शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

#श्रीमद्भगवद्गीता – 18 अध्यायों का संक्षिप्त #गीतासार

श्रीमद्भगवद्गीता – 18 अध्यायों का संक्षिप्त सार

(वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टि से सरल भाषा में)

प्रस्तावना
महाभारत के युद्धभूमि में अर्जुन जब मोह, शोक और असमंजस से ग्रसित होकर अपने कर्तव्य से पीछे हटने लगे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें ज्ञान दिया। यह ज्ञान केवल अर्जुन के लिए ही नहीं था, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए शाश्वत संदेश है। गीता जीवन का वह "विज्ञान" है जो हमें सही दृष्टिकोण, संतुलन और कर्तव्य पालन की प्रेरणा देता है।


1. अर्जुन विषाद योग (प्रथम अध्याय)

अर्जुन मोह और शोक से घिरकर युद्ध से पीछे हटना चाहते हैं। यह दर्शाता है कि जब मनुष्य अपने रिश्तों और परिस्थितियों में उलझ जाता है तो उसकी बुद्धि निष्क्रिय हो जाती है। कृष्ण यही आधार बनाकर अर्जुन को जीवन और कर्तव्य का विज्ञान समझाना आरम्भ करते हैं।


2. सांख्य योग (द्वितीय अध्याय)

यह अध्याय गीता का हृदय है।

  • आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है।

  • सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मरण सब परिवर्तनशील हैं।

  • इंद्रिय-नियंत्रण ही आत्म-नियंत्रण है।

  • कर्म करते हुए भी फल की आसक्ति छोड़ना ही "स्थितप्रज्ञ" अवस्था है।


3. कर्म योग (तृतीय अध्याय)

मनुष्य कर्म के बिना जी नहीं सकता।

  • ज्ञानी भी कर्म करते हैं, पर वे फलासक्ति रहित रहते हैं।

  • कर्म त्यागने से नहीं, कर्म में संतुलन रखने से मुक्ति मिलती है।

  • कर्म का असली उद्देश्य समाज और जगत के हित में योगदान देना है।


4. ज्ञान–कर्म संन्यास योग (चतुर्थ अध्याय)

  • जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब ईश्वर अवतार लेकर संतुलन स्थापित करते हैं।

  • केवल कर्म से ही सिद्धि संभव है, परन्तु वह कर्म निरासक्ति भाव से किया जाए।

  • ज्ञान से कर्म का शुद्धिकरण होता है।


5. कर्म संन्यास योग (पंचम अध्याय)

  • चाहे संन्यास मार्ग अपनाओ या कर्मयोग, यदि निष्काम भाव है तो परिणाम समान है।

  • कर्म को समर्पित कर देने से मनुष्य कमल की तरह संसार में रहकर भी लिप्त नहीं होता।


6. ध्यान योग (षष्ठ अध्याय)

  • जिसने मन को वश में कर लिया वही सच्चा योगी है।

  • मन ही मित्र है और मन ही शत्रु।

  • योगी वह है जो सब प्राणियों को समान दृष्टि से देखता है।

  • ध्यान और आत्मसंयम से मनुष्य परमात्मा को प्राप्त करता है।


7. ज्ञान–विज्ञान योग (सप्तम अध्याय)

  • भगवान के अनेक रूप हैं, परंतु मूल तत्व एक ही है।

  • "वासुदेवः सर्वमिति" – सम्पूर्ण सृष्टि में वही एक परम तत्व विद्यमान है।

  • अज्ञानी अनेक रूपों की पूजा करते हैं, ज्ञानी उस परम तत्व को पहचानकर एकत्व देखते हैं।


8. अक्षर ब्रह्म योग (अष्टम अध्याय)

  • शरीर नश्वर है, आत्मा शाश्वत है।

  • मृत्यु के समय जिसकी स्मृति में परमात्मा होता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है।

  • जीव और परमात्मा के संबंध को "अध्यात्म" कहा गया है।


9. राजविद्या–राजगुह्य योग (नवम अध्याय)

  • ईश्वर सर्वव्यापी हैं।

  • समस्त यज्ञ, देवता और कर्मकांड अंततः उसी परम तत्व में मिलते हैं।

  • सच्ची भक्ति, ईश्वर में अटूट विश्वास और समर्पण है।


10. विभूति योग (दशम अध्याय)

  • जो भी शक्ति, सामर्थ्य, सौंदर्य, ज्ञान, बल, तेज या अद्भुत गुण हैं, वे सब भगवान की ही विभूतियाँ हैं।

  • प्रकृति का प्रत्येक आश्चर्य उसी परम तत्व का प्रकट रूप है।


11. विश्वरूप दर्शन योग (एकादश अध्याय)

  • अर्जुन को भगवान का विराट रूप दिखाई देता है।

  • सम्पूर्ण सृष्टि, समय, उत्पत्ति और विनाश सब उसी विराट स्वरूप में समाहित हैं।

  • यह अनुभव दर्शाता है कि ब्रह्मांड के पीछे एक विराट चेतना कार्यरत है।


12. भक्ति योग (द्वादश अध्याय)

  • भक्ति, ज्ञान और कर्म का सार है।

  • सगुण और निर्गुण दोनों रूपों से भगवान की उपासना की जा सकती है।

  • जो निस्वार्थ भाव से ईश्वर पर भरोसा रखकर सबके हित में कार्य करता है वही सच्चा भक्त है।


13. क्षेत्र–क्षेत्रज्ञ विभाग योग (त्रयोदश अध्याय)

  • शरीर "क्षेत्र" है और आत्मा "क्षेत्रज्ञ" है।

  • आत्मा ही वास्तविक ज्ञाता है।

  • भक्ति, आत्मसंयम और ईश्वर पर केंद्रित जीवन ही ज्ञान है, बाकी सब अज्ञान है।


14. गुणत्रय विभाग योग (चतुर्दश अध्याय)

  • तीन गुण – सत्त्व (ज्ञान, शांति), रजस (क्रिया, इच्छा) और तमस (आलस्य, अज्ञान)।

  • हर मनुष्य इन तीनों से प्रभावित है।

  • जो इन तीनों से ऊपर उठ जाता है, वही "गुणातीत" होकर मोक्ष को प्राप्त करता है।


15. पुरुषोत्तम योग (पंचदश अध्याय)

  • संसार एक "अश्वत्थ वृक्ष" है, जिसकी जड़ें ऊपर और शाखाएँ नीचे हैं।

  • जीव दो प्रकार के हैं – क्षर (नश्वर) और अक्षर (अविनाशी)।

  • परम पुरुष "पुरुषोत्तम" ही इन दोनों से परे है और वही शाश्वत सत्य है।


16. दैवासुर सम्पद विभाग योग (षोडश अध्याय)

  • मनुष्य के स्वभाव दो प्रकार के हैं – दैवी (सद्गुणी) और आसुरी (दोषयुक्त)।

  • दैवी गुण से मुक्ति मिलती है, आसुरी गुण से पतन होता है।

  • घमंड, क्रोध, लोभ, असत्य आसुरी गुण हैं।


17. श्रद्धात्रय विभाग योग (सप्तदश अध्याय)

  • मनुष्य की श्रद्धा भी उसके गुणों के अनुसार होती है – सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।

  • आहार, यज्ञ, तप और दान भी इन गुणों के अनुसार तीन प्रकार के होते हैं।

  • जो भी कार्य श्रद्धा और ईश्वर-समर्पण से किया जाता है वही "सत्" है।


18. मोक्ष संन्यास योग (अष्टादश अध्याय)

  • यही उपसंहार है।

  • धर्म-अधर्म, बंधन-मोक्ष का विवेक ही सात्त्विक बुद्धि है।

  • हर मनुष्य प्रकृति के गुणों से बंधा है, पर समर्पण और भक्ति से मुक्त हो सकता है।

  • जो श्रद्धा से गीता का पाठ या श्रवण करता है, वह पापों से मुक्त होकर उत्तम लोक को प्राप्त करता है।


निष्कर्ष

गीता केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं बल्कि जीवन-प्रबंधन और चेतना-विज्ञान है।
यह सिखाती है कि –

  • कर्म करते रहो, पर फल की आसक्ति छोड़ दो।

  • आत्मा शाश्वत है, शरीर नश्वर।

  • योग, ध्यान, ज्ञान और भक्ति – सब मार्ग अंततः उसी परम सत्य की ओर ले जाते हैं।

  • सच्चा धर्म है – समता, संयम और समर्पण।


👉 यह संक्षेप अब तार्किक, वैज्ञानिक दृष्टि और आधुनिक मनोविज्ञान से भी मेल खाता है।


गीता के 18 अध्यायो का संक्षेप में हिंदी सारांश ============================== भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया और इसी उपदेश को सुनकर अर्जुन को ज्ञान की प्राप्ति हुई। गीता का उपदेश मात्र अर्जुन के लिए नहीं था बल्कि ये समस्त जगत के लिए था, अगर कोई व्यक्ति गीता में दिए गए उपदेश को अपने जीवन में अपनाता है तो वह कभी किसी से परास्त नहीं हो सकता है। गीता माहात्म्य में उपनिषदों को गाय और गीता को उसका दूध कहा गया है। इसका अर्थ है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या है , उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। गीता के 18 अध्याय में क्या संदेश छिपा हुआ है आइए संक्षिप्त में जाने... 

