्मिक और मानसिक विकास के लिए भी यह जरूरी है। विवाह कें पश्चात दांपत्य सुख और संतानोत्पति कें कर्म कर व्यक्ति इसी संस्कार से व्यक्ति पितृऋण से भी मुक्त होता है।
 
14 आवसश्याधाम / वानप्रस्थ :  पितृऋण से दायित्व से मुक्त हो जाने पर व्यक्ति अपने आप को इस संसार कें कल्याण कें लिए समर्पित कर देता है गृहस्थाश्रम का त्याग कर व्यक्ति समाज में ही रहकर मोह माया कें भाव से निर्लिप्त हो जाता है। यही वानप्रस्थ है।
   
15 परिव्राज्य या सन्यास : : एक उचित समय आने पर व्यक्ति सामाजिक बंधनों दें मुक्त हो ईश्वर कि आराधना में वन गमन करता है तो यह संस्कार सन्यास या परीव्रज्य संस्कार कहलाते है

16. श्रोताधाम / अंत्येष्टि / अंतिम संस्कार : : अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम संस्कार। शास्त्रों के अनुसार इंसान की मृत्यु यानि देह त्याग के बाद मृत शरीर अग्नि को समर्पित किया जाता है। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है।  

इस प्रकार हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार किए जाते हैं।

इन संस्कारों का मूल उद्देश्य प्राणी को समाज कें कल्याण कें लिए तैयार करना है। जीवात्मा ना जाने कितने जन्मों से भटककर मनुष्य योनि में जन्म पाती है । पूर्व जन्मों में कीट पतंग पशु पक्षी सरीसृप स्थावर जंगम जलचर नभचर थलचर मनुष्य ना जाने किस देह से संचित पाप कर्मों और दोषों कें साथ जीव जन्म लेता है उन्हीं दोषों का मार्जन करने कें लिए ये संस्कार किये जाते है। जिस प्रकार एक अशुद्ध या मलिन पदार्थ को शुद्द किया जाकर उसे उपयोगी बनाया जाता है ठीक उसी प्रकार जीवात्मा को इन संस्कारों कें द्वारा परिशुद्ध किया जाकर मानव जीवन कि सार्थकता सिद्द की जाति है । विर्धर्मी समाज इन संस्कारों को नही अपनाता फलस्वरूप उनमें आतंकवादी जिहादी आततायी और नरभक्षी अमानुष जनमते है।
हिन्दू जन्म से लेकर मृत्यु तक इन 16 संस्कारों का पालन करते है। 16 Hindu Tradition #सनातन धर्म संस्कृति : जानिए हिन्दू धर्म के पवित्र #सोलह संस्कार #Sixteen rites #Sanatan Dharm

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शास्त्रों के अनुसार किस नक्षत्र की किस नक्षत्र से मित्रता तथा किस नक्षत्र से शत्रुता एवं किस से सम भाव रहता है?   शास्त्रों में नक्षत्रों के...