श्रावण मास का आध्यात्मिक महत्व
श्रावण अथवा सावन हिंदु पंचांग के अनुसार वर्ष का पाँचवा महीना ईस्वी कलेंडर के जुलाई या अगस्त माह में पड़ता है। इसे वर्षा ऋतु का महीना या 'पावस ऋतु' भी कहा जाता है, क्योंकि इस समय बहुत वर्षा होती है। इस माह में अनेक महत्त्वपूर्ण त्योहार मनाए जाते हैं, जिसमें 'हरियाली तीज', 'रक्षाबन्धन', 'नागपंचमी' आदि प्रमुख हैं। 'श्रावण पूर्णिमा' को दक्षिण भारत में 'नारियली पूर्णिमा' व 'अवनी अवित्तम', मध्य भारत में 'कजरी पूनम', उत्तर भारत में 'रक्षाबंधन' और गुजरात में 'पवित्रोपना' के रूप में मनाया जाता है। त्योहारों की विविधता ही तो भारत की विशिष्टता की पहचान है। 'श्रावण' यानी सावन माह में भगवान शिव की अराधना का विशेष महत्त्व है। इस माह में पड़ने वाले सोमवार "सावन के सोमवार" कहे जाते हैं, जिनमें स्त्रियाँ तथा विशेषतौर से कुंवारी युवतियाँ भगवान शिव के निमित्त व्रत आदि रखती हैं।
महादेव को प्रिय सावन
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सावन माह के बारे में एक पौराणिक कथा है कि- "जब सनत कुमारों ने भगवान शिव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो भगवान भोलेनाथ ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और शिव को प्रसन्न कर उनसे विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष हो गया।
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सावन माह के बारे में एक पौराणिक कथा है कि- "जब सनत कुमारों ने भगवान शिव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो भगवान भोलेनाथ ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और शिव को प्रसन्न कर उनसे विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष हो गया।
इसके अतिरिक्त एक अन्य कथा के अनुसार, मरकंडू ऋषि के पुत्र मारकण्डेय ने लंबी आयु के लिए सावन माह में ही घोर तप कर शिव की कृपा प्राप्त की थी, जिससे मिली मंत्र शक्तियों के सामने मृत्यु के देवता यमराज भी नतमस्तक हो गए थे।
भगवान शिव को सावन का महीना प्रिय होने का अन्य कारण यह भी है कि भगवान शिव सावन के महीने में पृथ्वी पर अवतरित होकर अपनी ससुराल गए थे और वहां उनका स्वागत अर्घ्य और जलाभिषेक से किया गया था। माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष सावन माह में भगवान शिव अपनी ससुराल आते हैं। भू-लोक वासियों के लिए शिव कृपा पाने का यह उत्तम समय होता है।
पौराणिक कथाओं में वर्णन आता है कि इसी सावन मास में समुद्र मंथन किया गया था। समुद्र मथने के बाद जो हलाहल विष निकला, उसे भगवान शंकर ने कंठ में समाहित कर सृष्टि की रक्षा की; लेकिन विषपान से महादेव का कंठ नीलवर्ण हो गया। इसी से उनका नाम 'नीलकंठ महादेव' पड़ा। विष के प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया। इसलिए शिवलिंग पर जल चढ़ाने का ख़ास महत्व है। यही वजह है कि श्रावण मास में भोले को जल चढ़ाने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। 'शिवपुराण' में उल्लेख है कि भगवान शिव स्वयं ही जल हैं। इसलिए जल से उनकी अभिषेक के रूप में अराधना का उत्तमोत्तम फल है, जिसमें कोई संशय नहीं है।
पौराणिक कथाओं में वर्णन आता है कि इसी सावन मास में समुद्र मंथन किया गया था। समुद्र मथने के बाद जो हलाहल विष निकला, उसे भगवान शंकर ने कंठ में समाहित कर सृष्टि की रक्षा की; लेकिन विषपान से महादेव का कंठ नीलवर्ण हो गया। इसी से उनका नाम 'नीलकंठ महादेव' पड़ा। विष के प्रभाव को कम करने के लिए सभी देवी-देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया। इसलिए शिवलिंग पर जल चढ़ाने का ख़ास महत्व है। यही वजह है कि श्रावण मास में भोले को जल चढ़ाने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। 'शिवपुराण' में उल्लेख है कि भगवान शिव स्वयं ही जल हैं। इसलिए जल से उनकी अभिषेक के रूप में अराधना का उत्तमोत्तम फल है, जिसमें कोई संशय नहीं है।
शास्त्रों में वर्णित है कि सावन महीने में भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं। इसलिए ये समय भक्तों, साधु-संतों सभी के लिए अमूल्य होता है। यह चार महीनों में होने वाला एक वैदिक यज्ञ है, जो एक प्रकार का पौराणिक व्रत है, जिसे 'चौमासा' भी कहा जाता है; तत्पश्चात सृष्टि के संचालन का उत्तरदायित्व भगवान शिव ग्रहण करते हैं। इसलिए सावन के प्रधान देवता भगवान शिव बन जाते हैं।
शिव की पूजा