 *पहला अध्याय* ------------------------- 

अर्जुन ने युद्ध भूमि में भगवान श्री कृष्ण से कहा कि मुझे तो केवल अशुभ लक्षण ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में स्वजनों को मारने में मुझे कोई कल्याण दिखाई नही देता है। मैं न तो विजय चाहता हूं, न ही राज्य और सुखों की इच्छा करता हूं, हमें ऐसे राज्य, सुख अथवा इस जीवन से भी क्या लाभ है। जिनके साथ हमें राज्य आदि सुखों को भोगने की इच्छा है, जब वह ही अपने जीवन के सभी सुखों को त्याग करके इस युद्ध भूमि में खड़े हैं। मैं इन सभी को मारना नहीं चाहता हूं, भले ही यह सभी मुझे ही मार डालें लेकिन अपने ही कुटुम्बियों को मारकर हम कैसे सुखी हो सकते हैं। हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से अपने प्रियजनों को मारने के लिए आतुर हो गए हैं। इस प्रकार शोक से संतप्त होकर अर्जुन युद्ध-भूमि में धनुष को त्यागकर रथ पर बैठ गए तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने कर्तव्य को भूल बैठे अर्जुन को उनके कर्तव्य और कर्म के बारे में बताया। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जीवन के सच के परिचित कराया। कृष्ण ने अर्जुन की स्थिति को भांप लिया भगवान कृष्ण समझ गए की अर्जुन का शरीर ठीक है लेकिन युद्ध आरंभ होने से पहले ही उसका मनोबल टूट चुका है। बिना मन के यह शरीर खड़ा नहीं रह सकता। अत: भगवान कृष्ण ने एक गुरु का कर्तव्य निभाते हुए तर्क, बुद्धि, ज्ञान, कर्म की चर्चा, विश्व के स्वभाव, उसमें जीवन की स्थिति और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन के मन का उद्धार किया। 

 *दूसरा अध्याय* ------------------------

 दूसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि जीना और मरना, जन्म लेना और बढ़ना, विषयों का आना और जाना। सुख और दुख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं। काल की चक्रगति इन सब स्थितियों को लाती है और ले जाती है। जीवन के इस स्वभाव को जान लेने पर फिर शोक नहीं होता। काम, क्रोध, भय, राग, द्वेष से मन का सौम्यभाव बिगड़ जाता है और इंद्रियां वश में नहीं रहती हैं ।इंद्रियजय ही सबसे बड़ी आत्मजय है। बाहर से कोई विषयों को छोड़ भी दे तो भी भीतर का मन नहीं मानता। विषयों का स्वाद जब मन से जाता है, तभी मन प्रफुल्लित, शांत और सुखी होता है। समुद्र में नदियां आकर मिलती हैं पर वह अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता। ऐसे ही संसार में रहते हुए, उसके व्यवहारों को स्वीकारते हुए, अनेक कामनाओं का प्रवेश मन में होता रहता है। किंतु उनसे जिसका मन अपनी मर्यादा नहीं खोता उसे ही शांति मिलती हैं। इसे प्राचीन अध्यात्म परिभाषा में गीता में ब्राह्मीस्थिति कहा है। 

 *तीसरा अध्याय* -------------------------- 

तीसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि कोई व्यक्ति कर्म छोड़ ही नहीं सकता। कृष्ण ने अपना दृष्टांत देकर कहा कि मैं नारायण का रूप हूं, मेरे लिए कुछ कर्म शेष नहीं है। फिर भी मैं तंद्रारहित होकर कर्म करता हूं और अन्य लोग मेरे मार्ग पर चलते हैं। अंतर इतना ही है कि जो मूर्ख हैं वे लिप्त होकर कर्म करते हैं पर ज्ञानी असंग भाव से कर्म करता हैं। गीता में यहीं एक साभिप्राय शब्द बुद्धिभेद है। अर्थात् जो साधारण समझ के लोग कर्म में लगे हैं उन्हें उस मार्ग से उखाड़ना उचित नहीं, क्योंकि वे ज्ञानवादी बन नहीं सकते और यदि उनका कर्म भी छूट गया तो वे दोनों ओर से भटक जाएँगे। प्रकृति व्यक्ति को कर्म करने के लिए बाध्य करती है। जो व्यक्ति कर्म से बचना चाहता है वह ऊपर से तो कर्म छोड़ देता है पर मन ही मन उसमे डूबा रहता है। 

 *चौथा अध्याय* ------------------------ 

चौथे अध्याय में बताया गया है कि ज्ञान प्राप्त करके कर्म करते हुए भी कर्मसंन्यास का फल किस उपाय से प्राप्त किया जा सकता है। यह गीता का वह प्रसिद्ध आश्वासन है कि जब जब धर्म की ग्लानि होती है तब तब मनुष्यों के बीच भगवान का अवतार होता है, अर्थात् भगवान की शक्ति विशेष रूप से मूर्त होती है। यहीं पर एक वाक्य विशेष ध्यान देने योग्य है- क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा। 'कर्म से सिद्धि'-इससे बड़ा प्रभावशाली सूत्र गीतादर्शन में नहीं है। किंतु गीतातत्व इस सूत्र में इतना सुधार और करता है कि वह कर्म असंग भाव से अर्थात् फलाशक्ति से बचकर करना चाहिए।

 *पाँचवा अध्याय* --------------------------

 पाँचवे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि कर्म के साथ जो मन का संबंध है, उसके संस्कार पर या उसे विशुद्ध करने पर विशेष ध्यान दिलाया गया है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है और जल में खिले कमल के समान कर्म रूपी जल से लिप्त नहीं होता।

 *छठा अध्याय* ------------------------ 

भगवान श्री कृष्ण ने छठे अध्याय में कहा कि जितने विषय हैं उन सबसे इंद्रियों का संयम ही कर्म और ज्ञान का निचोड़ है। सुख में और दुख में मन की समान स्थिति, इसे ही योग कहा जाता है। जब मनुष्य सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग करके बिना फल की इच्छा के कोई कार्य करता है तो उस समय वह मनुष्य योग मे स्थित कहलाता है। जो मनुष्य मन को वश में कर लेता है, उसका मन ही उसका सबसे अच्छा मित्र बन जाता है, लेकिन जो मनुष्य मन को वश में नहीं कर पाता है, उसके लिए वह मन ही उसका सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है। जिसने अपने मन को वश में कर लिया उसको परमात्मा की प्राप्ति होती है और जिस मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है उसके लिए सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी और मान-अपमान सब एक समान हो जाते हैं। ऐसा मनुष्य स्थिर चित्त और इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्त करके हमेशा सन्तुष्ट रहता है। 

 *सातवां अध्याय* --------------------------- 

सातवें अध्याय में श्री कृष्ण ने कहा कि सृष्टि के नानात्व का ज्ञान विज्ञान है और नानात्व से एकत्व की ओर प्रगति ज्ञान है। ये दोनों दृष्टियाँ मानव के लिए उचित हैं। इस अध्याय में भगवान के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है जिनका और विस्तार विभूतियोग नामक दसवें अध्याय में आता है। यहीं विशेष भगवती दृष्टि का भी उल्लेख है जिसका सूत्र-वासुदेव: सर्वमिति, सब वसु या शरीरों में एक ही देवतत्व है, उसी की संज्ञा विष्णु है। किंतु लोक में अपनी अपनी रु चि के अनुसार अनेक नामों और रूपों में उसी एक देवतत्व की उपासना की जाती है। वे सब ठीक हैं। किंतु अच्छा यही है कि बुद्धिमान मनुष्य उस ब्रह्मतत्व को पहचाने जो अध्यात्म विद्या का सर्वोच्च शिखर है।

 *आठवां अध्याय* --------------------------- 

आठवें अध्याय में श्री कृष्ण ने बताया कि जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। देह के भीतर जीव, ईश्वर तथा भूत ये तीन शक्तियाँ मिलकर जिस प्रकार कार्य करती हैं उसे अधियज्ञ कहते हैं। उपनिषदों में अक्षर विद्या का विस्तार हुआ और गीता में उस अक्षरविद्या का सार कह दिया गया है-अक्षर ब्रह्म परमं, अर्थात् परब्रह्म की संज्ञा अक्षर है। मनुष्य, अर्थात् जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। जीवसंयुक्त भौतिक देह की संज्ञा क्षर है और केवल शक्तितत्व की संज्ञा आधिदैवक है। देह के भीतर जीव, ईश्वर तथा भूत ये तीन शक्तियाँ मिलकर जिस प्रकार कार्य करती हैं उसे अधियज्ञ कहते हैं। 

 *नवां अध्याय* ------------------------ 

नवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत, मृत्यु, संत-असंत और जितने भी देवी-देवता हैं सबका पर्यवसान ब्रह्म में है। इस क्षेत्र में ब्रह्मतत्व का निरूपण ही प्रधान है, उसी से व्यक्त जगत का बारंबार निर्माण होता है। वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत, और मृत्यु, संत और असंत, और जितने भी देवी देवता है, सबका पर्यवसान ब्रह्म में है। लोक में जो अनेक प्रकार की देवपूजा प्रचलित है, वह भी अपने अपने स्थान में ठीक है, समन्वय की यह दृष्टि भागवत आचार्यों को मान्य थी, वस्तुत: यह उनकी बड़ी शक्ति थी। 

