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*मैं धीरे-धीरे सीख रही हूँ कि...*
मुझे हर उस बात पर प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए जो मुझे बाद में चिंतित करती है।
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*मैं धीरे-धीरे सीख रही हूँ कि...*
जिन्होंने मुझे चोट दी है मुझे उन्हें चोट नहीं देनी चाहिए क्योंकि उसमे मेरी ही उर्जा व्यय होती है ।
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*मैं धीरे-धीरे सीख रही हूँ कि...*
शायद सबसे बड़ी समझदारी का लक्षण ये है की, भिड़ के साथ, जाने के बजाय अलग हट जाने में ही मजा है।
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*मैं धीरे-धीरे सीख रही हूँ कि...*
अपने साथ हुए प्रत्येक बुरे बर्ताव पर प्रतिक्रिया करने में हमारी जो शक्ति और ऊर्जा सब खर्च हो जाती है, वह हमको उदास कर देती है ।
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*मैं धीरे-धीरे सीख रही हूँ कि...*
मैं हर आदमी से वैसा व्यवहार नहीं पा सकूंगी जिसकी मैं अपेक्षा करती हूँ। जो बाद में , मेरे मन को गुस्से से भर जाता हैं ।
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*मैं धीरे-धीरे सीख रही हूँ कि...*
किसी का दिल जीतने के लिए बहुत कठोर प्रयास करना, समय और ऊर्जा की बर्बादी है और यह हमको कुछ नहीं देता, केवल खालीपन से भर देता है। इसलिए जितने की अपेक्षा छोड़ दी है ।
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*में धीरे धीरे शिख रही हूं कि...*
लोगो को प्रेम में रस नहीं, है, उनको सेक्स में ही रस है । इस लिए ऐसे लोगो से दूरी ही बनाई रखना अच्छा है ।
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*मैं धीरे-धीरे सीख रही हूँ कि...*
जवाब नहीं देने का अर्थ यह कदापि नहीं कि यह सब मुझे स्वीकार्य है, बल्कि यह कि मैं इससे,स्वीकार,अस्वीकार से, ऊपर उठ जाना बेहतर समझती हूँ।
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*मैं धीरे-धीरे सीख रही हूँ कि...*
कभी-कभी कुछ नहीं कहना सब कुछ बोल देता है। इसलिए मैने मौन रहना चालू कर दिया है ।
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*मैं धीरे-धीरे सीख रही हूँ कि...*
किसी परेशान करने वाली बात पर प्रतिक्रिया देकर हम अपनी भावनाओं पर नियंत्रण की शक्ति किसी दूसरे को दे बैठते हैं।
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*मैं धीरे-धीरे सीख रही हूँ कि...*
मैं कोई प्रतिक्रिया दे दूँ तो भी कुछ बदलने वाला नहीं है। इससे लोग अचानक मुझे प्यार और सम्मान नहीं देने लगेंगे। यह उनकी सोच में कोई जादुई बदलाव नहीं ला पायेगा। इसलिए मैने, अब प्रतिक्रिया देना बन्ध कर दिया है ।
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*मैं धीरे-धीरे सीख रही हूँ कि...*
जिंदगी तब बेहतर हो जाती है जब हम इसे अपने आसपास की घटनाओं पर केंद्रित न करने के बजाय उसपर केंद्रित कर देते हैं, जो हमारे अंतर्मन में घटित हो रहा है।
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*में धीरे धीरे शिख रही हूं कि...*
लोग, हसने का मतलब गलत समझ ने लगते हैं, जैसे ही कोई पुरुष को स्माइल दिया, वो समझने लगते है, की में उनके प्रेम में हूं । और उसमे से गलत वेहमी बनती हैं, फिर उसमे से दुख उत्पन होता है ।
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*में* *धीरे धीरे शीख रही हूं* *कि*
फिर हमे चिंतित करने वाली हर छोटी-छोटी बात पर प्रतिक्रिया 'नहीं' देना ओर *ओशो का बताया हुआ, ध्यान करना* चालू कर देना है, ध्यान एक स्वस्थ और प्रसन्न जीवन का 'प्रथम अवयव' है ।
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*मैं धीरे धीरे सीख रही हूं,* *की*
बिना ध्यान, ये सब उपर की बात संभालना मुश्किल है, अशक्य है, इस लिए मैं धीरे धीरे ज्यादा ध्यान करने लगी हूं
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*में धीरे धीरे शीख रही हूं कि...*
ओशो, गुरजिएफ और कृष्णमूर्ति को छोड़ के बाकी सब बाबा बकवास है, । बाकी गुरु को सुनना एक नया फसाना है ।
*धन और ध्यान ।*
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ओशो ने कहा है, की पश्चिम का विज्ञान ( Science) और पूर्व का ज्ञान ( wisdom ) दोनों मिलाके ही कोई व्यक्ति प्रबुद्ध ( Enlighten ) बन सकता है, विज्ञान से धन आयेगा ओर ज्ञान से ध्यान आयेगा...
