शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

#श्रीमद्भगवद्गीता – 18 अध्यायों का संक्षिप्त #गीतासार

श्रीमद्भगवद्गीता – 18 अध्यायों का संक्षिप्त सार

(वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टि से सरल भाषा में)

प्रस्तावना
महाभारत के युद्धभूमि में अर्जुन जब मोह, शोक और असमंजस से ग्रसित होकर अपने कर्तव्य से पीछे हटने लगे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें ज्ञान दिया। यह ज्ञान केवल अर्जुन के लिए ही नहीं था, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए शाश्वत संदेश है। गीता जीवन का वह "विज्ञान" है जो हमें सही दृष्टिकोण, संतुलन और कर्तव्य पालन की प्रेरणा देता है।


1. अर्जुन विषाद योग (प्रथम अध्याय)

अर्जुन मोह और शोक से घिरकर युद्ध से पीछे हटना चाहते हैं। यह दर्शाता है कि जब मनुष्य अपने रिश्तों और परिस्थितियों में उलझ जाता है तो उसकी बुद्धि निष्क्रिय हो जाती है। कृष्ण यही आधार बनाकर अर्जुन को जीवन और कर्तव्य का विज्ञान समझाना आरम्भ करते हैं।


2. सांख्य योग (द्वितीय अध्याय)

यह अध्याय गीता का हृदय है।

  • आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है।

  • सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मरण सब परिवर्तनशील हैं।

  • इंद्रिय-नियंत्रण ही आत्म-नियंत्रण है।

  • कर्म करते हुए भी फल की आसक्ति छोड़ना ही "स्थितप्रज्ञ" अवस्था है।


3. कर्म योग (तृतीय अध्याय)

मनुष्य कर्म के बिना जी नहीं सकता।

  • ज्ञानी भी कर्म करते हैं, पर वे फलासक्ति रहित रहते हैं।

  • कर्म त्यागने से नहीं, कर्म में संतुलन रखने से मुक्ति मिलती है।

  • कर्म का असली उद्देश्य समाज और जगत के हित में योगदान देना है।


4. ज्ञान–कर्म संन्यास योग (चतुर्थ अध्याय)

  • जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब ईश्वर अवतार लेकर संतुलन स्थापित करते हैं।

  • केवल कर्म से ही सिद्धि संभव है, परन्तु वह कर्म निरासक्ति भाव से किया जाए।

  • ज्ञान से कर्म का शुद्धिकरण होता है।


5. कर्म संन्यास योग (पंचम अध्याय)

  • चाहे संन्यास मार्ग अपनाओ या कर्मयोग, यदि निष्काम भाव है तो परिणाम समान है।

  • कर्म को समर्पित कर देने से मनुष्य कमल की तरह संसार में रहकर भी लिप्त नहीं होता।


6. ध्यान योग (षष्ठ अध्याय)

  • जिसने मन को वश में कर लिया वही सच्चा योगी है।

  • मन ही मित्र है और मन ही शत्रु।

  • योगी वह है जो सब प्राणियों को समान दृष्टि से देखता है।

  • ध्यान और आत्मसंयम से मनुष्य परमात्मा को प्राप्त करता है।


7. ज्ञान–विज्ञान योग (सप्तम अध्याय)

  • भगवान के अनेक रूप हैं, परंतु मूल तत्व एक ही है।

  • "वासुदेवः सर्वमिति" – सम्पूर्ण सृष्टि में वही एक परम तत्व विद्यमान है।

  • अज्ञानी अनेक रूपों की पूजा करते हैं, ज्ञानी उस परम तत्व को पहचानकर एकत्व देखते हैं।


8. अक्षर ब्रह्म योग (अष्टम अध्याय)

  • शरीर नश्वर है, आत्मा शाश्वत है।

  • मृत्यु के समय जिसकी स्मृति में परमात्मा होता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है।

  • जीव और परमात्मा के संबंध को "अध्यात्म" कहा गया है।


9. राजविद्या–राजगुह्य योग (नवम अध्याय)

  • ईश्वर सर्वव्यापी हैं।

  • समस्त यज्ञ, देवता और कर्मकांड अंततः उसी परम तत्व में मिलते हैं।

  • सच्ची भक्ति, ईश्वर में अटूट विश्वास और समर्पण है।


10. विभूति योग (दशम अध्याय)