 *दसवां अध्याय* --------------------------- 

दसवें अध्याय का सार यह है कि लोक में जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान की विभूतियाँ हैं, मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं। इसका सार यह है कि लोक में जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान, की विभूतियाँ हैं, मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं। बुद्धि से इन देवताओं की व्याख्या चाहे न हो सके किंतु लोक में तो वह हैं ही। कोई पीपल को पूज रहा है। कोई पहाड़ को कोई नदी या समुद्र को, कोई उनमें रहनेवाले मछली, कछुओं को। यों कितने देवता हैं, इसका कोई अंत नहीं। विश्व के इतिहास में देवताओं की यह भरमार सर्वत्र पाई जाती है। भागवतों ने इनकी सत्ता को स्वीकारते हुए सबको विष्णु का रूप मानकर समन्वय की एक नई दृष्टि प्रदान की। इसी का नाम विभूतियोग है। जो सत्व जीव बलयुक्त अथवा चमत्कारयुक्त है, वह सब भगवान का रूप है। इतना मान लेने से चित्त निर्विरोध स्थिति में पहुँच जाता है। 

 *11वां अध्याय* -------------------------- 

11वें अध्याय में अर्जुन ने भगवान का विश्वरूप देखा। विराट रूप का अर्थ है मानवीय धरातल और परिधि के ऊपर जो अनंत विश्व का प्राणवंत रचनाविधान है, उसका साक्षात दर्शन। विष्णु का जो चतुर्भुज रूप है, वह मानवीय धरातल पर सौम्यरूप है। विष्णु का जो चतुर्भुज रूप है, वह मानवीय धरातल पर सौम्यरूप है। जब अर्जुन ने भगवान का विराट रूप देखा तो उसके मस्तक का विस्फोटन होने लगा। 'दिशो न जाने न लभे च शर्म' ये ही घबराहट के वाक्य उनके मुख से निकले और उसने प्रार्थना की कि मानव के लिए जो स्वाभाविक स्थिति ईश्वर ने रखी है, वही पर्याप्त है। 

 *बारहवां अध्याय* --------------------------- 

बारहवें अध्याय में श्री कृष्ण ने बताया कि जो भगवान के ध्यान में लग जाते हैं वे भगवन्निष्ठ होते हैं अर्थात भक्ति से भक्ति पैदा होती है। नौ प्रकार की साधना भक्ति हैं तथा इनके आगे प्रेमलक्षणा भक्ति साध्य भक्ति है जो कर्मयोग और ज्ञानयोग सबकी साध्य है। भगवान कृष्ण ने कहा जो मनुष्य अपने मन को स्थिर करके निरंतर मेरे सगुण रूप की पूजा में लगा रहता है, वह मेरे द्वारा योगियों में अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माने जाते हैं। वहीं जो मनुष्य परमात्मा के सर्वव्यापी, अकल्पनीय, निराकार, अविनाशी, अचल स्थित स्वरूप की उपासना करता है और अपनी सभी इन्द्रियों को वश में करके, सभी परिस्थितियों में समान भाव से रहते हुए सभी प्राणीयों के हित में लगा रहता है वह भी मुझे प्राप्त करता है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा की तू अपने मन को मुझमें ही स्थिर कर और मुझमें ही अपनी बुद्धि को लगा, इस प्रकार तू निश्चित रूप से मुझमें ही सदैव निवास करेगा। यदि तू ऐसा नही कर सकता है, तो भक्ति-योग के अभ्यास द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न कर। अगर तू ये भी नही कर सकता है, तो केवल मेरे लिये कर्म करने का प्रयत्न कर, इस प्रकार तू मेरे लिये कर्मों को करता हुआ मेरी प्राप्ति रूपी परम-सिद्धि को प्राप्त करेगा। 

 *तेरहवां अध्याय* ---------------------------- 

तेरहवें अध्याय में एक सीधा विषय क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का विचार है। यह शरीर क्षेत्र है, उसका जानने वाला जीवात्मा क्षेत्रज्ञ है। गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रधान या प्रकृति है। गुणों के वैषम्य से ही वैकृत सृष्टि का जन्म होता है। अकेला सत्व शांत स्वभाव से निर्मल प्रकाश की तरह स्थिर रहता है और अकेला तम भी जड़वत निश्चेष्ट रहता है। किंतु दोनों के बीच में छाया हुआ रजोगुण उन्हें चेष्टा के धरातल पर खींच लाता है। गति तत्व का नाम ही रजस है। भगवान् कृष्ण ने कहा कि मेरे अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को प्राप्त न करने का भाव, बिना विचलित हुए मेरी भक्ति में स्थिर रहने का भाव, शुद्ध एकान्त स्थान में रहने का भाव, निरन्तर आत्म-स्वरूप में स्थित रहने का भाव और तत्व-स्वरूप परमात्मा से साक्षात्कार करने का भाव यह सब तो मेरे द्वारा ज्ञान कहा गया है और इनके अतिरिक्त जो भी है वह अज्ञान है। 

 *चौदहवां अध्याय* ------------------------------ 

चौदहवें अध्याय में समस्त वैदिक, दार्शनिक और पौराणिक तत्वचिंतन का निचोड़ है-सत्व, रज, तम नामक तीन गुण-त्रिको की अनेक व्याख्याएं हैं। जो मूल या केंद्र है, जिसे ऊर्ध्व कहते हैं, वह ब्रह्म ही है एक ओर वह परम तेज, जो विश्वरूपी अश्वत्थ को जन्म देता है, सूर्य और चंद्र के रूप में प्रकट है, दूसरी ओर वही एक एक चैतन्य केंद्र में या प्राणि शरीर में आया हुआ है। जैसा गीता में स्पष्ट कहा है-अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: । वैश्वानर या प्राणमयी चेतना से बढ़कर और दूसरा रहस्य नहीं है। नर या पुरुष तीन हैं-क्षर, अक्षर और अव्यय। पंचभूतों का नाम क्षर है, प्राण का नाम अक्षर है और मनस्तत्व या चेतना की संज्ञा अव्यय है। इन्हीं तीन नरों की एकत्र स्थिति से मानवी चेतना का जन्म होता है उसे ही ऋषियों ने वैश्वानर अग्नि कहा है। 

 *पंद्रहवां अध्याय* -------------------------- 

पंद्रहवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने विश्व के अश्वत्थ रूप का वर्णन किया है। यह अश्वत्थ रूपी संसार महान विस्तार वाला है। वह ब्रह्म ही है एक ओर वह परम तेज, जो विश्वरूपी अश्वत्थ को जन्म देता है, सूर्य और चंद्र के रूप में प्रकट है। यह सृष्टि के द्विविरुद्ध रूप की कल्पना है, एक अच्छा और दूसरा बुरा। एक प्रकाश में, दूसरा अंधकार में। एक अमृत, दूसरा मर्त्य। एक सत्य, दूसरा अनृत। नर या पुरुष तीन हैं-क्षर, अक्षर और अव्यय। पंचभूतों का नाम क्षर है, प्राण का नाम अक्षर है और मनस्तत्व या चेतना की संज्ञा अव्यय है। इन्हीं तीन नरों की एकत्र स्थिति से मानवी चेतना का जन्म होता है उसे ही ऋषियों ने वैश्वानर अग्नि कहा है। 

 *सोलहवां अध्याय* ------------------------------ 

सोलहवें अध्याय में देवासुर संपत्ति का विभाग बताया गया है। आरंभ से ही ऋग्देव में सृष्टि की कल्पना देवी और आसुरी शक्तियों के रूप में की गई है। यह सृष्टि के द्विविरुद्ध रूप की कल्पना है, एक अच्छा और दूसरा बुरा। एक प्रकाश में, दूसरा अंधकार में। एक अमृत, दूसरा मर्त्य। एक सत्य, दूसरा अनृत। भगवान कृष्ण ने कहा की अनेक प्रकार की चिन्ताओं से भ्रमित होकर विषय-भोगों में आसक्त आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य नरक में जाते हैं। आसुरी स्वभाव वाले व्यक्ति स्वयं को ही श्रेष्ठ मानते हैं और वे बहुत ही घमंडी होते हैं। ऐसे मनुष्य धन और झूठी मान-प्रतिष्ठा के मद में लीन होकर केवल नाम-मात्र के लिये बिना किसी शास्त्र-विधि के घमण्ड के साथ यज्ञ करते हैं। आसुरी स्वभाव वाले ईष्यालु, क्रूरकर्मी और मनुष्यों में अधम होते हैं, ऐसे अधम मनुष्यों को मैं संसार रूपी सागर में निरन्तर आसुरी योनियों में ही गिराता रहता हूं ।

 *सत्रहवां अध्याय* ---------------------------- 

सत्रहवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि सत, रज और तम जिसमें इन तीन गुणों का प्रादुर्भाव होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा वैसी ही बन जाती है। इसका संबंध सत, रज और तम, इन तीन गुणों से ही है, अर्थात् जिसमें जिस गुण का प्रादुर्भाव होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा वैसी ही बन जाती है। यज्ञ, तप, दान, कर्म ये सब तीन प्रकार की श्रद्धा से संचालित होते हैं। यहाँ तक कि आहार भी तीन प्रकार का है। उनके भेद और लक्षण गीता ने यहाँ बताए हैं। जिस प्रकार यज्ञ से, तप से और दान से जो स्थिति प्राप्त होती है, उसे भी "सत्‌" ही कहा जाता है और उस परमात्मा की प्रसन्नता लिए जो भी कर्म किया जाता है वह भी निश्चित रूप से "सत्‌" ही कहा जाता है। बिना श्रद्धा के यज्ञ, दान और तप के रूप में जो कुछ भी सम्पन्न किया जाता है, वह सभी "असत्‌" कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस जन्म में लाभदायक होता है और न ही अगले जन्म में लाभदायक होता है।

