सुख कैसे प्राप्त करें?
सुख कैसे प्राप्त करें? यह प्रश्न सदियों से हजारों मनुष्य करते चले आये हैं, करते रहते हैं और करते रहेंगे। विचार करना है सुख किसे कहते हैं? कहाँ कैसे प्राप्त किया जा सकता है? कुवासनाओं एवं नीची प्रवृत्तियों की सन्तुष्टि को सुख नहीं कहते। वह केवल मन का भ्रम है और भ्रम का आवरण हटते ही हमें त्रुटि दिखलाई देने लगती है। क्या ही आश्चर्य की बात है कि किसी को मोटर खरीदने में, किसी व्यक्ति को सिनेमा इत्यादि देखने में और किसी-किसी को अति मधुर खाद्य-पदार्थों में सुख मिलता है जबकि दीन को केवल पेट भर भोजन मिल जाने से ही सुख प्राप्त हो जाता है।
प्रश्न यह उठता है—क्या लोहे से बनी हुई मोटर में सुख है, अथवा मधुर खाद्य-पदार्थों में सुख है, या फिर अन्य किसी बाह्य पदार्थ में उसकी स्थिति है? यदि सुख किसी बाहरी पदार्थ में होता तो फिर जो वस्तु एक को सुखकर होती है वह दूसरे को किसी और को भी उतना ही आनन्द देती परन्तु अनुभव से ज्ञात होता है कि ऐसा नहीं है। जो वस्तु एक को सुख या आरामदायक है वह दूसरे को कभी-कभी उससे भी हानिकारक है। जैसे अफीम का व्यसन आदत पड़े हुए व्यक्ति को किसी भी भ्रमात्मक अंश तक लाभदायक हो सकता है परन्तु जो उसे खाने का आदी नहीं है उसे वह हानि पहुँचाता है।
यदि सुख इन पदार्थों में ही निहित होता तो फिर हम त्यागी महात्माओं को सर्व प्रकार से सुखी कैसे पाते? और इन पदार्थों के पाने वालों को फिर भी दुःखी क्यों देखते? सुख दैवी वस्तु है। आत्मिक आनन्द है। नश्वर शरीर से उसका कोई लगाव नहीं, जो ऐसा समझते हैं कि सुख का सम्बन्ध शरीर से है वे भ्रम में हैं जड़ता से सुख की उपलब्धि कभी नहीं हो सकती, वह तो अपने ही अन्दर विद्यमान है, परंतु खेद है कि हम उसे अपने में खोजने का प्रयत्न नहीं करते और कस्तूरी नाभि में बसे हुए मृग के समान बाहर रेतीले मैदानों में उसे खोजते फिरते हैं।
हमारी बुद्धि का कितना हास्यास्पद कृत्य है जबकि हम जड़ता से जड़ता की सन्तुष्टि में सुख निहित समझते हैं। यह ठीक उसी प्रकार की मूर्खता है जिस प्रकार हमें जाना तो मन्दिर को है और हम चल रहे हैं अस्पताल की राह पर, सोचते यह जा रहे हैं कि जब चल रहे हैं तो मन्दिर ही पहुँचेंगे।
पश्चिमी दर्शन में यह सबसे बड़ा दोष है कि वह हर बात को निम्न-कोटि में ले जाते हैं और यह प्राकृतिक है कह कर प्रकृति की दुहाई दे देते हैं। हर प्रकार की नीचता की बात को प्रकृति की ओट में करना और उसकी दुहाई दे देने से वह केवल तर्क भर कर सकते हैं उससे उनकी स्वयं की आत्मिक संतुष्टि भी नहीं होती। कोई नदी यदि वेगवती है तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह किनारों की पूर्ण उपेक्षा ही कर दे। यदि उनके तर्क के अनुसार विकार सन्तुष्टि को शरीर का एक अंग भी मान लिया जाय तो क्या इसकी फिर कोई सीमा ही नहीं होनी चाहिये। पूर्वी दर्शन में विकार को कोई स्थान नहीं है। परिधियों का सृजन करते हुए आदर्श की उच्च-सत्ता की प्राप्ति ही उसका परम लक्ष है। वासना या कामुकता को वहाँ घृणास्पद कहा गया है। फलतः हम देखते हैं कि पश्चिमी दर्शन जड़ता से प्रारम्भ करके, जड़ता में रमण करते हुए उसमें ही समाप्ति कर देते हैं। भौतिकता जड़ता को-पूर्वी दर्शन प्रारम्भ से भी पूर्व का, नीच योनियों का, पिछड़ा हुआ विषय मानता है इसीलिए कहा जाता है कि जहाँ पश्चिमी दर्शन समाप्त होता है वहाँ पूर्वी दर्शन प्रारम्भ होता है। पूर्वी और पश्चिमी दर्शनों की विस्तृत विवेचना फिर कभी किसी अन्य लेख में लिखेंगे।