  • जो भी शक्ति, सामर्थ्य, सौंदर्य, ज्ञान, बल, तेज या अद्भुत गुण हैं, वे सब भगवान की ही विभूतियाँ हैं।

  • प्रकृति का प्रत्येक आश्चर्य उसी परम तत्व का प्रकट रूप है।


11. विश्वरूप दर्शन योग (एकादश अध्याय)

  • अर्जुन को भगवान का विराट रूप दिखाई देता है।

  • सम्पूर्ण सृष्टि, समय, उत्पत्ति और विनाश सब उसी विराट स्वरूप में समाहित हैं।

  • यह अनुभव दर्शाता है कि ब्रह्मांड के पीछे एक विराट चेतना कार्यरत है।


12. भक्ति योग (द्वादश अध्याय)

  • भक्ति, ज्ञान और कर्म का सार है।

  • सगुण और निर्गुण दोनों रूपों से भगवान की उपासना की जा सकती है।

  • जो निस्वार्थ भाव से ईश्वर पर भरोसा रखकर सबके हित में कार्य करता है वही सच्चा भक्त है।


13. क्षेत्र–क्षेत्रज्ञ विभाग योग (त्रयोदश अध्याय)

  • शरीर "क्षेत्र" है और आत्मा "क्षेत्रज्ञ" है।

  • आत्मा ही वास्तविक ज्ञाता है।

  • भक्ति, आत्मसंयम और ईश्वर पर केंद्रित जीवन ही ज्ञान है, बाकी सब अज्ञान है।


14. गुणत्रय विभाग योग (चतुर्दश अध्याय)

  • तीन गुण – सत्त्व (ज्ञान, शांति), रजस (क्रिया, इच्छा) और तमस (आलस्य, अज्ञान)।

  • हर मनुष्य इन तीनों से प्रभावित है।

  • जो इन तीनों से ऊपर उठ जाता है, वही "गुणातीत" होकर मोक्ष को प्राप्त करता है।


15. पुरुषोत्तम योग (पंचदश अध्याय)

  • संसार एक "अश्वत्थ वृक्ष" है, जिसकी जड़ें ऊपर और शाखाएँ नीचे हैं।

  • जीव दो प्रकार के हैं – क्षर (नश्वर) और अक्षर (अविनाशी)।

  • परम पुरुष "पुरुषोत्तम" ही इन दोनों से परे है और वही शाश्वत सत्य है।


16. दैवासुर सम्पद विभाग योग (षोडश अध्याय)

  • मनुष्य के स्वभाव दो प्रकार के हैं – दैवी (सद्गुणी) और आसुरी (दोषयुक्त)।

  • दैवी गुण से मुक्ति मिलती है, आसुरी गुण से पतन होता है।

  • घमंड, क्रोध, लोभ, असत्य आसुरी गुण हैं।


17. श्रद्धात्रय विभाग योग (सप्तदश अध्याय)

  • मनुष्य की श्रद्धा भी उसके गुणों के अनुसार होती है – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।

  • आहार, यज्ञ, तप और दान भी इन गुणों के अनुसार तीन प्रकार के होते हैं।

  • जो भी कार्य श्रद्धा और ईश्वर-समर्पण से किया जाता है वही "सत्" है।


18. मोक्ष संन्यास योग (अष्टादश अध्याय)

  • यही उपसंहार है।

  • धर्म-अधर्म, बंधन-मोक्ष का विवेक ही सात्त्विक बुद्धि है।

  • हर मनुष्य प्रकृति के गुणों से बंधा है, पर समर्पण और भक्ति से मुक्त हो सकता है।

  • जो श्रद्धा से गीता का पाठ या श्रवण करता है, वह पापों से मुक्त होकर उत्तम लोक को प्राप्त करता है।


निष्कर्ष

गीता केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं बल्कि जीवन-प्रबंधन और चेतना-विज्ञान है।
यह सिखाती है कि –

  • कर्म करते रहो, पर फल की आसक्ति छोड़ दो।

  • आत्मा शाश्वत है, शरीर नश्वर।

  • योग, ध्यान, ज्ञान और भक्ति – सब मार्ग अंततः उसी परम सत्य की ओर ले जाते हैं।

  • सच्चा धर्म है – समता, संयम और समर्पण।


👉 यह संक्षेप अब तार्किक, वैज्ञानिक दृष्टि और आधुनिक मनोविज्ञान से भी मेल खाता है।