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सावन मास में भगवान शंकर की पूजा उनके परिवार के सदस्यों संग करनी चाहिए। इस माह में भगवान शिव के 'रुद्राभिषेक' का विशेष महत्त्व है। इसलिए इस मास में प्रत्येक दिन 'रुद्राभिषेक' किया जा सकता है, जबकि अन्य माह में शिववास का मुहूर्त देखना पड़ता है। भगवान शिव के रुद्राभिषेक में जल, दूध, दही, शुद्ध घी, शहद, शक्कर या चीनी, गंगाजल तथा गन्ने के रस आदि से स्नान कराया जाता है। अभिषेक कराने के बाद बेलपत्र, शमीपत्र, कुशा तथा दूब आदि से शिवजी को प्रसन्न करते हैं। अंत में भांग, धतूरा तथा श्रीफल भोलेनाथ को भोग के रूप में चढा़या जाता है।
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सावन मास में भगवान शंकर की पूजा उनके परिवार के सदस्यों संग करनी चाहिए। इस माह में भगवान शिव के 'रुद्राभिषेक' का विशेष महत्त्व है। इसलिए इस मास में प्रत्येक दिन 'रुद्राभिषेक' किया जा सकता है, जबकि अन्य माह में शिववास का मुहूर्त देखना पड़ता है। भगवान शिव के रुद्राभिषेक में जल, दूध, दही, शुद्ध घी, शहद, शक्कर या चीनी, गंगाजल तथा गन्ने के रस आदि से स्नान कराया जाता है। अभिषेक कराने के बाद बेलपत्र, शमीपत्र, कुशा तथा दूब आदि से शिवजी को प्रसन्न करते हैं। अंत में भांग, धतूरा तथा श्रीफल भोलेनाथ को भोग के रूप में चढा़या जाता है।
शिवलिंग पर बेलपत्र तथा शमीपत्र चढा़ने का वर्णन पुराणों में भी किया गया है। बेलपत्र भोलेनाथ को प्रसन्न करने के शिवलिंग पर चढा़या जाता है। कहा जाता है कि 'आक' का एक फूल शिवलिंग पर चढ़ाने से सोने के दान के बराबर फल मिलता है। हज़ार आक के फूलों की अपेक्षा एक कनेर का फूल, हज़ार कनेर के फूलों को चढ़ाने की अपेक्षा एक बिल्व पत्र से दान का पुण्य मिल जाता है। हज़ार बिल्वपत्रों के बराबर एक द्रोण या गूमा फूल फलदायी होते हैं। हज़ार गूमा के बराबर एक चिचिड़ा, हज़ार चिचिड़ा के बराबर एक कुश का फूल, हज़ार कुश फूलों के बराबर एक शमी का पत्ता, हज़ार शमी के पत्तों के बराकर एक नीलकमल, हज़ार नीलकमल से ज्यादा एक धतूरा और हज़ार धतूरों से भी ज्यादा एक शमी का फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है।
बेलपत्र
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भगवान शिव को प्रसन्न करने का सबसे सरल तरीका उन्हें 'बेलपत्र' अर्पित करना है। बेलपत्र के पीछे भी एक पौराणिक कथा का महत्त्व है। इस कथा के अनुसार- "भील नाम का एक डाकू था। यह डाकू अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए लोगों को लूटता था। एक बार सावन माह में यह डाकू राहगीरों को लूटने के उद्देश्य से जंगल में गया और एक वृक्ष पर चढ़कर बैठ गया। एक दिन-रात पूरा बीत जाने पर भी उसे कोई शिकार नहीं मिला। जिस पेड़ पर वह डाकू छिपा था, वह बेल का पेड़ था। रात-दिन पूरा बीतने पर वह परेशान होकर बेल के पत्ते तोड़कर नीचे फेंकने लगा। उसी पेड़ के नीचे एक शिवलिंग स्थापित था। जो पत्ते वह डाकू तोडकर नीचे फेंख रहा था, वह अनजाने में शिवलिंग पर ही गिर रहे थे। लगातार बेल के पत्ते शिवलिंग पर गिरने से भगवान शिव प्रसन्न हुए और अचानक डाकू के सामने प्रकट हो गए और डाकू को वरदान माँगने को कहा। उस दिन से बिल्व-पत्र का महत्ता और बढ़ गया।
बेलपत्र
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भगवान शिव को प्रसन्न करने का सबसे सरल तरीका उन्हें 'बेलपत्र' अर्पित करना है। बेलपत्र के पीछे भी एक पौराणिक कथा का महत्त्व है। इस कथा के अनुसार- "भील नाम का एक डाकू था। यह डाकू अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए लोगों को लूटता था। एक बार सावन माह में यह डाकू राहगीरों को लूटने के उद्देश्य से जंगल में गया और एक वृक्ष पर चढ़कर बैठ गया। एक दिन-रात पूरा बीत जाने पर भी उसे कोई शिकार नहीं मिला। जिस पेड़ पर वह डाकू छिपा था, वह बेल का पेड़ था। रात-दिन पूरा बीतने पर वह परेशान होकर बेल के पत्ते तोड़कर नीचे फेंकने लगा। उसी पेड़ के नीचे एक शिवलिंग स्थापित था। जो पत्ते वह डाकू तोडकर नीचे फेंख रहा था, वह अनजाने में शिवलिंग पर ही गिर रहे थे। लगातार बेल के पत्ते शिवलिंग पर गिरने से भगवान शिव प्रसन्न हुए और अचानक डाकू के सामने प्रकट हो गए और डाकू को वरदान माँगने को कहा। उस दिन से बिल्व-पत्र का महत्ता और बढ़ गया।
सावन सोमवार का महत्त्व