मानव शरीर भौतिक पदार्थों के अनुपात से सृजित होने के कारण भौतिक पदार्थों से सम्पन्न और संकलन में ही सुख समझता है जबकि पूर्वी दर्शन उसे व्यामोह, मतिभ्रम या माया जाल कहता है। केवल भौतिकता से कभी सुख नहीं मिल सकता यह पाश्चात्यों की स्थिति से प्रत्यक्ष है। जिस देश में भौतिकता का सम्मान होगा वह देश पतनोन्मुख होगा और जिस देश में आध्यात्मिकता को सम्मानित किया जायगा वह उन्नतिपूर्ण होगा।
कोई-कोई यह भी प्रश्न करते हैं-क्या सुख का स्थान बदलता रहता है। यह एक स्वाभाविक प्रश्न है। पात्र, देश और काल के साथ-साथ सुख का स्थान भी परिवर्तित होता रहता है बचपन में बालक अपनी माँ के स्तन्य के समतुल्य संसार की कोई वस्तु नहीं समझता। वह बालक जब कुछ और बड़ा हो जाता है तो फिर खेलने के खिलौनों को अधिक महत्व देने लगता है। युवावस्था प्राप्त होने पर वह अपनी पत्नी के प्रेम में रंग जाता है, और सन्तान उत्पन्न होते ही उसका प्रेम बच्चों पर केन्द्रित हो जाता है।
प्रेम करना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। प्रेम हीन हृदय की साहित्य में पाषाण से समता की गई है। सच्चे प्रेम से परम सुख की प्राप्ति होती है परन्तु सच्चा प्रेम त्याग की नींव पर ही दृढ़ रह सकता है। त्याग अभाव में प्रेम न रह कर विकार का रूप धारण कर लेता है। शारीरिक इन्द्रिय जन्य सुख की कोई स्थिति नहीं। यह भी क्षणिक होता है, और ग्लानि उत्पन्न करता है।
सुख किसी से बदला लेने में नहीं वरन् क्षमा करने में है, बलिदान में है, आत्मोत्थान में है। सत्य कर्मों के करने से, सत्य वचनों के बोलने से आत्मा विभोर हो उठती है। सत्कर्म शील मनुष्य के चेहरे पर ओज होता है। उसकी वाणी एक प्रकार का राग और मुद्राओं में सम्मोहन की शक्ति होती है जिसके प्रति हमारा हृदय अपने आप खिंचने लगता है। वह हर कार्य ईश्वर के लिए करता है। उसकी कीर्ति ज्योति से विश्व चमकने लगता है।
सुख की स्थिति वास्तविक सन्तोष धारण करने में है। व्यग्र रहने या उद्वेलित रहने से मन में सदैव क्लेश उत्पन्न होता है। एक कहावत है कि एक माली की दो लड़कियाँ अपने सिरों पर फलों के टोकरे लिए जा रही थीं। बड़ी लड़की अपने बोझ को अधिक महसूस कर रहीं थी जबकि दोनों टोकरों का वजन बिलकुल बराबर था। छोटी बहिन को प्रसन्न चित्त देख कर उसने पूछा—क्या तुझे बोझ बुरा नहीं मालूम देता है। प्रश्न के उत्तर में छोटी बहिन ने कहा—यह बात तो नहीं है परन्तु मेरे टोकरे में सन्तोष का ऐसा फल रखा है जो और फलों के वजन को भी हलका कर रहा है। यह बात कहावत होते हुए भी तथ्यपूर्ण है। यदि हम सन्तोष और धैर्य से काम लें तो दुःख का बोझ अवश्य हलका हो जाता है।
सन्तोष का अर्थ यहाँ पर अकर्मण्य हो जाने से कदापि नहीं है, बल्कि विकार रहित प्रयत्न करने से है। सुख और समृद्धि मानव के अधिकार या स्वत्व हैं, आवश्यकता उसकी दृढ़ता और लगन की है। यदि वह विश्वास करने लगे कि संसार की विपुल सम्पत्ति का स्वामी ईश्वर है और मानव उसका पुत्र है तो विश्व की सम्पत्ति पर उसका पैतृक अधिकार हो जाता है। पदार्थों की न्यून या अधिक प्राप्ति से कोई बड़ा या सुखी नहीं बन सकता। विचारों को सदैव उदार और उन्नत बनाना चाहिए। मानसिक दरिद्रता का बड़ा स्थाई प्रभाव पड़ता है अतएव उससे सदैव बचना चाहिए। कंजूसी करने से आत्मा मलिन, संकीर्ण एवं तुच्छ बनती है।
सच्चा सुख, समृद्धि तथा वैभव आत्मोत्थान में ही निहित है, सांसारिक जड़ पदार्थों के संकलन में या मन की निम्न कुवासनाओं के पूर्ण करने में नहीं है। सुख को अपनी आत्मा में ही खोजना चाहिये, वह कोई बाह्य वस्तु नहीं है। यदि सुख है तो आत्मा के आनन्द में। और यदि हमारी लगन सच्ची है तो उस सुख की प्राप्ति अवश्य होगी जिस सुख को योगी लोग “आत्मानन्द” कहते हैं।