गीता के 18 अध्यायो का संक्षेप में हिंदी सारांश ============================== भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया और इसी उपदेश को सुनकर अर्जुन को ज्ञान की प्राप्ति हुई। गीता का उपदेश मात्र अर्जुन के लिए नहीं था बल्कि ये समस्त जगत के लिए था, अगर कोई व्यक्ति गीता में दिए गए उपदेश को अपने जीवन में अपनाता है तो वह कभी किसी से परास्त नहीं हो सकता है। गीता माहात्म्य में उपनिषदों को गाय और गीता को उसका दूध कहा गया है। इसका अर्थ है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या है , उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। गीता के 18 अध्याय में क्या संदेश छिपा हुआ है आइए संक्षिप्त में जाने... 

 *पहला अध्याय* ------------------------- 

अर्जुन ने युद्ध भूमि में भगवान श्री कृष्ण से कहा कि मुझे तो केवल अशुभ लक्षण ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में स्वजनों को मारने में मुझे कोई कल्याण दिखाई नही देता है। मैं न तो विजय चाहता हूं, न ही राज्य और सुखों की इच्छा करता हूं, हमें ऐसे राज्य, सुख अथवा इस जीवन से भी क्या लाभ है। जिनके साथ हमें राज्य आदि सुखों को भोगने की इच्छा है, जब वह ही अपने जीवन के सभी सुखों को त्याग करके इस युद्ध भूमि में खड़े हैं। मैं इन सभी को मारना नहीं चाहता हूं, भले ही यह सभी मुझे ही मार डालें लेकिन अपने ही कुटुम्बियों को मारकर हम कैसे सुखी हो सकते हैं। हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से अपने प्रियजनों को मारने के लिए आतुर हो गए हैं। इस प्रकार शोक से संतप्त होकर अर्जुन युद्ध-भूमि में धनुष को त्यागकर रथ पर बैठ गए तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने कर्तव्य को भूल बैठे अर्जुन को उनके कर्तव्य और कर्म के बारे में बताया। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जीवन के सच के परिचित कराया। कृष्ण ने अर्जुन की स्थिति को भांप लिया भगवान कृष्ण समझ गए की अर्जुन का शरीर ठीक है लेकिन युद्ध आरंभ होने से पहले ही उसका मनोबल टूट चुका है। बिना मन के यह शरीर खड़ा नहीं रह सकता। अत: भगवान कृष्ण ने एक गुरु का कर्तव्य निभाते हुए तर्क, बुद्धि, ज्ञान, कर्म की चर्चा, विश्व के स्वभाव, उसमें जीवन की स्थिति और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन के मन का उद्धार किया। 

 *दूसरा अध्याय* ------------------------

 दूसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि जीना और मरना, जन्म लेना और बढ़ना, विषयों का आना और जाना। सुख और दुख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं। काल की चक्रगति इन सब स्थितियों को लाती है और ले जाती है। जीवन के इस स्वभाव को जान लेने पर फिर शोक नहीं होता। काम, क्रोध, भय, राग, द्वेष से मन का सौम्यभाव बिगड़ जाता है और इंद्रियां वश में नहीं रहती हैं ।इंद्रियजय ही सबसे बड़ी आत्मजय है। बाहर से कोई विषयों को छोड़ भी दे तो भी भीतर का मन नहीं मानता। विषयों का स्वाद जब मन से जाता है, तभी मन प्रफुल्लित, शांत और सुखी होता है। समुद्र में नदियां आकर मिलती हैं पर वह अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता। ऐसे ही संसार में रहते हुए, उसके व्यवहारों को स्वीकारते हुए, अनेक कामनाओं का प्रवेश मन में होता रहता है। किंतु उनसे जिसका मन अपनी मर्यादा नहीं खोता उसे ही शांति मिलती हैं। इसे प्राचीन अध्यात्म परिभाषा में गीता में ब्राह्मीस्थिति कहा है। 