 *अठारवां अध्याय* -----------------------------

 अठारवें अध्याय में गीता के समस्त उपदेशों का सार एवं उपसंहार है। जो बुद्धि धर्म-अधर्म, बंधन-मोक्ष, वृत्ति-निवृत्ति को ठीक से पहचानती है, वही सात्विकी बुद्धि है और वही मानव की सच्ची उपलब्धि है। पृथ्वी के मानवों में और स्वर्ग के देवताओं में कोई भी ऐसा नहीं जो प्रकृति के चलाए हुए इन तीन गुणों से बचा हो। मनुष्य को बहुत देख भालकर चलना आवश्यक है जिससे वह अपनी बुद्धि और वृत्ति को बुराई से बचा सके और क्या कार्य है, क्या अकार्य है, इसको पहचान सके। धर्म और अधर्म को, बंध और मोक्ष को, वृत्ति और निवृत्ति को जो बुद्धि ठीक से पहचनाती है, वही सात्विकी बुद्धि है और वही मानव की सच्ची उपलब्धि है। जो मनुष्य श्रद्धा पूर्वक इस गीताशास्त्र का पाठ और श्रवण करते हैं वे सभी पापों से मुक्त होकर श्रेष्ठ लोक को प्राप्त होते हैं।

सोमवार, 23 जून 2025

#योग के प्रकार महत्त्व एवं इनके द्वारा जीवन विकास

योग के प्रकार महत्त्व एवं इनके द्वारा जीवन विकास
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योग का वर्णन वेदों में, फिर उपनिषदों में और फिर गीता में मिलता है, लेकिन पतंजलि और गुरु गोरखनाथ ने योग के बिखरे हुए ज्ञान को व्यवस्थित रूप से लिपिबद्ध किया। योग हिन्दू धर्म के छह दर्शनों में से एक है। ये छह दर्शन हैं- 1.न्याय 2.वैशेषिक 3.मीमांसा 4.सांख्य 5.वेदांत और 6.योग। आओ जानते हैं योग के बारे में वह सब कुछ जो आप जानना चाहते हैं।

योग के मुख्य अंग:👉  यम, नियम, अंग संचालन, आसन, क्रिया, बंध, मुद्रा, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इसके अलावा योग के प्रकार, योगाभ्यास की बाधाएं, योग का इतिहास, योग के प्रमुख ग्रंथ।

योग के प्रकार:👉 1.राजयोग, 2.हठयोग, 3.लययोग, 4. ज्ञानयोग, 5.कर्मयोग और 6. भक्तियोग। इसके अलावा बहिरंग योग, नाद योग, मंत्र योग, तंत्र योग, कुंडलिनी योग, साधना योग, क्रिया योग, सहज योग, मुद्रायोग, और स्वरयोग आदि योग के अनेक आयामों की चर्चा की जाती है। लेकिन सभी उक्त छह में समाहित हैं।

1.पांच यम:👉 1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय, 4.ब्रह्मचर्य और 5.अपरिग्रह।

2.पांच नियम:👉  1.शौच, 2.संतोष, 3.तप, 4.स्वाध्याय और 5.ईश्वर प्राणिधान।

3.अंग संचालन:👉  1.शवासन, 2.मकरासन, 3.दंडासन और 4. नमस्कार मुद्रा में अंग संचालन किया जाता है जिसे सूक्ष्म व्यायाम कहते हैं। इसके अंतर्गत आंखें, कोहनी, घुटने, कमर, अंगुलियां, पंजे, मुंह आदि अंगों की एक्सरसाइज की जाती है।

4.प्रमुख बंध:👉  1.महाबंध, 2.मूलबंध, 3.जालन्धरबंध और 4.उड्डियान।

5.प्रमुख आसन:👉 किसी भी आसन की शुरुआत लेटकर अर्थात शवासन (चित्त लेटकर) और मकरासन (औंधा लेटकर) में और बैठकर अर्थात दंडासन और वज्रासन में, खड़े होकर अर्थात सावधान मुद्रा या नमस्कार मुद्रा से होती है। यहां सभी तरह के आसन के नाम दिए गए हैं।

1.सूर्यनमस्कार, 2.आकर्णधनुष्टंकारासन, 3.उत्कटासन, 4.उत्तान कुक्कुटासन, 5.उत्तानपादासन, 6.उपधानासन, 7.ऊर्ध्वताड़ासन, 8.एकपाद ग्रीवासन, 9.कटि उत्तानासन, 10.कन्धरासन, 11.कर्ण पीड़ासन, 12.कुक्कुटासन, 13.कुर्मासन, 14.कोणासन, 15.गरुड़ासन 16.गर्भासन, 17.गोमुखासन, 18.गोरक्षासन, 19.चक्रासन, 20.जानुशिरासन, 21.तोलांगुलासन 22.त्रिकोणासन, 23.दीर्घ नौकासन, 24.द्विचक्रिकासन, 25.द्विपादग्रीवासन, 26.ध्रुवासन 27.नटराजासन, 28.पक्ष्यासन, 29.पर्वतासन, 31.पशुविश्रामासन, 32.पादवृत्तासन 33.पादांगुष्टासन, 33.पादांगुष्ठनासास्पर्शासन, 35.पूर्ण मत्स्येन्द्रासन, 36.पॄष्ठतानासन 37.प्रसृतहस्त वृश्चिकासन, 38.बकासन, 39.बध्दपद्मासन, 40.बालासन, 41.ब्रह्मचर्यासन 42.भूनमनासन, 43.मंडूकासन, 44.मर्कटासन, 45.मार्जारासन, 46.योगनिद्रा, 47.योगमुद्रासन, 48.वातायनासन, 49.वृक्षासन, 50.वृश्चिकासन, 51.शंखासन, 52.शशकासन, 53.सिंहासन, 55.सिद्धासन, 56.सुप्त गर्भासन, 57.सेतुबंधासन, 58.स्कंधपादासन, 59.हस्तपादांगुष्ठासन, 60.भद्रासन, 61.शीर्षासन, 62.सूर्य नमस्कार, 63.कटिचक्रासन, 64.पादहस्तासन, 65.अर्धचन्द्रासन, 66.ताड़ासन, 67.पूर्णधनुरासन, 68.अर्धधनुरासन, 69.विपरीत नौकासन, 70.शलभासन, 71.भुजंगासन, 72.मकरासन, 73.पवन मुक्तासन, 74.नौकासन, 75.हलासन, 76.सर्वांगासन, 77.विपरीतकर्णी आसन, 78.शवासन, 79.मयूरासन, 80.ब्रह्म मुद्रा, 81.पश्चिमोत्तनासन, 82.उष्ट्रासन, 83.वक्रासन, 84.अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, 85.मत्स्यासन, 86.सुप्त-वज्रासन, 87.वज्रासन, 88.पद्मासन आदि।

6.जानिए प्राणायाम क्या है:-
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प्राणायाम के पंचक:👉 1.व्यान, 2.समान, 3.अपान, 4.उदान और 5.प्राण।

प्राणायाम के प्रकार:👉 1.पूरक, 2.कुम्भक और 3.रेचक। इसे ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्भक कहते हैं।

प्रमुख प्राणायाम:👉 1.नाड़ीशोधन, 2.भ्रस्त्रिका, 3.उज्जाई, 4.भ्रामरी, 5.कपालभाती, 6.केवली, 7.कुंभक, 8.दीर्घ, 9.शीतकारी, 10.शीतली, 11.मूर्छा, 12.सूर्यभेदन, 13.चंद्रभेदन, 14.प्रणव, 15.अग्निसार, 16.उद्गीथ, 17.नासाग्र, 18.प्लावनी, 19.शितायु आदि।

अन्य प्राणायाम:👉 1.अनुलोम-विलोम प्राणायाम, 2.अग्नि प्रदीप्त प्राणायाम, 3.अग्नि प्रसारण प्राणायाम, 4.एकांड स्तम्भ प्राणायाम, 5.सीत्कारी प्राणायाम, 6.सर्वद्वारबद्व प्राणायाम, 7.सर्वांग स्तम्भ प्राणायाम, 8.सम्त व्याहृति प्राणायाम, 9.चतुर्मुखी प्राणायाम, 10.प्रच्छर्दन प्राणायाम, 11.चन्द्रभेदन प्राणायाम, 12.यन्त्रगमन प्राणायाम, 13.वामरेचन प्राणायाम, 14.दक्षिण रेचन प्राणायाम, 15.शक्ति प्रयोग प्राणायाम, 16.त्रिबन्धरेचक प्राणायाम, 17.कपाल भाति प्राणायाम, 18.हृदय स्तम्भ प्राणायाम, 19.मध्य रेचन प्राणायाम, 20.त्रिबन्ध कुम्भक प्राणायाम, 21.ऊर्ध्वमुख भस्त्रिका प्राणायाम, 22.मुखपूरक कुम्भक प्राणायाम, 23.वायुवीय कुम्भक प्राणायाम, 
24.वक्षस्थल रेचन प्राणायाम, 25.दीर्घ श्वास-प्रश्वास प्राणायाम, 26.प्राह्याभ्न्वर कुम्भक प्राणायाम, 27.षन्मुखी रेचन प्राणायाम 28.कण्ठ वातउदा पूरक प्राणायाम, 29.सुख प्रसारण पूरक कुम्भक प्राणायाम, 30.नाड़ी शोधन प्राणायाम व नाड़ी अवरोध प्राणायाम आदि।