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श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को शिव के निमित्त व्रत किए जाते हैं। इस मास में शिव जी की पूजा का विशेष विधान हैं। कुछ भक्त तो पूरे मास ही भगवान शिव की पूजा-आराधना और व्रत करते हैं। अधिकांश व्यक्ति केवल श्रावण मास में पड़ने वाले सोमवार का ही व्रत करते हैं। श्रावण मास के सोमवारों में शिव के व्रतों, पूजा और शिव जी की आरती का विशेष महत्त्व है। शिव के ये व्रत शुभदायी और फलदायी होते हैं। इन व्रतों को करने वाले सभी भक्तों से भगवान शिव बहुत प्रसन्न होते हैं। यह व्रत भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए किये जाते हैं। व्रत में भगवान शिव का पूजन करके एक समय ही भोजन किया जाता है। व्रत में भगवान शिव और माता पार्वती का ध्यान कर 'शिव पंचाक्षर मन्त्र' का जप करते हुए पूजन करना चाहिए।
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श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को शिव के निमित्त व्रत किए जाते हैं। इस मास में शिव जी की पूजा का विशेष विधान हैं। कुछ भक्त तो पूरे मास ही भगवान शिव की पूजा-आराधना और व्रत करते हैं। अधिकांश व्यक्ति केवल श्रावण मास में पड़ने वाले सोमवार का ही व्रत करते हैं। श्रावण मास के सोमवारों में शिव के व्रतों, पूजा और शिव जी की आरती का विशेष महत्त्व है। शिव के ये व्रत शुभदायी और फलदायी होते हैं। इन व्रतों को करने वाले सभी भक्तों से भगवान शिव बहुत प्रसन्न होते हैं। यह व्रत भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए किये जाते हैं। व्रत में भगवान शिव का पूजन करके एक समय ही भोजन किया जाता है। व्रत में भगवान शिव और माता पार्वती का ध्यान कर 'शिव पंचाक्षर मन्त्र' का जप करते हुए पूजन करना चाहिए।
सावन के महीने में सोमवार महत्वपूर्ण होता है। सोमवार का अंक 2 होता है, जो चन्द्रमा का प्रतिनिधित्व करता है। चन्द्रमा मन का संकेतक है और वह भगवान शिव के मस्तक पर विराजमान है। 'चंद्रमा मनसो जात:' यानी 'चंद्रमा मन का मालिक है' और उसके नियंत्रण और नियमण में उसका अहम योगदान है। यानी भगवान शंकर मस्तक पर चंद्रमा को नियंत्रित कर उक्त साधक या भक्त के मन को एकाग्रचित कर उसे अविद्या रूपी माया के मोहपाश से मुक्त कर देते हैं। भगवान शंकर की कृपा से भक्त त्रिगुणातीत भाव को प्राप्त करता है और यही उसके जन्म-मरण से मुक्ति का मुख्य आधार सिद्ध होता है।
काँवर
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ऐसी मान्यता है कि भारत की पवित्र नदियों के जल से अभिषेक किए जाने से शिव प्रसन्न होकर भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं। 'काँवर' संस्कृत भाषा के शब्द 'कांवांरथी' से बना है। यह एक प्रकार की बहंगी है, जो बाँस की फट्टी से बनाई जाती है। 'काँवर' तब बनती है, जब फूल-माला, घंटी और घुंघरू से सजे दोनों किनारों पर वैदिक अनुष्ठान के साथ गंगाजल का भार पिटारियों में रखा जाता है। धूप-दीप की खुशबू, मुख में 'बोल बम' का नारा, मन में 'बाबा एक सहारा।' माना जाता है कि पहला 'काँवरिया' रावण था। श्रीराम ने भी भगवान शिव को कांवर चढ़ाई थी।
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ऐसी मान्यता है कि भारत की पवित्र नदियों के जल से अभिषेक किए जाने से शिव प्रसन्न होकर भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं। 'काँवर' संस्कृत भाषा के शब्द 'कांवांरथी' से बना है। यह एक प्रकार की बहंगी है, जो बाँस की फट्टी से बनाई जाती है। 'काँवर' तब बनती है, जब फूल-माला, घंटी और घुंघरू से सजे दोनों किनारों पर वैदिक अनुष्ठान के साथ गंगाजल का भार पिटारियों में रखा जाता है। धूप-दीप की खुशबू, मुख में 'बोल बम' का नारा, मन में 'बाबा एक सहारा।' माना जाता है कि पहला 'काँवरिया' रावण था। श्रीराम ने भी भगवान शिव को कांवर चढ़ाई थी।
हरियाली तीज
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सावन का महीना प्रेम और उत्साह का महीना माना जाता है। इस महीने में नई-नवेली दुल्हन अपने मायके जाकर झूला झूलती हैं और सखियों से अपने पिया और उनके प्रेम की बातें करती है। प्रेम के धागे को मजबूत करने के लिए इस महीने में कई त्योहार मनाये जाते हैं। इन्हीं में से एक त्योहार है- 'हरियाली तीज'। यह त्योहार हर साल श्रावण माह में शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। इस त्योहार के विषय में मान्यता है कि माता पार्वती ने भगवान शिव को पाने के लिए तपस्या की थी।
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सावन का महीना प्रेम और उत्साह का महीना माना जाता है। इस महीने में नई-नवेली दुल्हन अपने मायके जाकर झूला झूलती हैं और सखियों से अपने पिया और उनके प्रेम की बातें करती है। प्रेम के धागे को मजबूत करने के लिए इस महीने में कई त्योहार मनाये जाते हैं। इन्हीं में से एक त्योहार है- 'हरियाली तीज'। यह त्योहार हर साल श्रावण माह में शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। इस त्योहार के विषय में मान्यता है कि माता पार्वती ने भगवान शिव को पाने के लिए तपस्या की थी।