 *तीसरा अध्याय* -------------------------- 

तीसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि कोई व्यक्ति कर्म छोड़ ही नहीं सकता। कृष्ण ने अपना दृष्टांत देकर कहा कि मैं नारायण का रूप हूं, मेरे लिए कुछ कर्म शेष नहीं है। फिर भी मैं तंद्रारहित होकर कर्म करता हूं और अन्य लोग मेरे मार्ग पर चलते हैं। अंतर इतना ही है कि जो मूर्ख हैं वे लिप्त होकर कर्म करते हैं पर ज्ञानी असंग भाव से कर्म करता हैं। गीता में यहीं एक साभिप्राय शब्द बुद्धिभेद है। अर्थात् जो साधारण समझ के लोग कर्म में लगे हैं उन्हें उस मार्ग से उखाड़ना उचित नहीं, क्योंकि वे ज्ञानवादी बन नहीं सकते और यदि उनका कर्म भी छूट गया तो वे दोनों ओर से भटक जाएँगे। प्रकृति व्यक्ति को कर्म करने के लिए बाध्य करती है। जो व्यक्ति कर्म से बचना चाहता है वह ऊपर से तो कर्म छोड़ देता है पर मन ही मन उसमे डूबा रहता है। 

 *चौथा अध्याय* ------------------------ 

चौथे अध्याय में बताया गया है कि ज्ञान प्राप्त करके कर्म करते हुए भी कर्मसंन्यास का फल किस उपाय से प्राप्त किया जा सकता है। यह गीता का वह प्रसिद्ध आश्वासन है कि जब जब धर्म की ग्लानि होती है तब तब मनुष्यों के बीच भगवान का अवतार होता है, अर्थात् भगवान की शक्ति विशेष रूप से मूर्त होती है। यहीं पर एक वाक्य विशेष ध्यान देने योग्य है- क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा। 'कर्म से सिद्धि'-इससे बड़ा प्रभावशाली सूत्र गीतादर्शन में नहीं है। किंतु गीतातत्व इस सूत्र में इतना सुधार और करता है कि वह कर्म असंग भाव से अर्थात् फलाशक्ति से बचकर करना चाहिए।

 *पाँचवा अध्याय* --------------------------

 पाँचवे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि कर्म के साथ जो मन का संबंध है, उसके संस्कार पर या उसे विशुद्ध करने पर विशेष ध्यान दिलाया गया है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है और जल में खिले कमल के समान कर्म रूपी जल से लिप्त नहीं होता।

 *छठा अध्याय* ------------------------ 

भगवान श्री कृष्ण ने छठे अध्याय में कहा कि जितने विषय हैं उन सबसे इंद्रियों का संयम ही कर्म और ज्ञान का निचोड़ है। सुख में और दुख में मन की समान स्थिति, इसे ही योग कहा जाता है। जब मनुष्य सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग करके बिना फल की इच्छा के कोई कार्य करता है तो उस समय वह मनुष्य योग मे स्थित कहलाता है। जो मनुष्य मन को वश में कर लेता है, उसका मन ही उसका सबसे अच्छा मित्र बन जाता है, लेकिन जो मनुष्य मन को वश में नहीं कर पाता है, उसके लिए वह मन ही उसका सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है। जिसने अपने मन को वश में कर लिया उसको परमात्मा की प्राप्ति होती है और जिस मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है उसके लिए सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी और मान-अपमान सब एक समान हो जाते हैं। ऐसा मनुष्य स्थिर चित्त और इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्त करके हमेशा सन्तुष्ट रहता है। 

 *सातवां अध्याय* --------------------------- 

सातवें अध्याय में श्री कृष्ण ने कहा कि सृष्टि के नानात्व का ज्ञान विज्ञान है और नानात्व से एकत्व की ओर प्रगति ज्ञान है। ये दोनों दृष्टियाँ मानव के लिए उचित हैं। इस अध्याय में भगवान के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है जिनका और विस्तार विभूतियोग नामक दसवें अध्याय में आता है। यहीं विशेष भगवती दृष्टि का भी उल्लेख है जिसका सूत्र-वासुदेव: सर्वमिति, सब वसु या शरीरों में एक ही देवतत्व है, उसी की संज्ञा विष्णु है। किंतु लोक में अपनी अपनी रु चि के अनुसार अनेक नामों और रूपों में उसी एक देवतत्व की उपासना की जाती है। वे सब ठीक हैं। किंतु अच्छा यही है कि बुद्धिमान मनुष्य उस ब्रह्मतत्व को पहचाने जो अध्यात्म विद्या का सर्वोच्च शिखर है।

