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शनिवार, 20 मार्च 2021

#वेदों में #नारी का महत्व, क्या है सात फेरों के सात वचन? #सातवचन

*वेदों में नारी का महत्व*

वेद नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण, गरिमामय, उच्च स्थान प्रदान करते हैं| वेदों में

स्त्रियों की शिक्षा- दीक्षा, शील, गुण, कर्तव्य, अधिकार और सामाजिक भूमिका का जो सुन्दर वर्णन पाया जाता है, वैसा संसार के अन्य किसी धर्मग्रंथ में नहीं है| वेद उन्हें घर की सम्राज्ञी कहते हैं और देश की शासक, पृथ्वी की सम्राज्ञी तक बनने का अधिकार देते हैं|

वेदों में स्त्री यज्ञीय है अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय| वेदों में नारी को ज्ञान देने वाली, सुख – समृद्धि लाने वाली, विशेष तेज वाली, देवी, विदुषी, सरस्वती, इन्द्राणी, उषा- जो सबको जगाती है इत्यादि अनेक आदर सूचक नाम दिए गए हैं|

वेदों में स्त्रियों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है – उसे सदा विजयिनी कहा गया है और उन के हर काम में सहयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है| वैदिक काल में नारी अध्यन- अध्यापन से लेकर रणक्षेत्र में भी जाती थी| जैसे कैकयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गई थी| कन्या को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार देकर वेद पुरुष से एक कदम आगे ही रखते हैं|

अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा हैं – अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति- दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि |

तथापि, जिन्होनें वेदों के दर्शन भी नहीं किए, ऐसे कुछ रीढ़ की हड्डी विहीन बुद्धिवादियों ने इस देश की सभ्यता, संस्कृति को नष्ट – भ्रष्ट करने का जो अभियान चला रखा है – उसके तहत वेदों में नारी की अवमानना का ढ़ोल पीटते रहते हैं |

*आइए, वेदों में नारी के स्वरुप की झलक इन मंत्रों में देखें -*

यजुर्वेद २०.९

स्त्री और पुरुष दोनों को शासक चुने जाने का समान अधिकार है |

यजुर्वेद १७.४५

स्त्रियों की भी सेना हो | स्त्रियों को युद्ध में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करें |

यजुर्वेद १०.२६

शासकों की स्त्रियां अन्यों को राजनीति की शिक्षा दें | जैसे राजा, लोगों का न्याय करते हैं वैसे ही रानी भी न्याय करने वाली हों |

अथर्ववेद ११.५.१८

ब्रह्मचर्य सूक्त के इस मंत्र में कन्याओं के लिए भी ब्रह्मचर्य और विद्या ग्रहण करने के बाद ही विवाह करने के लिए कहा गया है | यह सूक्त लड़कों के समान ही कन्याओं की शिक्षा को भी विशेष महत्त्व देता है |

कन्याएं ब्रह्मचर्य के सेवन से पूर्ण विदुषी और युवती होकर ही विवाह करें |

अथर्ववेद १४.१.६

माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धीमत्ता और विद्याबल का उपहार दें | वे उसे ज्ञान का दहेज़ दें |

जब कन्याएं बाहरी उपकरणों को छोड़ कर, भीतरी विद्या बल से चैतन्य स्वभाव और पदार्थों को दिव्य दृष्टि से देखने वाली और आकाश और भूमि से सुवर्ण आदि प्राप्त करने – कराने वाली हो तब सुयोग्य पति से विवाह करे |

अथर्ववेद १४.१.२०

हे पत्नी ! हमें ज्ञान का उपदेश कर |

वधू अपनी विद्वत्ता और शुभ गुणों से पति के घर में सब को प्रसन्न कर दे |

अथर्ववेद ७.४६.३

पति को संपत्ति कमाने के तरीके बता |

संतानों को पालने वाली, निश्चित ज्ञान वाली, सह्त्रों स्तुति वाली और चारों ओर प्रभाव डालने वाली स्त्री, तुम ऐश्वर्य पाती हो | हे सुयोग्य पति की पत्नी, अपने पति को संपत्ति के लिए आगे बढ़ाओ |

अथर्ववेद ७.४७.१

हे स्त्री ! तुम सभी कर्मों को जानती हो |

हे स्त्री ! तुम हमें ऐश्वर्य और समृद्धि दो |

अथर्ववेद ७.४७.२

तुम सब कुछ जानने वाली हमें धन – धान्य से समर्थ कर दो |

हे स्त्री ! तुम हमारे धन और समृद्धि को बढ़ाओ |

अथर्ववेद ७.४८.२

तुम हमें बुद्धि से धन दो |

विदुषी, सम्माननीय, विचारशील, प्रसन्नचित्त पत्नी संपत्ति की रक्षा और वृद्धि करती है और घर में सुख़ लाती है |

अथर्ववेद १४.१.६४

हे स्त्री ! तुम हमारे घर की प्रत्येक दिशा में ब्रह्म अर्थात् वैदिक ज्ञान का प्रयोग करो |