7.योग क्रियाएं जानिएं:-
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प्रमुख 13 क्रियाएं:👉 1.नेती- सूत्र नेति, घॄत नेति, 2.धौति- वमन धौति, वस्त्र धौति, दण्ड धौति, 3.गजकरणी, 4.बस्ती- जल बस्ति, 5.कुंजर, 6.न्यौली, 7.त्राटक, 8.कपालभाति, 9.धौंकनी, 10.गणेश क्रिया, 11.बाधी, 12.लघु शंख प्रक्षालन और 13.शंख प्रक्षालयन।

8.मुद्राएं कई हैं:-
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6 आसन मुद्राएं:👉 1.व्रक्त मुद्रा, 2.अश्विनी मुद्रा, 3.महामुद्रा, 4.योग मुद्रा, 5.विपरीत करणी मुद्रा, 6.शोभवनी मुद्रा।

पंच राजयोग मुद्राएं👉  1.चाचरी, 2.खेचरी, 3.भोचरी, 4.अगोचरी, 5.उन्न्युनी मुद्रा।

10 हस्त मुद्राएं:👉  उक्त के अलावा हस्त मुद्राओं में प्रमुख दस मुद्राओं का महत्व है जो निम्न है: -1.ज्ञान मुद्रा, 2.पृथवि मुद्रा, 3.वरुण मुद्रा, 4.वायु मुद्रा, 5.शून्य मुद्रा, 6.सूर्य मुद्रा, 7.प्राण मुद्रा, 8.लिंग मुद्रा, 9.अपान मुद्रा, 10.अपान वायु मुद्रा।

अन्य मुद्राएं :👉 1.सुरभी मुद्रा, 2.ब्रह्ममुद्रा, 3.अभयमुद्रा, 4.भूमि मुद्रा, 5.भूमि स्पर्शमुद्रा, 6.धर्मचक्रमुद्रा, 7.वज्रमुद्रा, 8.वितर्कमुद्रा, 8.जनाना मुद्रा, 10.कर्णमुद्रा, 11.शरणागतमुद्रा, 12.ध्यान मुद्रा, 13.सुची मुद्रा, 14.ओम मुद्रा, 15.जनाना और चीन मुद्रा, 16.अंगुलियां मुद्रा 17.महात्रिक मुद्रा, 18.कुबेर मुद्रा, 19.चीन मुद्रा, 20.वरद मुद्रा, 21.मकर मुद्रा, 22.शंख मुद्रा, 23.रुद्र मुद्रा, 24.पुष्पपूत मुद्रा, 25.वज्र मुद्रा, 26श्वांस मुद्रा, 27.हास्य बुद्धा मुद्रा, 28.योग मुद्रा, 29.गणेश मुद्रा 30.डॉयनेमिक मुद्रा, 31.मातंगी मुद्रा, 32.गरुड़ मुद्रा, 33.कुंडलिनी मुद्रा, 34.शिव लिंग मुद्रा, 35.ब्रह्मा मुद्रा, 36.मुकुल मुद्रा, 37.महर्षि मुद्रा, 38.योनी मुद्रा, 39.पुशन मुद्रा, 40.कालेश्वर मुद्रा, 41.गूढ़ मुद्रा, 42.मेरुदंड मुद्रा, 43.हाकिनी मुद्रा, 45.कमल मुद्रा, 46.पाचन मुद्रा, 47.विषहरण मुद्रा या निर्विषिकरण मुद्रा, 48.आकाश मुद्रा, 49.हृदय मुद्रा, 50.जाल मुद्रा आदि।

9.प्रत्याहार:👉  इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियां मनुष्य को बाहरी विषयों में उलझाए रखती है।। प्रत्याहार के अभ्यास से साधक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है। जैसे एक कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है उसी प्रकार प्रत्याहरी मनुष्य की स्थिति होती है। यम नियम, आसान, प्राणायाम को साधने से प्रत्याहार की स्थिति घटित होने लगती है।

10.धारणा:👉  चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है। प्रत्याहार के सधने से धारणा स्वत: ही घटित होती है। धारणा धारण किया हुआ चित्त कैसी भी धारणा या कल्पना करता है, तो वैसे ही घटित होने लगता है। यदि ऐसे व्यक्ति किसी एक कागज को हाथ में लेकर यह सोचे की यह जल जाए तो ऐसा हो जाता है।

11.ध्यान :👉  जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।

ध्यान के रूढ़ प्रकार:👉  स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान।

ध्यान विधियां:👉  श्वास ध्यान, साक्षी भाव, नासाग्र ध्यान, विपश्यना ध्यान आदि हजारों ध्यान विधियां हैं।

12.समाधि:👉  यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

समाधि की भी दो श्रेणियां हैं :👉  1.सम्प्रज्ञात और 2.असम्प्रज्ञात। 

सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है। इसे बौद्ध धर्म में संबोधि, जैन धर्म में केवल्य और हिन्दू धर्म में मोक्ष प्राप्त करना कहते हैं। इस सामान्य भाषा में मुक्ति कहते हैं।

पुराणों में मुक्ति के 6 प्रकार बताएं गए है जो इस प्रकार हैं-👉  1.साष्ट्रि, (ऐश्वर्य), 2.सालोक्य (लोक की प्राप्ति), 3.सारूप (ब्रह्मस्वरूप), 4.सामीप्य, (ब्रह्म के पास), 5.साम्य (ब्रह्म जैसी समानता) 6.लीनता या सायुज्य (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।

योगाभ्यास की बाधाएं:👉 आहार, प्रयास, प्रजल्प, नियमाग्रह, जनसंग और लौल्य। इसी को सामान्य भाषा में आहार अर्थात अतिभोजन, प्रयास अर्थात आसनों के साथ जोर-जबरदस्ती, प्रजल्प अर्थात अभ्यास का दिखावा, नियामाग्रह अर्थात योग करने के कड़े नियम बनाना, जनसंग अर्थात अधिक जनसंपर्क और अंत में लौल्य का मतलब शारीरिक और मानसिक चंचलता।

1.राजयोग:👉 यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह पतंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं। इन्हें अष्टांग योग भी कहा जाता है।

2.हठयोग:👉 षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि- ये हठयोग के सात अंग है, लेकिन हठयोगी का जोर आसन एवं कुंडलिनी जागृति के लिए आसन, बंध, मुद्रा और प्राणायम पर अधिक रहता है। यही क्रिया योग है।

3.लययोग:👉 यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उक्त आठ लययोग के अंग है।

4.ज्ञानयोग:👉 साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञान योग है। यही ध्यानयोग है।

5.कर्मयोग:👉 कर्म करना ही कर्म योग है। इसका उद्येश्य है कर्मों में कुशलता लाना। यही सहज योग है।

6.भक्तियोग :👉  भक्त श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रूप- इन नौ अंगों को नवधा भक्ति कहा जाता है। भक्ति योगानुसार व्यक्ति सालोक्य, सामीप्य, सारूप तथा सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त होता है, जिसे क्रमबद्ध मुक्ति कहा जाता है।

कुंडलिनी योग 👉 कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी में नाभि के निचले हिस्से में सोई हुई अवस्था में रहती है, जो ध्यान के गहराने के साथ ही सभी चक्रों से गुजरती हुई सहस्रार चक्र तक पहुंचती है। ये चक्र 7 होते हैं

मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार। 

72 हजार नाड़ियों में से प्रमुख रूप से तीन है: इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इड़ा और पिंगला नासिका के दोनों छिद्रों से जुड़ी है जबकि सुषुम्ना भ्रकुटी के बीच के स्थान से। स्वरयोग इड़ा और पिंगला के विषय में विस्तृत जानकारी देते हुए स्वरों को परिवर्तित करने, रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त करने के विषय में गहन मार्गदर्शन होता है। दोनों नासिका से सांस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है।

योग का संक्षिप्त इतिहास
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योग का उपदेश सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने सनकादिकों को, पश्चात विवस्वान (सूर्य) को दिया। बाद में यह दो शखाओं में विभक्त हो गया। एक ब्रह्मयोग और दूसरा कर्मयोग। ब्रह्मयोग की परम्परा सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु और पच्चंशिख नारद-शुकादिकों ने शुरू की थी। यह ब्रह्मयोग लोगों के बीच में ज्ञान, अध्यात्म और सांख्य योग नाम से प्रसिद्ध हुआ।

दूसरी कर्मयोग की परम्परा विवस्वान की है। विवस्वान ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को, इक्ष्वाकु ने राजर्षियों एवं प्रजाओं को योग का उपदेश दिया। उक्त सभी बातों का वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है। वेद को संसार की प्रथम पुस्तक माना जाता है जिसका उत्पत्ति काल लगभग 10000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। पुरातत्ववेत्ताओं अनुसार योग की उत्पत्ति 5000 ई.पू. में हुई। गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा।