 *आठवां अध्याय* --------------------------- 

आठवें अध्याय में श्री कृष्ण ने बताया कि जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। देह के भीतर जीव, ईश्वर तथा भूत ये तीन शक्तियाँ मिलकर जिस प्रकार कार्य करती हैं उसे अधियज्ञ कहते हैं। उपनिषदों में अक्षर विद्या का विस्तार हुआ और गीता में उस अक्षरविद्या का सार कह दिया गया है-अक्षर ब्रह्म परमं, अर्थात् परब्रह्म की संज्ञा अक्षर है। मनुष्य, अर्थात् जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। जीवसंयुक्त भौतिक देह की संज्ञा क्षर है और केवल शक्तितत्व की संज्ञा आधिदैवक है। देह के भीतर जीव, ईश्वर तथा भूत ये तीन शक्तियाँ मिलकर जिस प्रकार कार्य करती हैं उसे अधियज्ञ कहते हैं। 

 *नवां अध्याय* ------------------------ 

नवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत, मृत्यु, संत-असंत और जितने भी देवी-देवता हैं सबका पर्यवसान ब्रह्म में है। इस क्षेत्र में ब्रह्मतत्व का निरूपण ही प्रधान है, उसी से व्यक्त जगत का बारंबार निर्माण होता है। वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत, और मृत्यु, संत और असंत, और जितने भी देवी देवता है, सबका पर्यवसान ब्रह्म में है। लोक में जो अनेक प्रकार की देवपूजा प्रचलित है, वह भी अपने अपने स्थान में ठीक है, समन्वय की यह दृष्टि भागवत आचार्यों को मान्य थी, वस्तुत: यह उनकी बड़ी शक्ति थी। 

 *दसवां अध्याय* --------------------------- 

दसवें अध्याय का सार यह है कि लोक में जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान की विभूतियाँ हैं, मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं। इसका सार यह है कि लोक में जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान, की विभूतियाँ हैं, मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं। बुद्धि से इन देवताओं की व्याख्या चाहे न हो सके किंतु लोक में तो वह हैं ही। कोई पीपल को पूज रहा है। कोई पहाड़ को कोई नदी या समुद्र को, कोई उनमें रहनेवाले मछली, कछुओं को। यों कितने देवता हैं, इसका कोई अंत नहीं। विश्व के इतिहास में देवताओं की यह भरमार सर्वत्र पाई जाती है। भागवतों ने इनकी सत्ता को स्वीकारते हुए सबको विष्णु का रूप मानकर समन्वय की एक नई दृष्टि प्रदान की। इसी का नाम विभूतियोग है। जो सत्व जीव बलयुक्त अथवा चमत्कारयुक्त है, वह सब भगवान का रूप है। इतना मान लेने से चित्त निर्विरोध स्थिति में पहुँच जाता है। 

 *11वां अध्याय* -------------------------- 

11वें अध्याय में अर्जुन ने भगवान का विश्वरूप देखा। विराट रूप का अर्थ है मानवीय धरातल और परिधि के ऊपर जो अनंत विश्व का प्राणवंत रचनाविधान है, उसका साक्षात दर्शन। विष्णु का जो चतुर्भुज रूप है, वह मानवीय धरातल पर सौम्यरूप है। विष्णु का जो चतुर्भुज रूप है, वह मानवीय धरातल पर सौम्यरूप है। जब अर्जुन ने भगवान का विराट रूप देखा तो उसके मस्तक का विस्फोटन होने लगा। 'दिशो न जाने न लभे च शर्म' ये ही घबराहट के वाक्य उनके मुख से निकले और उसने प्रार्थना की कि मानव के लिए जो स्वाभाविक स्थिति ईश्वर ने रखी है, वही पर्याप्त है। 