इससे प्रसन्न होकर शिव ने 'हरियाली तीज' के दिन ही पार्वती को पत्नी के रूप में स्वीकार किया था। इस त्योहार के विषय में यह मान्यता भी है कि इससे सुहाग की उम्र लंबी होती है।
कुंवारी कन्याओं को इस व्रत से मनचाहा जीवन साथी मिलता है। हरियाली तीज में हरी चूड़ियां, हरा वस्त्र और मेंहदी का विशेष महत्व है। मेंहदी सुहाग का प्रतीक चिन्ह माना जाता है। इसलिए महिलाएं सुहाग पर्व में मेंहदी जरूर लगाती हैं। इसकी शीतल तासीर प्रेम और उमंग को संतुलन प्रदान करने का भी काम करती है। माना जाता है कि मेंहदी बुरी भावना को नियंत्रित करती है। हरियाली तीज का नियम है कि क्रोध को मन में नहीं आने दें। मेंहदी का औषधीय गुण इसमें महिलाओं की मदद करता है। सावन में पड़ने वाली फुहारों से प्रकृति में हरियाली छा जाती है। सुहागन स्त्रियां प्रकृति की इसी हरियाली को अपने ऊपर समेट लेती हैं। इस मौके पर नई-नवेली दुल्हन को सास उपहार भेजकर आशीर्वाद देती है। कुल मिलाकर इस त्योहार का आशय यह है कि सावन की फुहारों की तरह सुहागनें प्रेम की फुहारों से अपने परिवार को खुशहाली प्रदान करेंगी और वंश को आगे बढ़ाएँगी।
कुंवारी कन्याओं को इस व्रत से मनचाहा जीवन साथी मिलता है। हरियाली तीज में हरी चूड़ियां, हरा वस्त्र और मेंहदी का विशेष महत्व है। मेंहदी सुहाग का प्रतीक चिन्ह माना जाता है। इसलिए महिलाएं सुहाग पर्व में मेंहदी जरूर लगाती हैं। इसकी शीतल तासीर प्रेम और उमंग को संतुलन प्रदान करने का भी काम करती है। माना जाता है कि मेंहदी बुरी भावना को नियंत्रित करती है। हरियाली तीज का नियम है कि क्रोध को मन में नहीं आने दें। मेंहदी का औषधीय गुण इसमें महिलाओं की मदद करता है। सावन में पड़ने वाली फुहारों से प्रकृति में हरियाली छा जाती है। सुहागन स्त्रियां प्रकृति की इसी हरियाली को अपने ऊपर समेट लेती हैं। इस मौके पर नई-नवेली दुल्हन को सास उपहार भेजकर आशीर्वाद देती है। कुल मिलाकर इस त्योहार का आशय यह है कि सावन की फुहारों की तरह सुहागनें प्रेम की फुहारों से अपने परिवार को खुशहाली प्रदान करेंगी और वंश को आगे बढ़ाएँगी।
वर्षा का मौसम
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सावन के महीने में सबसे अधिक बारिश होती है, जो शिव के गर्म शरीर को ठंडक प्रदान करती है। भगवान शंकर ने स्वयं सनतकुमारों को सावन महीने की महिमा बताई है कि मेरे तीनों नेत्रों में सूर्य दाहिने, बांये चन्द्रमा और अग्नि मध्य नेत्र है। जब सूर्य कर्क राशि में गोचर करता है, तब सावन महीने की शुरुआत होती है। सूर्य गर्म है, जो ऊष्मा देता है, जबकि चंद्रमा ठंडा है, जो शीतलता प्रदान करता है। इसलिए सूर्य के कर्क राशि में आने से झमाझम बारिस होती है, जिससे लोक कल्याण के लिए विष को पीने वाले भोलेनाथ को ठंडक व सुकून मिलता है। इसलिए शिव का सावन से इतना गहरा लगाव है।
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सावन के महीने में सबसे अधिक बारिश होती है, जो शिव के गर्म शरीर को ठंडक प्रदान करती है। भगवान शंकर ने स्वयं सनतकुमारों को सावन महीने की महिमा बताई है कि मेरे तीनों नेत्रों में सूर्य दाहिने, बांये चन्द्रमा और अग्नि मध्य नेत्र है। जब सूर्य कर्क राशि में गोचर करता है, तब सावन महीने की शुरुआत होती है। सूर्य गर्म है, जो ऊष्मा देता है, जबकि चंद्रमा ठंडा है, जो शीतलता प्रदान करता है। इसलिए सूर्य के कर्क राशि में आने से झमाझम बारिस होती है, जिससे लोक कल्याण के लिए विष को पीने वाले भोलेनाथ को ठंडक व सुकून मिलता है। इसलिए शिव का सावन से इतना गहरा लगाव है।
सावन और साधना
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सावन और साधना के बीच चंचल और अति चलायमान मन की एकाग्रता एक अहम कड़ी है, जिसके बिना परम तत्व की प्राप्ति असंभव है। साधक की साधना जब शुरू होती है, तब मन एक विकराल बाधा बनकर खड़ा हो जाता है। उसे नियंत्रित करना सहज नहीं होता। लिहाजा मन को ही साधने में साधक को लंबा और धैर्य का सफर तय करना होता है। इसलिए कहा गया है कि मन ही मोक्ष और बंधन का कारण है। अर्थात मन से ही मुक्ति है और मन ही बंधन का कारण है।ह भगवान शंकर ने मस्तक में ही चंद्रमा को दृढ़ कर रखा है, इसीलिए साधक की साधना बिना किसी बाधा के पूर्ण होती है ।
