अपने मानसिक जगत में "स्वयं" उपस्थित रहना पर्याप्त है।'
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एक वे लोग हैं जिनके लिये स्वयं सब कुछ है,स्वयं से भिन्न कहीं कुछ नहीं।एक वे हैं जिनके लिये सब मानसिक है,मनोमय है।एक वे हैं जिनके लिये कुछ मानसिक है,कुछ बाहरी है।एक वे हैं जिनके लिये सब कुछ बाहर ही है,बाहरी ही है।
इनमें हम कौन से हैं?
सब बाहर है तो मुश्किल है।थोडा बाहर,थोडा मानसिक है तो कोशिश की जा सकती है।कोशिश यही कि हम जानें सब मानसिक है,या कुछ समय निकाल कर अपने मानसिक जगत में "स्वयं" उपस्थित रहने की कोशिश करें।हम अपने मन में "स्वयं" उपस्थित नहीं रहते क्योंकि मन,बाह्य जगत का भ्रम उत्पन्न करता है।हमें वह भ्रम नहीं, वास्तविक लगता है और वास्तविक मानने से हमारे स्वार्थ उससे जुडे होते है।चित्त बंट जाता है।या कहें हम ही बंट जाते हैं।
जब हम स्वयं सचमुच अपने मानसिक जगत में उपस्थित रहने लगते हैं,मानसिक जगत बिखरने लगता है।स्वस्थता घटने लगती है,अखंडता छाने लगती है।तब हमारा शरीर,अन्य शरीरों की तरह उपस्थित रहता है परंतु निर्विचार स्वस्थता का,अखंडता का बहुत प्रभाव होता है।लोगों से सीधे रचनात्मक, सकारात्मक संबंध बनते हैं।अभी संबंध मन से बने हुए हैं।मन में जिसकी जैसी छबि,जैसी इमेज वैसा व्यक्ति से संबंध।यह संबंध है ही नहीं।संबंध तो हितकारी ही सही है।स्वस्थ,प्रेमपूर्ण ही सही है।
हम मन के हिसाब से संबंध न बनायें तो कुछ हो।
हम मन से क्यों संबंध बनाते हैं?क्योंकि वही प्रभावी है।मन मालिक बना बैठा है।हमारा तो कहीं कुछ पता ही नहीं।पता लगाना पडे अन्यथा हम सुखी नहीं हो सकते।
सुखी तभी होंगे जब हम जान लेंगे कि यह सृष्टि पूरी तरह से मानसिक है।जैसी सृष्टि वैसा मन नहीं, जैसा मन वैसी सृष्टि।जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि।
"दृष्टि ही सृष्टि है।"
तो हमारी जैसी दृष्टि है वैसी बनी सृष्टि में-मानसिक सृष्टि में हमको स्वयं को उपस्थित रहना है।अभी हम मानसिक सृष्टि को बाहरी सृष्टि मानते हैं इसलिए मानसिक सृष्टि से बहुत बचते हैं।
हर आदमी बचाव करता नजर आता है।वह वस्तुतः अपनी मानसिक सृष्टि से ही बचाव खोजता फिरता है।हाल बेहाल है।यदि वह इसे जानले तो समझ में आ जायेगा कि अपनी ही बनाई अपनी मानसिक सृष्टि से भागकर कहां जाया जा सकता है?
"If the objects have an independent existence,i.e.,if they exist anywhere apart from you,then it may be possible for you to go away from them.
But they don't exist apart from you;they owe their existence to you,your thought.
So where can you go to escape them?"
इसलिए जरूरी है कि अपनी मानसिक सृष्टि कैसी भी लगे अच्छी या बुरी,हम निर्भय होकर स्वयं अपनी उस मानसिक सृष्टि में उपस्थित रहें।यह हो सके तो मानसिक सृष्टि बिखरने लगेगी,दूसरे अर्थों में बाहरी सृष्टि बिखरने लगेगी क्योंकि मानसिक सृष्टि ही बाहरी सृष्टि बनी हुई है।बाहरी समझकर हम स्वयं को बचा रहे थे।मानसिक जान स्वयं उपस्थित रहते तो कभी की स्वतंत्रता घट गयी होती।
इसके लिये हिम्मत की भी जरूरत कहां है,सब मानसिक खेल है।
बाहरी सृष्टि मानने से सुख के लिये उस पर निर्भरता उत्पन्न होती है,सुख की इच्छा उत्पन्न होती है इसलिए कृष्ण इंद्रियों से परे मन,मन से परे बुद्धि और बुद्धि से भी अत्यंत परे आत्मा(स्वयं)को जानने के लिये कहते हैं।
कहां महान आत्मा(स्वयं)और कहां मन और इंद्रियों-आंखकान आदि के रागद्वेष।अपनी स्थिति को पहचानना चाहिए।
हम अहंकार के रुप में किसीके अधीन नहीं रहना चाहते मगर आत्मा(स्वयं)के रुप में किसीके अधीन न रहने का कुछ पता नहीं।
अहंकार तो तत्काल अनुकूलता के अधीन होजाता है जबकि आत्मा अनुकूल या प्रतिकूल किसीके अधीन नहीं होता।स्वयं सदा सर्वतंत्र स्वतंत्र है जानें तो।नहीं जानने पर अनिच्छित अधीनता बनी रहती है।
स्वयं पूरी तरह से स्वतंत्र है या हो सकता है।यह हकीकत है फिर भी व्यक्तिगत है।कुछ लोग जो मेरा सत्संग बराबर पढते हैं वे कभी सांसारिक रागद्वेष की बात करते हैं तो विचार आता है इतने दिन ये क्या पढ रहे थे।इन्हें समझ में तो कुछ आया ही नहीं।तब लगता है हमारा सत्य का अनुभव अपने आपमें रहना चाहिए, केंद्रस्थ रहना चाहिए।किसीको समझ में आया तो ठीक,न आया तो ठीक यह उसका विषय है,अपना विषय नहीं होना चाहिए।अपना विषय तो यही कि हम स्वयं अपने इस मानसिक जगत में उपस्थित रहें ताकि इसका तथाकथित बाहरी रुप पूरी तरह से बिखर सके।
हमारी स्वस्थता,अखंडता का घटना पर्याप्त है।हम आंतरिक, बाहरी में बंटे हुए नहीं हैं तो फिर सब ठीक है।हम मुक्त हुए।