 *बारहवां अध्याय* --------------------------- 

बारहवें अध्याय में श्री कृष्ण ने बताया कि जो भगवान के ध्यान में लग जाते हैं वे भगवन्निष्ठ होते हैं अर्थात भक्ति से भक्ति पैदा होती है। नौ प्रकार की साधना भक्ति हैं तथा इनके आगे प्रेमलक्षणा भक्ति साध्य भक्ति है जो कर्मयोग और ज्ञानयोग सबकी साध्य है। भगवान कृष्ण ने कहा जो मनुष्य अपने मन को स्थिर करके निरंतर मेरे सगुण रूप की पूजा में लगा रहता है, वह मेरे द्वारा योगियों में अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माने जाते हैं। वहीं जो मनुष्य परमात्मा के सर्वव्यापी, अकल्पनीय, निराकार, अविनाशी, अचल स्थित स्वरूप की उपासना करता है और अपनी सभी इन्द्रियों को वश में करके, सभी परिस्थितियों में समान भाव से रहते हुए सभी प्राणीयों के हित में लगा रहता है वह भी मुझे प्राप्त करता है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा की तू अपने मन को मुझमें ही स्थिर कर और मुझमें ही अपनी बुद्धि को लगा, इस प्रकार तू निश्चित रूप से मुझमें ही सदैव निवास करेगा। यदि तू ऐसा नही कर सकता है, तो भक्ति-योग के अभ्यास द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न कर। अगर तू ये भी नही कर सकता है, तो केवल मेरे लिये कर्म करने का प्रयत्न कर, इस प्रकार तू मेरे लिये कर्मों को करता हुआ मेरी प्राप्ति रूपी परम-सिद्धि को प्राप्त करेगा। 

 *तेरहवां अध्याय* ---------------------------- 

तेरहवें अध्याय में एक सीधा विषय क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का विचार है। यह शरीर क्षेत्र है, उसका जानने वाला जीवात्मा क्षेत्रज्ञ है। गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रधान या प्रकृति है। गुणों के वैषम्य से ही वैकृत सृष्टि का जन्म होता है। अकेला सत्व शांत स्वभाव से निर्मल प्रकाश की तरह स्थिर रहता है और अकेला तम भी जड़वत निश्चेष्ट रहता है। किंतु दोनों के बीच में छाया हुआ रजोगुण उन्हें चेष्टा के धरातल पर खींच लाता है। गति तत्व का नाम ही रजस है। भगवान् कृष्ण ने कहा कि मेरे अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को प्राप्त न करने का भाव, बिना विचलित हुए मेरी भक्ति में स्थिर रहने का भाव, शुद्ध एकान्त स्थान में रहने का भाव, निरन्तर आत्म-स्वरूप में स्थित रहने का भाव और तत्व-स्वरूप परमात्मा से साक्षात्कार करने का भाव यह सब तो मेरे द्वारा ज्ञान कहा गया है और इनके अतिरिक्त जो भी है वह अज्ञान है। 

 *चौदहवां अध्याय* ------------------------------ 

चौदहवें अध्याय में समस्त वैदिक, दार्शनिक और पौराणिक तत्वचिंतन का निचोड़ है-सत्व, रज, तम नामक तीन गुण-त्रिको की अनेक व्याख्याएं हैं। जो मूल या केंद्र है, जिसे ऊर्ध्व कहते हैं, वह ब्रह्म ही है एक ओर वह परम तेज, जो विश्वरूपी अश्वत्थ को जन्म देता है, सूर्य और चंद्र के रूप में प्रकट है, दूसरी ओर वही एक एक चैतन्य केंद्र में या प्राणि शरीर में आया हुआ है। जैसा गीता में स्पष्ट कहा है-अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: । वैश्वानर या प्राणमयी चेतना से बढ़कर और दूसरा रहस्य नहीं है। नर या पुरुष तीन हैं-क्षर, अक्षर और अव्यय। पंचभूतों का नाम क्षर है, प्राण का नाम अक्षर है और मनस्तत्व या चेतना की संज्ञा अव्यय है। इन्हीं तीन नरों की एकत्र स्थिति से मानवी चेतना का जन्म होता है उसे ही ऋषियों ने वैश्वानर अग्नि कहा है। 

 *पंद्रहवां अध्याय* -------------------------- 

पंद्रहवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने विश्व के अश्वत्थ रूप का वर्णन किया है। यह अश्वत्थ रूपी संसार महान विस्तार वाला है। वह ब्रह्म ही है एक ओर वह परम तेज, जो विश्वरूपी अश्वत्थ को जन्म देता है, सूर्य और चंद्र के रूप में प्रकट है। यह सृष्टि के द्विविरुद्ध रूप की कल्पना है, एक अच्छा और दूसरा बुरा। एक प्रकाश में, दूसरा अंधकार में। एक अमृत, दूसरा मर्त्य। एक सत्य, दूसरा अनृत। नर या पुरुष तीन हैं-क्षर, अक्षर और अव्यय। पंचभूतों का नाम क्षर है, प्राण का नाम अक्षर है और मनस्तत्व या चेतना की संज्ञा अव्यय है। इन्हीं तीन नरों की एकत्र स्थिति से मानवी चेतना का जन्म होता है उसे ही ऋषियों ने वैश्वानर अग्नि कहा है। 