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सावन और साधना के बीच चंचल और अति चलायमान मन की एकाग्रता एक अहम कड़ी है, जिसके बिना परम तत्व की प्राप्ति असंभव है। साधक की साधना जब शुरू होती है, तब मन एक विकराल बाधा बनकर खड़ा हो जाता है। उसे नियंत्रित करना सहज नहीं होता। लिहाजा मन को ही साधने में साधक को लंबा और धैर्य का सफर तय करना होता है। इसलिए कहा गया है कि मन ही मोक्ष और बंधन का कारण है। अर्थात मन से ही मुक्ति है और मन ही बंधन का कारण है।ह भगवान शंकर ने मस्तक में ही चंद्रमा को दृढ़ कर रखा है, इसीलिए साधक की साधना बिना किसी बाधा के पूर्ण होती है ।
पण्डित चन्द्रशेखर गौङ: *आसान नही है उस शख्स को समझना,*
*जो जानता सबकुछ है ..*
*पर बोलता कुछ नहीं...*
पण्डित चन्द्रशेखर गौङ: श्रावण मास के प्रत्येक सोमवार को शिवलिंग पर कुछ विशेष वास्तु अर्पित की जाती है जिसे शिवामुट्ठी कहते है।
1. प्रथम सोमवार को कच्चे चावल एक मुट्ठी,
2. दूसरे सोमवार को सफेद तिल् एक मुट्ठी,
3. तीसरे सोमवार को खड़े मूँग एक मुट्ठी,
4. चौथे सोमवार को जौ एक मुट्ठी और
5. यदि जिस मॉस में पांच सोमवार हो तो पांचवें सोमवार को सतुआ चढ़ाने जाते हैं।
यदि पांच सोमवार न हो तो आखरी सोमवार को दो मुट्ठी भोग अर्पित करते है।
माना जाता है कि श्रावण मास में शिव की पूजा करने से सारे कष्ट खत्म हो जाते हैं। महादेव शिव सर्व समर्थ हैं। वे मनुष्य के समस्त पापों का क्षय करके मुक्ति दिलाते हैं। इनकी पूजा से ग्रह बाधा भी दूर होती है।
1. *सूर्य* से संबंधित बाधा है, तो विधिवत या पंचोपचार के बाद लाल { बैगनी } आक के पुष्प एवं पत्तों से शिव की पूजा करनी चाहिए।
2. *चंद्रमा* से परेशान हैं, तो प्रत्येक सोमवार शिवलिंग पर गाय का दूध अर्पित करें। साथ ही सोमवार का व्रत भी करें।
3. *मंगल* से संबंधित बाधाओं के निवारण के लिए गिलोय की जड़ी-बूटी के रस से शिव का अभिषेक करना लाभप्रद रहेगा।
4. *बुध* से संबंधित परेशानी दूर करने के लिए विधारा की जड़ी के रस से शिव का अभिषेक करना ठीक रहेगा।
5. *बृहस्पति* से संबंधित समस्याओं को दूर करने के लिए प्रत्येक बृहस्पतिवार को हल्दी मिश्रित दूध शिवलिंग पर अर्पित करना चाहिए।
6. *शुक्र* ग्रह को अनुकूल बनाना चाहते हैं, तो पंचामृत एवं घृत से शिवलिंग का अभिषेक करें।
7. *शनि* से संबंधित बाधाओं के निवारण के लिए गन्ने के रस एवं छाछ से शिवलिंग का अभिषेक करें।
8-9. *राहु-केतु* से मुक्ति के लिए कुश और दूर्वा को जल में मिलाकर शिव का अभिषेक करने से लाभ होगा।
शास्त्रों में मनोरथ पूर्ति व संकट मुक्ति के लिए अलग-अलग तरह की धारा से शिव का अभिषेक करना शुभ बताया गया है।
अलग-अलग धाराओं से शिव अभिषेक का फल- जब किसी का मन बेचैन हो, निराशा से भरा हो, परिवार में कलह हो रहा हो, अनचाहे दु:ख और कष्ट मिल रहे हो तब शिव लिंग पर दूध की धारा चढ़ाना सबसे अच्छा उपाय है।
इसमें भी शिव मंत्रों का उच्चारण करते रहना चाहिए।
1. *वंश की वृद्धि के लिए* शिवलिंग पर शिव सहस्त्रनाम बोलकर घी की धारा अर्पित करें।
2. शिव पर जलधारा से अभिषेक *मन की शांति के लिए* श्रेष्ठ मानी गई है।
3. *भौतिक सुखों को पाने के लिए* इत्र की धारा से शिवलिंग का अभिषेक करें।
4. *बीमारियों से छुटकारे के लिए* शहद की धारा से शिव पूजा करें।
5. गन्ने के रस की धारा से अभिषेक करने पर हर *सुख और आनंद मिलता है*।
6. सभी धाराओं से श्रेष्ठ है गंगाजल की धारा। शिव को गंगाधर कहा जाता है। शिव को गंगा की धार बहुत प्रिय है। गंगा जल से शिव अभिषेक करने पर *चारों पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है।* इससे अभिषेक करते समय महामृत्युंजय मन्त्र जरुर बोलना चाहिए।
कार्य सिद्धि के लिए:--
1. हर इच्छा पूर्ति के लिए हैं अलग शिवलिंग
पार्थिव शिवलिंग हर कार्य सिद्धि के लिए।
2. गुड़ के शिवलिंग प्रेम पाने के लिए।
3. भस्म से बने शिवलिंग सर्वसुख की प्राप्ति के लिए।
4. जौ या चावल या आटे के शिवलिंग दाम्पत्य सुख, संतान प्राप्ति के लिए।
5. दही से बने शिवलिंग ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए।
6. पीतल, कांसी के शिवलिंग मोक्ष प्राप्ति के लिए।
7. सीसा इत्यादि के शिवलिंग शत्रु संहार के लिए।
8. पारे के शिवलिंग अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के लिए।
पूजन में रखे इन बातों का ध्यान:--
1. सावन के महीने में शिवलिंग की करें | शिवलिंग जहां स्थापित हो पूरव् दिशा की ओर मुख करके ही बैठें।
2. शिवलिंग के दक्षिण दिशा में बैठकर पूजन न करें।
ये होता है अभिषेक का फल:--