हे वधू ! विद्वानों के घर में पहुंच कर कल्याणकारिणी और सुखदायिनी होकर तुम विराजमान हो |

अथर्ववेद २.३६.५

हे वधू ! तुम ऐश्वर्य की नौका पर चढ़ो और अपने पति को जो कि तुमने स्वयं पसंद किया है, संसार – सागर के पार पहुंचा दो |

हे वधू ! ऐश्वर्य कि अटूट नाव पर चढ़ और अपने पति को सफ़लता के तट पर ले चल |

अथर्ववेद १.१४.३

हे वर ! यह वधू तुम्हारे कुल की रक्षा करने वाली है |

हे वर ! यह कन्या तुम्हारे कुल की रक्षा करने वाली है | यह बहुत काल तक तुम्हारे घर में निवास करे और बुद्धिमत्ता के बीज बोये |

अथर्ववेद २.३६.३

यह वधू पति के घर जा कर रानी बने और वहां प्रकाशित हो |

अथर्ववेद ११.१.१७

ये स्त्रियां शुद्ध, पवित्र और यज्ञीय ( यज्ञ समान पूजनीय ) हैं, ये प्रजा, पशु और अन्न देतीं हैं |

यह स्त्रियां शुद्ध स्वभाव वाली, पवित्र आचरण वाली, पूजनीय, सेवा योग्य, शुभ चरित्र वाली और विद्वत्तापूर्ण हैं | यह समाज को प्रजा, पशु और सुख़ पहुँचाती हैं |

अथर्ववेद १२.१.२५

हे मातृभूमि ! कन्याओं में जो तेज होता है, वह हमें दो |

स्त्रियों में जो सेवनीय ऐश्वर्य और कांति है, हे भूमि ! उस के साथ हमें भी मिला |

अथर्ववेद १२.२.३१

स्त्रियां कभी दुख से रोयें नहीं, इन्हें निरोग रखा जाए और रत्न, आभूषण इत्यादि पहनने को दिए जाएं |

अथर्ववेद १४.१.२०

हे वधू ! तुम पति के घर में जा कर गृहपत्नी और सब को वश में रखने वाली बनों |

अथर्ववेद १४.१.५०

हे पत्नी ! अपने सौभाग्य के लिए मैं तेरा हाथ पकड़ता हूं |

अथर्ववेद १४.२ .२६

हे वधू ! तुम कल्याण करने वाली हो और घरों को उद्देश्य तक पहुंचाने वाली हो |

अथर्ववेद १४.२.७१

हे पत्नी ! मैं ज्ञानवान हूं तू भी ज्ञानवती है, मैं सामवेद हूं तो तू ऋग्वेद है |

अथर्ववेद १४.२.७४

यह वधू विराट अर्थात् चमकने वाली है, इस ने सब को जीत लिया है |

यह वधू बड़े ऐश्वर्य वाली और पुरुषार्थिनी हो |

अथर्ववेद ७.३८.४ और १२.३.५२

सभा और समिति में जा कर स्त्रियां भाग लें और अपने विचार प्रकट करें |

ऋग्वेद १०.८५.७

माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धिमत्ता और विद्याबल उपहार में दें | माता- पिता को चाहिए कि वे अपनी कन्या को दहेज़ भी दें तो वह ज्ञान का दहेज़ हो |

ऋग्वेद ३.३१.१

पुत्रों की ही भांति पुत्री भी अपने पिता की संपत्ति में समान रूप से उत्तराधिकारी है |

ऋग्वेद १० .१ .५९

*एक गृहपत्नी प्रात : काल उठते ही अपने उद् गार कहती है -*

*” यह सूर्य उदय हुआ है, इस के साथ ही मेरा सौभाग्य भी ऊँचा चढ़ निकला है | मैं अपने घर और समाज की ध्वजा हूं , उस की मस्तक हूं | मैं भारी व्यख्यात्री हूं | मेरे पुत्र शत्रु -विजयी हैं | मेरी पुत्री संसार में चमकती है | मैं स्वयं दुश्मनों को जीतने वाली हूं | मेरे पति का असीम यश है | मैंने वह त्याग किया है जिससे इन्द्र (सम्राट ) विजय पता है | मुझेभी विजय मिली है | मैंने अपने शत्रु नि:शेष कर दिए हैं | ”*

वह सूर्य ऊपर आ गया है और मेरा सौभाग्य भी ऊँचा हो गया है | मैं जानती हूं , अपने प्रतिस्पर्धियों को जीतकर मैंने पति के प्रेम को फ़िर से पा लिया है |

मैं प्रतीक हूं , मैं शिर हूं , मैं सबसे प्रमुख हूं और अब मैं कहती हूं कि मेरी इच्छा के अनुसार ही मेरा पति आचरण करे | प्रतिस्पर्धी मेरा कोई नहीं है |

मेरे पुत्र मेरे शत्रुओं को नष्ट करने वाले हैं , मेरी पुत्री रानी है , मैं विजयशील हूं | मेरे और मेरे पति के प्रेम की व्यापक प्रसिद्धि है |