 *सोलहवां अध्याय* ------------------------------ 

सोलहवें अध्याय में देवासुर संपत्ति का विभाग बताया गया है। आरंभ से ही ऋग्देव में सृष्टि की कल्पना देवी और आसुरी शक्तियों के रूप में की गई है। यह सृष्टि के द्विविरुद्ध रूप की कल्पना है, एक अच्छा और दूसरा बुरा। एक प्रकाश में, दूसरा अंधकार में। एक अमृत, दूसरा मर्त्य। एक सत्य, दूसरा अनृत। भगवान कृष्ण ने कहा की अनेक प्रकार की चिन्ताओं से भ्रमित होकर विषय-भोगों में आसक्त आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य नरक में जाते हैं। आसुरी स्वभाव वाले व्यक्ति स्वयं को ही श्रेष्ठ मानते हैं और वे बहुत ही घमंडी होते हैं। ऐसे मनुष्य धन और झूठी मान-प्रतिष्ठा के मद में लीन होकर केवल नाम-मात्र के लिये बिना किसी शास्त्र-विधि के घमण्ड के साथ यज्ञ करते हैं। आसुरी स्वभाव वाले ईष्यालु, क्रूरकर्मी और मनुष्यों में अधम होते हैं, ऐसे अधम मनुष्यों को मैं संसार रूपी सागर में निरन्तर आसुरी योनियों में ही गिराता रहता हूं ।

 *सत्रहवां अध्याय* ---------------------------- 

सत्रहवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि सत, रज और तम जिसमें इन तीन गुणों का प्रादुर्भाव होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा वैसी ही बन जाती है। इसका संबंध सत, रज और तम, इन तीन गुणों से ही है, अर्थात् जिसमें जिस गुण का प्रादुर्भाव होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा वैसी ही बन जाती है। यज्ञ, तप, दान, कर्म ये सब तीन प्रकार की श्रद्धा से संचालित होते हैं। यहाँ तक कि आहार भी तीन प्रकार का है। उनके भेद और लक्षण गीता ने यहाँ बताए हैं। जिस प्रकार यज्ञ से, तप से और दान से जो स्थिति प्राप्त होती है, उसे भी "सत्‌" ही कहा जाता है और उस परमात्मा की प्रसन्नता लिए जो भी कर्म किया जाता है वह भी निश्चित रूप से "सत्‌" ही कहा जाता है। बिना श्रद्धा के यज्ञ, दान और तप के रूप में जो कुछ भी सम्पन्न किया जाता है, वह सभी "असत्‌" कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस जन्म में लाभदायक होता है और न ही अगले जन्म में लाभदायक होता है।

 *अठारवां अध्याय* -----------------------------

 अठारवें अध्याय में गीता के समस्त उपदेशों का सार एवं उपसंहार है। जो बुद्धि धर्म-अधर्म, बंधन-मोक्ष, वृत्ति-निवृत्ति को ठीक से पहचानती है, वही सात्विकी बुद्धि है और वही मानव की सच्ची उपलब्धि है। पृथ्वी के मानवों में और स्वर्ग के देवताओं में कोई भी ऐसा नहीं जो प्रकृति के चलाए हुए इन तीन गुणों से बचा हो। मनुष्य को बहुत देख भालकर चलना आवश्यक है जिससे वह अपनी बुद्धि और वृत्ति को बुराई से बचा सके और क्या कार्य है, क्या अकार्य है, इसको पहचान सके। धर्म और अधर्म को, बंध और मोक्ष को, वृत्ति और निवृत्ति को जो बुद्धि ठीक से पहचनाती है, वही सात्विकी बुद्धि है और वही मानव की सच्ची उपलब्धि है। जो मनुष्य श्रद्धा पूर्वक इस गीताशास्त्र का पाठ और श्रवण करते हैं वे सभी पापों से मुक्त होकर श्रेष्ठ लोक को प्राप्त होते हैं।

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