1. दूध से अभिषेक करने पर परिवार में कलह, मानसिक पीड़ा में शांति मिलती है।
2. घी से अभिषेक करने पर वंशवृद्धि होती है।
3. इत्र से अभिषेक करने पर भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है।
4. जलधारा से अभिषेक करने पर मानसिक शान्ति मिलती है।
5. शहद से अभिषेक करने पर परिवार में बीमारियों का अधिक प्रकोप नहीं रहता।
6. गन्ने के रस की धारा डालते हुये अभिषेक करने से आर्थिक समृद्धि व परिवार में सुखद माहौल बना रहता है।
7. गंगा जल से अभिषेक करने पर चारो पुरूषार्थ की प्राप्ति होती है।
8. अभिषेक करते समय महामृत्युंजय का जाप करने से फल की प्राप्ति कई गुना अधिक हो जाती है।
9. सरसों के तेल से अभिषेक करने से शत्रुओं का शमन होता।
ये भी मिलते हैं फल:--
9. बिल्वपत्र चढ़ाने से जन्मान्तर के पापों व रोग से मुक्ति मिलती है।
10. कमल पुष्प चढ़ाने से शान्ति व धन की प्राप्ति होती है।
11. कुशा चढ़ाने से मुक्ति की प्राप्ति होती है।
12. दूर्वा चढ़ाने से आयु में वृद्धि होती है।
13. धतूरा अर्पित करने से पुत्र रत्न की प्राप्ति व पुत्र का सुख मिलता है।
14. कनेर का पुष्प चढ़ाने से परिवार में कलह व रोग से निवृत्ति मिलती हैं।
15. शमी पत्र चढ़ाने से पापों का नाश होता, शत्रुओं का शमन व भूत-प्रेत बाधा से मुक्ति मिलती है।
ॐ महादेव ॐ
---- ऊँ उमामहेश्वराभ्यां नमः बोलना ही पड़ेगा ---- पण्डित चन्द्रशेखर गौङ: 🚩🚩 हर हर महादेव 🚩🚩
"पूजा से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें" 🙏🏻🌹
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धर्मसंस्थापनार्थाय प्रसारण
16/4
01. घर में सेवा पूजा करने वाले जन भगवान के एक से अधिक स्वरूप की सेवा पूजा कर सकते हैं।
02. घर में दो शिवलिंग की पूजा ना करें तथा पूजा स्थान पर तीन गणेश जी नहीं रखें।
03. शालिग्राम जी की बटिया जितनी छोटी हो उतनी ज्यादा फलदायक है।
04. कुशा पवित्री के अभाव में स्वर्ण की अंगूठी धारण करके भी देव कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।
05. मंगल कार्यो में कुमकुम का तिलक प्रशस्त माना जाता है।
06. पूजा में टूटे हुए अक्षत के टुकड़े नहीं चढ़ाना चाहिए।
07. पानी, दूध, दही, घी आदि में अंगुली नही डालना चाहिए। इन्हें लोटा, चम्मच आदि से लेना चाहिए क्योंकि नख स्पर्श से वस्तु अपवित्र हो जाती हैं। अतः यह वस्तुएँ देव पूजा के योग्य नहीं रहती हैं।
08. तांबेके बरतन में दूध, दही या पंचामृत आदि नहीं डालना चाहिए क्योंकि वह मदिरा समान हो जाते हैं।
09. आचमन तीन बार करने का विधान हैं। इससे त्रिदेव ब्रह्मा-विष्णु-महेश प्रसन्न होते हैं।
10. दाहिने कान का स्पर्श करने पर भी आचमन के तुल्य माना जाता है।
11. कुशा के अग्रभाग से देवताओं पर जल नहीं छिड़के।
12. देवताओं को अंगूठे से नहीं मलें।
13. चकले पर से चंदन कभी नहीं लगावें। उसे छोटी कटोरी या बांयी हथेली पर रखकर लगावें।
14. घी का दीपक अपने बांयी ओर तथा देवता को दाहिने ओर रखें एवं चावल पर दीपक रखकर प्रज्वलित करें।
15. पुष्पों को बाल्टी, लोटा, जल में डालकर फिर निकालकर नहीं चढ़ाना चाहिए।
16. श्री भगवान के चरणों की चार बार, नाभि की दो बार, मुख की एक बार या तीन बार आरती उतारकर समस्त अंगों की सात बार आरती उतारें।
17. श्री भगवान की आरती समयानुसार जो घंटा, नगारा, झांझर, थाली, घड़ावल, शंख इत्यादि बजते हैं उनकी ध्वनि से आसपास के वायुमण्डल के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। नाद ब्रह्मा होता हैं। नाद के समय एक स्वर से जो प्रतिध्वनि होती हैं उसमे असीम शक्ति होती हैं।
18. लोहे के पात्र से श्री भगवान को नैवेद्य अपर्ण नहीं करें।
19. हवन में अग्नि प्रज्वलित होने पर ही आहुति दें।
20. समिधा अंगुठे से अधिक मोटी नहीं होनी चाहिए तथा दस अंगुल लम्बी होनी चाहिए।
21. छाल रहित या कीड़े लगी हुई समिधा यज्ञ-कार्य में वर्जित हैं।
22. पंखे आदि से कभी हवन की अग्नि प्रज्वलित नहीं करें।
23. मेरूहीन माला या मेरू का लंघन करके माला नहीं जपनी चाहिए।
24. माला, रूद्राक्ष, तुलसी एवं चंदन की उत्तम मानी गई हैं।
25. माला को अनामिका (तीसरी अंगुली) पर रखकर मध्यमा (दूसरी अंगुली) से चलाना चाहिए।
26. जप करते समय सिर पर हाथ या वस्त्र नहीं रखें।
27. तिलक कराते समय सिर पर हाथ या वस्त्र रखना चाहिए।
28. माला का पूजन करके ही जप करना चाहिए।
29. ब्राह्मण को या द्विजाती को स्नान करके तिलक अवश्य लगाना चाहिए।
30. जप करते हुए जल में स्थित व्यक्ति, दौड़ते हुए, शमशान से लौटते हुए व्यक्ति को नमस्कार करना वर्जित हैं।
31. बिना नमस्कार किए आशीर्वाद देना वर्जित हैं।