भारतीय योग जानकारों के अनुसार योग की उत्पत्ति भारत में लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक समय पहले हुई थी। योग की सबसे आश्चर्यजनक खोज 1920 के शुरुआत में हुई। 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने ‘सिंधु सरस्वती सभ्यता’ को खोजा था जिसमें प्राचीन हिंदू धर्म और योग की परंपरा होने के सबूत मिलते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता को 3300-1700 बी.सी.ई. पूराना माना जाता है।

योग ग्रंथ योग सूत्र
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 वेद, उपनिषद्, भगवद गीता, हठ योग प्रदीपिका, योग दर्शन, शिव संहिता और विभिन्न तंत्र ग्रंथों में योग विद्या का उल्लेख मिलता है। सभी को आधार बनाकर पतंजलि ने योग सूत्र लिखा। योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यव्यवस्थित ग्रंथ है- 

योगसूत्र👉 योगसूत्र को पांतजलि ने 200 ई.पूर्व लिखा था। इस ग्रंथ पर अब तक हजारों भाष्य लिखे गए हैं, लेकिन कुछ खास भाष्यों का यहां उल्लेख लिखते हैं।

व्यास भाष्य👉 व्यास भाष्य का रचना काल 200-400 ईसा पूर्व का माना जाता है। महर्षि पतंजलि का ग्रंथ योग सूत्र योग की सभी विद्याओं का ठीक-ठीक संग्रह माना जाता है। इसी रचना पर व्यासजी के ‘व्यास भाष्य’ को योग सूत्र पर लिखा प्रथम प्रामाणिक भाष्य माना जाता है। व्यास द्वारा महर्षि पतंजलि के योग सूत्र पर दी गई विस्तृत लेकिन सुव्यवस्थित व्याख्या।

तत्त्ववैशारदी 👉 पतंजलि योगसूत्र के व्यास भाष्य के प्रामाणिक व्याख्याकार के रूप में वाचस्पति मिश्र का ‘तत्त्ववैशारदी’ प्रमुख ग्रंथ माना जाता है। वाचस्पति मिश्र ने योगसूत्र एवं व्यास भाष्य दोनों पर ही अपनी व्याख्या दी है। तत्त्ववैशारदी का रचना काल 841 ईसा पश्चात माना जाता है।

योगवार्तिक👉  विज्ञानभिक्षु का समय विद्वानों के द्वारा 16वीं शताब्दी के मध्य में माना जाता है। योगसूत्र पर महत्वपूर्ण व्याख्या विज्ञानभिक्षु की प्राप्त होती है जिसका नाम ‘योगवार्तिक’ है।

भोजवृत्ति👉  भोज के राज्य का समय 1075-1110 विक्रम संवत माना जाता है। धरेश्वर भोज के नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति ने योग सूत्र पर जो ‘भोजवृत्ति नामक ग्रंथ लिखा है वह भोजवृत्ति योगविद्वजनों के बीच समादरणीय एवं प्रसिद्ध माना जाता है। कुछ इतिहासकार इसे 16वीं सदी का ग्रंथ मानते हैं।

अष्टांग योग👉  इसी योग का सर्वाधिक प्रचलन और महत्व है। इसी योग को हम अष्टांग योग योग के नाम से जानते हैं। अष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। दरअसल पतंजल‍ि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में… श्रेणीबद्ध कर दिया है। लगभग 200 ईपू में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योग-सूत्र की रचना की। योग-सूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है।

यह आठ अंग हैं👉 (1)यम (2)नियम (3)आसन (4) प्राणायाम (5)प्रत्याहार (6)धारणा (7) ध्यान (8)समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।

योग सूत्र👉 200 ई.पू. रचित महर्षि पतंजलि का ‘योगसूत्र’ योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है। योगदर्शन इन चार विस्तृत भाग, जिन्हें इस ग्रंथ में पाद कहा गया है, में विभाजित है👉 समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद।

प्रथम पाद का मुख्य विषय चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है। द्वितीय पाद में पाँच बहिरंग साधन- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का विवेचन है।

तृतीय पाद में अंतरंग तीन धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ऋषि के अनुसार वे समाधि के मार्ग की बाधाएँ ही हैं।

चतुर्थ कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहाँ एक योग साधक अपने मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।

‌दूसरे ही सूत्र में योग की परिभाषा देते हुए पतंजलि कहते हैं- ‘योगाश्चित्त वृत्तिनिरोधः’। अर्थात योग चित्त की वृत्तियों का संयमन है। चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए महर्षि पतंजलि ने द्वितीय और तृतीय पाद में जिस अष्टांग योग साधन का उपदेश दिया है, उसका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है:-

‌ 1👉 यम: कायिक, वाचिक तथा मानसिक इस संयम के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय चोरी न करना, ब्रह्मचर्य जैसे अपरिग्रह आदि पाँच आचार विहित हैं। इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं।

‌2👉 नियम: मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों का विधान किया गया है। इनके अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान का समावेश है। शौच में बाह्य तथा आन्तर दोनों ही प्रकार के शुद्धि समाविष्ट है

3👉 आसन: पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे संबंधित ‘हठयोग प्रतीपिका’ ‘घरेण्ड संहिता’ तथा ‘योगाशिखोपनिषद्’ में विस्तार से वर्णन मिलता है।

4👉 प्राणायाम: योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।

5👉 प्रत्याहार: इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियाँ मनुष्य को बाह्यभिमुख किया करती हैं। प्रत्याहार के इस अभ्यास से साधक योग के लिए परम आवश्यक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है।

6👉 धारणा: चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है।

7👉 ध्यान: जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।

8👉 समाधि: यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं👉  सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।,

योग साधना द्वारा जीवन विकास
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योग का नाम सुनते ही कितने ही लोग चौंक उठते हैं उनकी निगाह में यह एक ऐसी चीज है जिसे लम्बी जटा वाला और मृग चर्मधारी साधु जंगलों या गुफाओं में किया करते हैं। इसलिये वे सोचते हैं कि ऐसी चीज से हमारा क्या सम्बन्ध? हम उसकी चर्चा ही क्यों करें?

पर ऐसे विचार इस विषय में उन्हीं लोगों के होते हैं जिन्होंने कभी इसे सोचने-विचारने का कष्ट नहीं किया। अन्यथा योग जीवन की एक सहज, स्वाभाविक अवस्था है जिसका उद्देश्य समस्त मानवीय इन्द्रियों और शक्तियों का उचित रूप से विकास करना और उनको एक नियम में चलाना है। इसीलिये योग शास्त्र में “चित्त वृत्तियों का निरोध” करना ही योग बतलाया गया है। गीता में ‘कर्म की कुशलता’ का नाम योग है तथा ‘सुख-दुख के विषय में समता की बुद्धि रखने’ को भी योग बतलाया गया है। इसलिये यह समझना कोरा भ्रम है कि समाधि चढ़ाकर, पृथ्वी में गड्ढा खोदकर बैठ जाना ही योग का लक्षण है। योग का उद्देश्य तो वही है जो योग शास्त्र में या गीता में बतलाया गया है। हाँ इस उद्देश्य को पूरा करने की विधियाँ अनेक हैं, उनमें से जिसको जो अपनी प्रकृति और रुचि के अनुकूल जान पड़े वह उसी को अपना सकता है। नीचे हम एक योग विद्या के ज्ञाता के लेख से कुछ ऐसा योगों का वर्णन करते हैं जिनका अभ्यास घर में रहते हुये और सब कामों को पूर्ववत् करते हुये अप्रत्यक्ष रीति से ही किया जा सकता है-

1. कैवल्य योग👉 कैवल्य स्थिति को योग शास्त्र में सबसे बड़ा माना गया है। दूसरों का आश्रय छोड़कर पूर्ण रूप से अपने ही आधार पर रहना और प्रत्येक विषय में अपनी शक्ति का अनुभव करना इसका ध्येय हैं। साधारण स्थिति में मनुष्य अपने सभी सुखों के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। यह एक प्रकार की पराधीनता है और पराधीनता में दुख होना आवश्यक है। इसलिये योगी सब दृष्टियों से पूर्ण स्वतंत्र होने की चेष्टा करते हैं। जो इस आदर्श के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाते हैं वे ही कैवल्य की स्थिति में अथवा मुक्तात्मा समझे जा सकते हैं। पर कुछ अंशों में इसका अभ्यास सब कोई कर सकते हैं और उसके अनुसार स्वाधीनता का सुख भी भोग सकते हैं।