ओ प्रबुद्ध ! मैंने उस अर्ध्य को अर्पण किया है , जो सबसे अधिक उदाहरणीय है और इस तरह मैं सबसे अधिक प्रसिद्ध और सामर्थ्यवान हो गई हूं | मैंने स्वयं को अपने प्रतिस्पर्धियों से मुक्त कर लिया है |

मैं प्रतिस्पर्धियों से मुक्त हो कर, अब प्रतिस्पर्धियों की विध्वंसक हूं और विजेता हूं | मैंने दूसरों का वैभव ऐसे हर लिया है जैसे की वह न टिक पाने वाले कमजोर बांध हों | मैंने मेरे प्रतिस्पर्धियों पर विजय प्राप्त कर ली है | जिससे मैं इस नायक और उस की प्रजा पर यथेष्ट शासन चला सकती हूं |

इस मंत्र की ऋषिका और देवता दोनों हो शची हैं | शची इन्द्राणी है, शची स्वयं में राज्य की सम्राज्ञी है ( जैसे कि कोई महिला प्रधानमंत्री या राष्ट्राध्यक्ष हो ) | उस के पुत्र – पुत्री भी राज्य के लिए समर्पित हैं |

ऋग्वेद १.१६४.४१

ऐसे निर्मल मन वाली स्त्री जिसका मन एक पारदर्शी स्फटिक जैसे परिशुद्ध जल की तरह हो वह एक वेद, दो वेद या चार वेद , आयुर्वेद, धनुर्वेद, गांधर्ववेद , अर्थवेद इत्यादि के साथ ही छ : वेदांगों – शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छंद : को प्राप्त करे और इस वैविध्यपूर्ण ज्ञान को अन्यों को भी दे |

हे स्त्री पुरुषों ! जो एक वेद का अभ्यास करने वाली वा दो वेद जिसने अभ्यास किए वा चार वेदों की पढ़ने वाली वा चार वेद और चार उपवेदों की शिक्षा से युक्त वा चार वेद, चार उपवेद और व्याकरण आदि शिक्षा युक्त, अतिशय कर के विद्याओं में प्रसिद्ध होती और असंख्यात अक्षरों वाली होती हुई सब से उत्तम, आकाश के समान व्याप्त निश्चल परमात्मा के निमित्त प्रयत्न करती है और गौ स्वर्ण युक्त विदुषी स्त्रियों को शब्द कराती अर्थात् जल के समान निर्मल वचनों को छांटती अर्थात् अविद्यादी दोषों को अलग करती हुई वह संसार के लिए अत्यंत सुख करने वाली होती है |

ऋग्वेद १०.८५.४६

स्त्री को परिवार और पत्नी की महत्वपूर्ण भूमिका में चित्रित किया गया है | इसी तरह, वेद स्त्री की सामाजिक, प्रशासकीय और राष्ट्र की सम्राज्ञी के रूप का वर्णन भी करते हैं |

ऋग्वेद के कई सूक्त उषा का देवता के रूप में वर्णन करते हैं और इस उषा को एक आदर्श स्त्री के रूप में माना गया है | कृपया पं श्रीपाद दामोदर सातवलेकर द्वारा लिखित ” उषा देवता “, ऋग्वेद का सुबोध भाष्य देखें |

सारांश (पृ १२१ – १४७ ) -

१. स्त्रियां वीर हों | ( पृ १२२, १२८)

२. स्त्रियां सुविज्ञ हों | ( पृ १२२)

३. स्त्रियां यशस्वी हों | (पृ १२३)

४. स्त्रियां रथ पर सवारी करें | ( पृ १२३)

५. स्त्रियां विदुषी हों | ( पृ १२३)

६. स्त्रियां संपदा शाली और धनाढ्य हों | ( पृ १२५)

७.स्त्रियां बुद्धिमती और ज्ञानवती हों | ( पृ १२६)

८. स्त्रियां परिवार ,समाज की रक्षक हों और सेना में जाएं | (पृ १३४, १३६ )

९. स्त्रियां तेजोमयी हों | ( पृ १३७)

१०.स्त्रियां धन-धान्य और वैभव देने वाली हों | ( पृ १४१-१४६) 

 

क्या है सात फेरों के सात वचन? –

विवाह के बाद कन्या वर के वाम अंग में बैठने से पूर्व उससे सात वचन लेती है। कन्या द्वारा वर से लिए जाने वाले सात वचन इस प्रकार है।

प्रथम वचन-
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:,

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी !!

(यहाँ कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)

द्वितीय वचन-
पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:,

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !!

(कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)

तृतीय वचन-
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात,

वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं !!

(तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ।)

चतुर्थ वचन- कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:,

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं !!

(कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतीज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ। विवाह पश्चात कुटुम्ब पौषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। इस वचन द्वारा यह स्पष्ट है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।

पंचम वचन-
 स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा,

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!

(इस वचन में कन्या जो कहती है वो आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है। वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)

षष्ठम वचनः
न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत,

वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम !!

(कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)

सप्तम वचन-
परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या,

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या !!

(अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)

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