32. एक हाथ से प्रणाम नही करना चाहिए।
33. सोए हुए व्यक्ति का चरण स्पर्श नहीं करना चाहिए।
34. बड़ों को प्रणाम करते समय उनके दाहिने पैर पर दाहिने हाथ से और उनके बांये पैर को बांये हाथ से छूकर प्रणाम करें।
35. जप करते समय जीभ या होंठ को नहीं हिलाना चाहिए। इसे उपांशु जप कहते हैं। इसका फल सौगुणा फलदायक होता हैं।
36. जप करते समय दाहिने हाथ को कपड़े या गौमुखी से ढककर रखना चाहिए।
37. जप के बाद आसन के नीचे की भूमि को स्पर्श कर नेत्रों से लगाना चाहिए।
38. संक्रान्ति, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, रविवार और सन्ध्या के समय तुलसी तोड़ना निषिद्ध हैं।
39. दीपक से दीपक को नही जलाना चाहिए।
40. यज्ञ, श्राद्ध आदि में काले तिल का प्रयोग करना चाहिए, सफेद तिल का नहीं।
41. शनिवार को पीपल पर जल चढ़ाना चाहिए। पीपल की सात परिक्रमा करनी चाहिए। परिक्रमा करना श्रेष्ठ है, किन्तु रविवार को परिक्रमा नहीं करनी चाहिए।
42. कूमड़ा-मतीरा-नारियल आदि को स्त्रियां नहीं तोड़े या चाकू आदि से नहीं काटें। यह उत्तम नही माना गया हैं।
43. भोजन प्रसाद को लाघंना नहीं चाहिए।
44. देव प्रतिमा देखकर अवश्य प्रणाम करें।
45. किसी को भी कोई वस्तु या दान-दक्षिणा दाहिने हाथ से देना चाहिए।
46. एकादशी, अमावस्या, कृृष्ण चतुर्दशी, पूर्णिमा व्रत तथा श्राद्ध के दिन क्षौर-कर्म (दाढ़ी) नहीं बनाना चाहिए।
47. बिना यज्ञोपवित या शिखा बंधन के जो भी कार्य, कर्म किया जाता है, वह निष्फल हो जाता हैं।
48. यदि शिखा नहीं हो तो स्थान को स्पर्श कर लेना चाहिए।
49. शिवजी की जलहारी उत्तराभिमुख रखें।
50. शंकर जी को बिल्वपत्र, विष्णु जी को तुलसी, गणेश जी को दूर्वा, लक्ष्मी जी को कमल प्रिय हैं।
51. शंकर जी को शिवरात्रि के सिवाय कुंकुम नहीं चढ़ती।
52. शिवजी को कुंद, विष्णु जी को धतूरा, देवीजी को आक तथा मदार और सूर्य भगवान को तगर के फूल नहीं चढ़ावे।
53. अक्षत देवताओं को तीन बार तथा पितरों को एक बार धोकर चढ़ावें।
54. नये बिल्व पत्र नहीं मिले तो चढ़ाये हुए बिल्व पत्र धोकर फिर चढ़ाए जा सकते हैं।
55. विष्णु भगवान को चांवल, गणेश जी को तुलसी, दुर्गा जी और सूर्य नारायण को बिल्व पत्र नहीं चढ़ावें।
56. पत्र-पुष्प-फल का मुख नीचे करके नहीं चढ़ावें, जैसे उत्पन्न होते हों वैसे ही चढ़ावें।
57. किंतु बिल्वपत्र उलटा करके डंडी तोड़कर शंकर पर चढ़ावें।
58. पान की डंडी का अग्रभाग तोड़कर चढ़ावें।
59. सड़ा हुआ पान या पुष्प नहीं चढ़ावे।
60. गणेश को तुलसी भाद्र शुक्ल चतुर्थी को चढ़ती हैं।
61. पांच रात्रि तक कमल का फूल बासी नहीं होता है।
62. दस रात्रि तक तुलसी पत्र बासी नहीं होते हैं।
63. सभी धार्मिक कार्यो में पत्नी को दाहिने भाग में बिठाकर धार्मिक क्रियाएँ सम्पन्न करनी चाहिए।
64. पूजन करने वाले ललाट पर तिलक लगाकर ही पूजा करें।
65. पूर्वाभिमुख बैठकर अपने बांयी ओर घंटा, धूप तथा दाहिनी ओर शंख, जलपात्र एवं पूजन सामग्री रखें।
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धर्मसंस्थापनार्थाय प्रसारण
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01. घर में सेवा पूजा करने वाले जन भगवान के एक से अधिक स्वरूप की सेवा पूजा कर सकते हैं।
02. घर में दो शिवलिंग की पूजा ना करें तथा पूजा स्थान पर तीन गणेश जी नहीं रखें।
03. शालिग्राम जी की बटिया जितनी छोटी हो उतनी ज्यादा फलदायक है।
04. कुशा पवित्री के अभाव में स्वर्ण की अंगूठी धारण करके भी देव कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।
05. मंगल कार्यो में कुमकुम का तिलक प्रशस्त माना जाता है।
06. पूजा में टूटे हुए अक्षत के टुकड़े नहीं चढ़ाना चाहिए।
07. पानी, दूध, दही, घी आदि में अंगुली नही डालना चाहिए। इन्हें लोटा, चम्मच आदि से लेना चाहिए क्योंकि नख स्पर्श से वस्तु अपवित्र हो जाती हैं। अतः यह वस्तुएँ देव पूजा के योग्य नहीं रहती हैं।
08. तांबेके बरतन में दूध, दही या पंचामृत आदि नहीं डालना चाहिए क्योंकि वह मदिरा समान हो जाते हैं।
09. आचमन तीन बार करने का विधान हैं। इससे त्रिदेव ब्रह्मा-विष्णु-महेश प्रसन्न होते हैं।
10. दाहिने कान का स्पर्श करने पर भी आचमन के तुल्य माना जाता है।
11. कुशा के अग्रभाग से देवताओं पर जल नहीं छिड़के।
12. देवताओं को अंगूठे से नहीं मलें।
13. चकले पर से चंदन कभी नहीं लगावें। उसे छोटी कटोरी या बांयी हथेली पर रखकर लगावें।
14. घी का दीपक अपने बांयी ओर तथा देवता को दाहिने ओर रखें एवं चावल पर दीपक रखकर प्रज्वलित करें।
15. पुष्पों को बाल्टी, लोटा, जल में डालकर फिर निकालकर नहीं चढ़ाना चाहिए।