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ओशो कहते है , जोरबा ध बुद्धा,,..जोरबा यानी पैसा और बुद्धा यानी ज्ञान...दोनो चाहिए, तो ही बात बनती है...
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फिर बुद्ध ने भी कहा है, जो बचपन में ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते, जवानी में धन नहीं कमाते, और आधेड उम्मर में ध्यान नहीं करते, उसका वृधत्व ( old age ) चिंता को प्राप्त होता है...उसका सब बेकार गया...
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....धन और ध्यान दोनों चाहिए । अगर धन होगा तो ध्यान करनेकी सुविधा होगी , और ध्यान होगा तो धन का सद-उपियोग करने की समज बनेगी.
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लेकिन जिसके पास सिर्फ कोई भी एक ही चीज होगी , वह दुःख में गिरेगा । अगर अकेला ध्यान होगा , वह निश्चित रूप से फस्ट्रेसन में फसेगा । और अकेला धन होगा , वह चिंता में फसेगा । इसीलिए, ओशो , बार बार समजाते है की, बाजार से भागना मत , कुछ भी छोडना मत । भगोड़ा मत बनाना...
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ओशो तो वहाँ , तक कहेते है की, संसार और बाजार तो साधक के लिए रो-मटेरिअल ( Rawmaterial ) है । संसार में ही परीक्षा होगी, यहां ही मान अपमान होगा । जब पैसा कमाने के लिए जाएंगे, तभी लोगो का असली सामना होगा । होश भी रखना पड़ेगा ,और सच्चा जूठा सुन ना भी पड़ेगा ।
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ओशो कहेते है की, “ *मंदीर का प्राण बाजार में है, और मंदीर में जो दिया जलता है उसका घी भी बाजार से आता है, लेकिन बाजार का प्राण मंदीर से नहीं आता है । बीना मंदीर का भी बाजार हो सकता है...जैसे रुष में या चायना में मंदीर खो गए , लेकिन बाजार है.”...* तो ओशो हमें सच में समजाते है , की पहेले धन बाद में ध्यान...
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मे १९६६ ( 1966 )से ओशो के साथ हूँ. मेरे साथ के काफी सन्यासिन ने ये गलती की है, उन्होंने सब छोड़ दिया था, अभी वे डिप्रेसन में जीते है.... धन होगा तो ध्यान करने की सुविधा होगी, और ध्यान होगा तो धन का सद उपियोग करने की समझ होगी ।
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फिर ओशो कहते हैं, की अगर हम दोनों दुनिया में, बहार की और अंदर की..., धन और ध्यान में... , अगर आगे न बढे , तो पीछे हठते चले जाते है. अगर हम पैसा कमाना बंध कर दे , तो हमारा गरीब होना चालु हो जाता है। अगर हम रोज ध्यान न करे तो , तो ध्यान से चुकते चले जाते है...।
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यंहा कोई स्थिर परिस्थीती नहीं बन सकती, क्योंकी, *समय, ध्यान और श्रम हम बैंक में जमा नहीं करा सकते...* की चलो आज नहीं तो कल उसका उपियोग करेंगे...
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और फिर ओशो कहते हैं की,जिस व्यक्ति में सामान्य जरूरियात जितना , धन कमाने की भी , ऊर्जा नहीं है, वह ध्यान भी कैसे करेगा, क्यूँकी ध्यान के लिए तो , काफी ऊर्जा की जरुरत होती है । फिर कई लोग दलील करते है, की अगर हम पूरा समय धन कमाने में लगा दे तो हम ध्यान कभी करे...? ,
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लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है, ओशो केहेते है कि, अगर में आपको कहू , की आप स्नान भी करो और साथ में खाना भी खाओ तो वैसा आप नहीं कर सकते, लेकिन स्नान करते करते या खाना खाते खाते , आप ध्यान में रह सकते है...वैसे हम धन कमाते कमाते ध्यान में रह सकते है...
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और ओशो केहते है की , मे आप को बता दू, की बीना धन कमाए धन की वासना से ऊपर उठाना , बड़ा मुश्किल है, क्यूँकी हमारा समाज सिर्फ अमीर को ही सन्मान देते है.
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