16. श्री भगवान के चरणों की चार बार, नाभि की दो बार, मुख की एक बार या तीन बार आरती उतारकर समस्त अंगों की सात बार आरती उतारें।
17. श्री भगवान की आरती समयानुसार जो घंटा, नगारा, झांझर, थाली, घड़ावल, शंख इत्यादि बजते हैं उनकी ध्वनि से आसपास के वायुमण्डल के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। नाद ब्रह्मा होता हैं। नाद के समय एक स्वर से जो प्रतिध्वनि होती हैं उसमे असीम शक्ति होती हैं।
18. लोहे के पात्र से श्री भगवान को नैवेद्य अपर्ण नहीं करें।
19. हवन में अग्नि प्रज्वलित होने पर ही आहुति दें।
20. समिधा अंगुठे से अधिक मोटी नहीं होनी चाहिए तथा दस अंगुल लम्बी होनी चाहिए।
21. छाल रहित या कीड़े लगी हुई समिधा यज्ञ-कार्य में वर्जित हैं।
22. पंखे आदि से कभी हवन की अग्नि प्रज्वलित नहीं करें।
23. मेरूहीन माला या मेरू का लंघन करके माला नहीं जपनी चाहिए।
24. माला, रूद्राक्ष, तुलसी एवं चंदन की उत्तम मानी गई हैं।
25. माला को अनामिका (तीसरी अंगुली) पर रखकर मध्यमा (दूसरी अंगुली) से चलाना चाहिए।
26. जप करते समय सिर पर हाथ या वस्त्र नहीं रखें।
27. तिलक कराते समय सिर पर हाथ या वस्त्र रखना चाहिए।
28. माला का पूजन करके ही जप करना चाहिए।
29. ब्राह्मण को या द्विजाती को स्नान करके तिलक अवश्य लगाना चाहिए।
30. जप करते हुए जल में स्थित व्यक्ति, दौड़ते हुए, शमशान से लौटते हुए व्यक्ति को नमस्कार करना वर्जित हैं।
31. बिना नमस्कार किए आशीर्वाद देना वर्जित हैं।
32. एक हाथ से प्रणाम नही करना चाहिए।
33. सोए हुए व्यक्ति का चरण स्पर्श नहीं करना चाहिए।
34. बड़ों को प्रणाम करते समय उनके दाहिने पैर पर दाहिने हाथ से और उनके बांये पैर को बांये हाथ से छूकर प्रणाम करें।
35. जप करते समय जीभ या होंठ को नहीं हिलाना चाहिए। इसे उपांशु जप कहते हैं। इसका फल सौगुणा फलदायक होता हैं।
36. जप करते समय दाहिने हाथ को कपड़े या गौमुखी से ढककर रखना चाहिए।
37. जप के बाद आसन के नीचे की भूमि को स्पर्श कर नेत्रों से लगाना चाहिए।
38. संक्रान्ति, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, रविवार और सन्ध्या के समय तुलसी तोड़ना निषिद्ध हैं।
39. दीपक से दीपक को नही जलाना चाहिए।
40. यज्ञ, श्राद्ध आदि में काले तिल का प्रयोग करना चाहिए, सफेद तिल का नहीं।
41. शनिवार को पीपल पर जल चढ़ाना चाहिए। पीपल की सात परिक्रमा करनी चाहिए। परिक्रमा करना श्रेष्ठ है, किन्तु रविवार को परिक्रमा नहीं करनी चाहिए।
42. कूमड़ा-मतीरा-नारियल आदि को स्त्रियां नहीं तोड़े या चाकू आदि से नहीं काटें। यह उत्तम नही माना गया हैं।
43. भोजन प्रसाद को लाघंना नहीं चाहिए।
44. देव प्रतिमा देखकर अवश्य प्रणाम करें।
45. किसी को भी कोई वस्तु या दान-दक्षिणा दाहिने हाथ से देना चाहिए।
46. एकादशी, अमावस्या, कृृष्ण चतुर्दशी, पूर्णिमा व्रत तथा श्राद्ध के दिन क्षौर-कर्म (दाढ़ी) नहीं बनाना चाहिए।
47. बिना यज्ञोपवित या शिखा बंधन के जो भी कार्य, कर्म किया जाता है, वह निष्फल हो जाता हैं।
48. यदि शिखा नहीं हो तो स्थान को स्पर्श कर लेना चाहिए।
49. शिवजी की जलहारी उत्तराभिमुख रखें।
50. शंकर जी को बिल्वपत्र, विष्णु जी को तुलसी, गणेश जी को दूर्वा, लक्ष्मी जी को कमल प्रिय हैं।
51. शंकर जी को शिवरात्रि के सिवाय कुंकुम नहीं चढ़ती।
52. शिवजी को कुंद, विष्णु जी को धतूरा, देवीजी को आक तथा मदार और सूर्य भगवान को तगर के फूल नहीं चढ़ावे।
53. अक्षत देवताओं को तीन बार तथा पितरों को एक बार धोकर चढ़ावें।
54. नये बिल्व पत्र नहीं मिले तो चढ़ाये हुए बिल्व पत्र धोकर फिर चढ़ाए जा सकते हैं।
55. विष्णु भगवान को चांवल, गणेश जी को तुलसी, दुर्गा जी और सूर्य नारायण को बिल्व पत्र नहीं चढ़ावें।
56. पत्र-पुष्प-फल का मुख नीचे करके नहीं चढ़ावें, जैसे उत्पन्न होते हों वैसे ही चढ़ावें।
57. किंतु बिल्वपत्र उलटा करके डंडी तोड़कर शंकर पर चढ़ावें।
58. पान की डंडी का अग्रभाग तोड़कर चढ़ावें।
59. सड़ा हुआ पान या पुष्प नहीं चढ़ावे।
60. गणेश को तुलसी भाद्र शुक्ल चतुर्थी को चढ़ती हैं।
61. पांच रात्रि तक कमल का फूल बासी नहीं होता है।
62. दस रात्रि तक तुलसी पत्र बासी नहीं होते हैं।
63. सभी धार्मिक कार्यो में पत्नी को दाहिने भाग में बिठाकर धार्मिक क्रियाएँ सम्पन्न करनी चाहिए।
64. पूजन करने वाले ललाट पर तिलक लगाकर ही पूजा करें।
65. पूर्वाभिमुख बैठकर अपने बांयी ओर घंटा, धूप तथा दाहिनी ओर शंख, जलपात्र एवं पूजन सामग्री रखें।
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