2. सुषुप्ति योग👉 निद्रावस्था में भी मनुष्य एक प्रकार की समाधि का अनुभव कर सकता है। जिस समय निद्रा आने लगती है उस समय यदि पाठक अनुभव करने लगेंगे तो एक वर्ष के अभ्यास से उनको आत्मा के अस्तित्व को ज्ञान हो जायेगा। सोते समय जैसा विचार करके सोया जायगा उसका शरीर और मन पर प्रभाव अवश्य पड़ेगा। जिस व्यक्ति को कोई बीमारी रहती है वह यदि सोने के समय पूर्ण आरोग्य का विचार मन में लायेगा और “मैं बीमार नहीं हूँ।” ऐसे श्रेष्ठ संकल्प के साथ सोयेगा तो आगामी दिन से बीमारी दूर होने का अनुभव होने लगेगा। सुषुप्ति योग की एक विधि यह भी है कि निद्रा आने के समय जिसको जागृति और निद्रा संधि समय कहा जाता है, किसी उत्तम मंत्र का जप अर्थ का ध्यान रखते हुए करना और वैसे करते ही सो जाना। तो जब आप जगेंगे तो वह मंत्र आपको अपने मन में उसी प्रकार खड़ा मिलेगा। जब ऐसा होने लगे तब आप यह समझ लीजिये कि आप रात भर जप करते रहें। यह जप बिस्तरे पर सोते-सोते ही करना चाहिये और उस समय अन्य किसी बात को ध्यान मन में नहीं लाना चाहिये।

3. स्वप्न योग👉  स्वप्न मनुष्य को सदा ही आया करते हैं, उनमें से कुछ अच्छे होते हैं और कुछ खराब। इसका कारण हमारे शुभ और अशुभ विचार ही होते हैं। इसलिये आप सदैव श्रेष्ठ विचार और कार्य करके तथा सोते समय वैसा ही ध्यान करके उत्तम स्वप्न देख सकते हैं। इसके लिये जैसा आपका उद्देश्य हो वैसा ही विचार भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिये यदि आपकी इच्छा ब्रह्मचर्य पालन की हो तो भीष्म पितामह का ध्यान कीजिये, दृढ़ व्रत और सत्य प्रेम होना हो तो श्रीराम चंद्र की कल्पना कीजिये, बलवान बनने का ध्येय हो तो भीमसेन का अथवा हनुमान जी का स्मरण कीजिये। आप सोते समय जिसकी कल्पना और ध्यान करेंगे स्वप्न में आपको उसी विषय का अनुभव होता रहेगा।

4. बुद्धियोग👉  तर्क-वितर्क से परे और श्रद्धा-भक्ति से युक्त निश्चयात्मक ज्ञान धारक शक्ति का नाम ही बुद्धि है। ऐसी ही बुद्धि की साधना से योग की विलक्षण सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। यद्यपि अपने को आस्तिक मानने से आप परमेश्वर पर भरोसा रखते हैं, पर तर्क-युक्त बात ऐसे योग में काम नहीं देती। अपना अस्तित्व आप जिस प्रकार बिना किसी प्रमाण के मानते हैं, इसी प्रकार बिना किसी प्रमाण का ख्याल किये सर्व मंगलमय परमात्मा पर पूरा विश्वास रखने का प्रयत्न और अभ्यास करना चाहिए। जो लोग बुद्धि योग में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं उनको ऐसी ही तर्क रहित श्रद्धा उत्पन्न करनी चाहिए तभी आपको परमात्मा विषयक सच्चा आनन्द प्राप्त हो सकेगा।

5. चित्त योग👉 चिन्तन करने वाली शक्ति को चित्त कहते हैं। योग-साधना में जो आपका अभीष्ट है उसकी चिन्ता सदैव करते रहिये। अथवा अभ्यास करने के लिए प्रतिमास कोई अच्छा विचार चुन लीजिये। जैसे “मैं आत्मा हूँ और मैं शरीर से भिन्न हूँ।” इसका सदा ध्यान अथ

शनिवार, 29 मार्च 2025

संभोग ऊर्जा को ब्रह्मांडीय ऊर्जा में बदलने की विधियाँ,

यहाँ शिव-शक्ति, भैरव-भैरवी, और "संभोग से समाधि" की अवधारणा को विस्तार से देखते हैं, साथ ही संभोग ऊर्जा को बढ़ाने और उपयोग करने की विधियाँ भी बताऊँगा।


1. शिव-शक्ति और भैरव-भैरवी: मूल अवधारणा

  • शिव-शक्ति: भारतीय दर्शन में शिव चेतना (Consciousness) का प्रतीक हैं, जो स्थिर, शांत और अनंत हैं, जबकि शक्ति ऊर्जा (Energy) का प्रतीक हैं, जो गतिशील, सृजनात्मक और प्राणमयी हैं। इन दोनों का मिलन ही सृष्टि का आधार है।
  • भैरव-भैरवी: भैरव शिव का उग्र, तांत्रिक रूप हैं, जो भय का नाश करते हैं और चेतना को जागृत करते हैं। भैरवी शक्ति का वह रूप हैं, जो सृजन और संहार दोनों की शक्ति रखती हैं। यह जोड़ी तंत्र साधना में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह संभोग (संयोजन) और समाधि (अंतिम मुक्ति) के बीच सेतु बनाती है।
  • संभोग से समाधि: तंत्र में संभोग केवल शारीरिक क्रिया नहीं, बल्कि दो ऊर्जाओं (पुरुष और स्त्री, या शिव और शक्ति) का मिलन है, जो सूक्ष्म स्तर पर कुंडलिनी जागरण और आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है। यहाँ संभोग को एक साधना के रूप में देखा जाता है, जो समाधि तक पहुँचने का मार्ग बन सकता है।

2. तंत्र शास्त्र में संभोग से समाधि की विधियाँ

तंत्र ग्रंथों, जैसे विज्ञान भैरव तंत्र, में 112 ध्यान विधियाँ दी गई हैं, जिनमें से कुछ संभोग ऊर्जा को समाधि में परिवर्तित करने से संबंधित हैं। यहाँ कुछ प्रमुख विधियाँ और उनके सिद्धांत हैं:

(क) प्राणायाम और श्वास नियंत्रण

  • सिद्धांत: संभोग के दौरान श्वास तेज और अनियंत्रित हो जाती है, जिससे ऊर्जा निचले चक्रों (मूलाधार और स्वाधिष्ठान) में ही व्यय हो जाती है। प्राणायाम से इसे ऊपर की ओर (सहस्रार चक्र) ले जाया जा सकता है।
  • विधि:
    1. संभोग से पहले गहरी और मंद श्वास का अभ्यास करें।
    2. क्रिया के दौरान श्वास को पेट तक सीमित रखें, न कि छाती तक।
    3. चरमोत्कर्ष (Orgasm) के समय श्वास को रोकें और ध्यान को आज्ञा चक्र (भौंहों के बीच) पर केंद्रित करें।
  • प्रभाव: इससे संभोग ऊर्जा प्राण में बदलती है और मस्तिष्क में आनंद की अनुभूति बढ़ती है।

(ख) कुंडलिनी जागरण और चक्र ध्यान

  • सिद्धांत: संभोग ऊर्जा मूलाधार चक्र में उत्पन्न होती है। इसे सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से ऊपर ले जाकर समाधि की ओर निर्देशित किया जा सकता है।
  • विधि:
    1. संभोग से पहले मूल बंध (पेरिनियल मांसपेशियों को सिकोड़ना) का अभ्यास करें।
    2. क्रिया के दौरान कल्पना करें कि ऊर्जा रीढ़ के साथ ऊपर उठ रही है, प्रत्येक चक्र (स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, आदि) को सक्रिय करते हुए।
    3. चरमोत्कर्ष पर ऊर्जा को सहस्रार (सिर के शीर्ष) तक ले जाने का प्रयास करें।
  • प्रभाव: यह ऊर्जा का संरक्षण करता है और आध्यात्मिक आनंद में बदल देता है।

(ग) भैरवी चक्र और मैथुन साधना

  • सिद्धांत: भैरवी चक्र में संभोग को एक पवित्र अनुष्ठान माना जाता है, जिसमें साधक और साधिका एक-दूसरे को शिव और शक्ति के रूप में देखते हैं।
  • विधि:
    1. एक शांत, पवित्र स्थान चुनें और दीपक, धूप आदि से वातावरण तैयार करें।
    2. दोनों साथी ध्यान में बैठें और एक-दूसरे की आँखों में देखते हुए "ॐ नमः शिवाय" या "ॐ ह्रीं भैरवी नमः" का जाप करें।
    3. संभोग के दौरान शारीरिक आकर्षण से ऊपर उठकर ऊर्जा के मिलन पर ध्यान दें।
  • प्रभाव: यह संभोग को एक तांत्रिक साधना में बदल देता है, जो शारीरिक सुख से परे आनंद देता है।

(घ) विज्ञान भैरव तंत्र की विशिष्ट विधि

  • संदर्भ: विज्ञान भैरव तंत्र में एक सूत्र है- "संभोग के समय जब दोनों प्रेमियों की श्वास एक हो जाए, तब उस एकत्व में ध्यान लगाओ।"
  • विधि:
    1. संभोग के दौरान दोनों की श्वास को तालमेल में लाएँ।
    2. चरमोत्कर्ष के क्षण में विचारों को शून्य करें और केवल उस ऊर्जा को अनुभव करें।
    3. इस शून्यता में कुछ देर रहें।
  • प्रभाव: यह समाधि जैसी स्थिति उत्पन्न करता है, जहाँ "मैं" और "तू" का भेद मिट जाता है।

3. संभोग ऊर्जा का आनंद बढ़ाने की विधियाँ

संभोग ऊर्जा को केवल शारीरिक सुख तक सीमित न रखकर इसे सूक्ष्म और दीर्घकालिक आनंद में बदला जा सकता है। यहाँ कुछ व्यावहारिक तरीके हैं:

(क) संयम और जागरूकता

  • संभोग को जल्दबाजी में न करें। धीरे-धीरे आगे बढ़ें और हर स्पर्श, हर अनुभूति को जागरूकता से महसूस करें।
  • इससे ऊर्जा का व्यय कम होता है और आनंद गहरा होता है।

(ख) मंत्र और ध्वनि का उपयोग

  • संभोग से पहले या दौरान "ॐ", "ह्रीं", या "क्लीं" जैसे बीज मंत्रों का जाप करें।
  • ये ध्वनियाँ शरीर में कंपन पैदा करती हैं, जो ऊर्जा को बढ़ाती हैं और आनंद को तीव्र करती हैं।

(ग) इंद्रिय संतुलन

  • संभोग से पहले इंद्रियों को संतुलित करें- जैसे सुगंधित तेलों का प्रयोग, मंद संगीत, और सात्विक भोजन।
  • इससे मन शांत रहता है और ऊर्जा का अनुभव गहरा होता है।

(घ) भावनात्मक जुड़ाव

  • संभोग को केवल शारीरिक न मानें, बल्कि अपने साथी के प्रति प्रेम और सम्मान का भाव रखें।
  • यह ऊर्जा को हृदय चक्र तक ले जाता है, जिससे आनंद मानसिक और भावनात्मक स्तर पर भी बढ़ता है।

4. संभोग ऊर्जा का उपयोग

तंत्र में संभोग ऊर्जा को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग करने की कला सिखाई जाती है। यहाँ कुछ तरीके हैं:

(क) रचनात्मकता के लिए

  • संभोग के बाद उत्पन्न ऊर्जा को कला, लेखन, या किसी रचनात्मक कार्य में लगाएँ।
  • यह ऊर्जा स्वाधिष्ठान चक्र से जुड़ी है, जो रचनात्मकता का केंद्र है।

(ख) शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य

  • संभोग ऊर्जा को प्राणायाम और योग के माध्यम से शरीर में संचित करें।
  • इससे तनाव कम होता है, प्रतिरक्षा बढ़ती है, और मानसिक स्पष्टता आती है।

(ग) आध्यात्मिक उन्नति

  • इस ऊर्जा को ध्यान और कुंडलिनी साधना में लगाएँ।
  • यह चेतना को उच्च स्तर तक ले जा सकती है, जो समाधि की ओर एक कदम है।

(घ) जीवन शक्ति का संरक्षण

  • बार-बार ऊर्जा व्यय करने के बजाय इसे संयम के साथ उपयोग करें।
  • इससे जीवन में उत्साह, शक्ति और दीर्घायु बढ़ती है।

5. सावधानियाँ

  • गुरु मार्गदर्शन: तंत्र साधना में गलत विधि से भटकाव या हानि हो सकती है। किसी योग्य गुरु से मार्गदर्शन लें।
  • शुद्धता: मन, शरीर और वातावरण की शुद्धता आवश्यक है।
  • संतुलन: संभोग को साधना बनाने के लिए लालच या अति से बचें।

निष्कर्ष

शिव-शक्ति और भैरव-भैरवी का मिलन संभोग से समाधि तक की यात्रा का प्रतीक है। यह एक ऐसी कला है, जो शारीरिक सुख को आध्यात्मिक आनंद में बदल सकती है। प्राणायाम, चक्र ध्यान, मंत्र जाप और जागरूकता के साथ संभोग ऊर्जा को न केवल बढ़ाया जा सकता है, बल्कि इसे जीवन के हर क्षेत्र में उपयोग भी किया जा सकता है। यह तंत्र का वह विज्ञान है, जो हमें सिखाता है कि ऊर्जा न तो नष्ट होती है, न ही व्यर्थ होती है- इसे केवल रूपांतरित करना सीखना है।

 

तंत्र साधना में शिव-शक्ति और भैरव-भैरवी के माध्यम से संभोग से समाधि की ओर अग्रसर होने की विधियाँ वर्णित हैं। इनका उद्देश्य यौन ऊर्जा को आध्यात्मिक उन्नति के साधन के रूप में उपयोग करना है, जिससे व्यक्ति उच्च चेतना की अवस्था प्राप्त कर सके।

शिव-शक्ति तंत्र में संभोग से समाधि की विधि:

  1. आध्यात्मिक तैयारी: साधक और साधिका को मानसिक, शारीरिक, और भावनात्मक रूप से तैयार होना आवश्यक है। ध्यान, प्राणायाम, और योग के माध्यम से मन और शरीर की शुद्धि करें।

  2. संपर्क और समर्पण: साथी के साथ पूर्ण विश्वास और समर्पण की भावना विकसित करें। एक-दूसरे को बिना किसी अपेक्षा के स्वीकार करें और प्रेम को ऊर्जा के स्तर पर अनुभव करें।

  3. धीमी गति और ध्यान: संभोग को जल्दबाजी में न करें। धीरे-धीरे आगे बढ़ें और प्रत्येक क्षण को पूर्ण जागरूकता के साथ अनुभव करें। इसे ध्यान की तरह देखें, जहाँ कोई लक्ष्य नहीं होता, केवल वर्तमान क्षण का अनुभव होता है।

  4. श्वास का समन्वय: एक-दूसरे की सांसों को महसूस करें और उन्हें सिंक्रोनाइज़ करें। गहरी और धीमी सांस लें, जिससे ऊर्जा का प्रवाह संतुलित हो सके।

  5. ऊर्जा का उत्थान: उत्तेजना के चरम पर, ऊर्जा को मूलाधार चक्र से सहस्रार चक्र की ओर निर्देशित करने का प्रयास करें। यह कुंडलिनी ऊर्जा के जागरण में सहायक होता है और उच्च चेतना की अवस्था में ले जाता है।

भैरव-भैरवी साधना में संभोग से समाधि की विधि:

भैरव और भैरवी तंत्र में, साधक (भैरव) और साधिका (भैरवी) के बीच यौन मिलन को एक पवित्र अनुष्ठान माना जाता है, जहाँ ऊर्जा का आदान-प्रदान और संतुलन स्थापित किया जाता है।

  1. पवित्र स्थान का चयन: साधना के लिए एक शांत, स्वच्छ, और पवित्र स्थान चुनें, जहाँ बाहरी व्यवधान न हों।

  2. मंत्र जाप: संभोग के दौरान, विशेष मंत्रों का जाप करें जो ऊर्जा को जागृत करने और उसे उच्च स्तर पर ले जाने में सहायक होते हैं। उदाहरण के लिए, 'ॐ भैरवाय नमः' या 'ॐ भैरवीयै नमः' का जाप किया जा सकता है।

  3. त्राटक (नेत्र संपर्क): साथी की आँखों में गहराई से देखें, जिससे ऊर्जा का प्रवाह और मानसिक समन्वय बढ़े।

  4. ऊर्जा का संतुलन और विसर्जन: संभोग के अंत में, उत्पन्न हुई ऊर्जा को ध्यान के माध्यम से पूरे शरीर में फैलाएं और उसे संतुलित करें, जिससे आध्यात्मिक उन्नति हो सके।

संभोग ऊर्जा के आनंद और उपयोग को बढ़ाने के सुझाव:

  • आत्म-जागरूकता: अपने शरीर और मन की प्रतिक्रियाओं के प्रति सतर्क रहें। यह जागरूकता ऊर्जा के प्रवाह को समझने और उसे नियंत्रित करने में मदद करती है।

  • संचार: साथी के साथ खुले दिल से संवाद करें। अपनी भावनाओं, इच्छाओं, और सीमाओं को साझा करें, जिससे आपसी समझ और विश्वास बढ़े।

  • नियमित अभ्यास: तांत्रिक विधियों का नियमित अभ्यास करें, लेकिन बिना किसी दबाव या अपेक्षा के। समय के साथ, यह अभ्यास गहरे अनुभव और आनंद की ओर ले जाएगा।

  • शरीर के विभिन्न हिस्सों पर ध्यान दें: सिर्फ यौन अंगों पर नहीं, बल्कि पूरे शरीर को ऊर्जा का स्रोत मानें। विभिन्न चक्रों पर ध्यान केंद्रित करें और ऊर्जा के प्रवाह को महसूस करें।

     

    तांत्रिक सेक्स में मंत्र जाप की विधि:

    तांत्रिक सेक्स के दौरान मंत्र जाप का उद्देश्य ऊर्जा को जागृत करना और उसे उच्च चक्रों (ऊर्जा केंद्रों) की ओर निर्देशित करना है। निम्नलिखित चरणों में इस प्रक्रिया को समझा जा सकता है:

  • संतुलित श्वास (Breath Synchronization): साथी के साथ बैठकर गहरी और संतुलित श्वास लें। यह ऊर्जा के प्रवाह को संतुलित करता है और मन को शांत करता है।

  • मंत्र का चयन: संभोग से पहले, दोनों साथी एक विशेष मंत्र का चयन करें जो उनकी साधना के उद्देश्य से मेल खाता हो। उदाहरण के लिए, 'ॐ' या 'क्लीं' जैसे बीज मंत्रों का उपयोग किया जा सकता है।

  • मंत्र जाप: संभोग के दौरान, धीमी गति से मंत्र का जाप करें। यह जाप मानसिक या मौखिक हो सकता है। मंत्र की ध्वनि और कंपन ऊर्जा को जागृत करने में सहायक होती है।

  • ऊर्जा का संवेदन: मंत्र जाप के साथ-साथ, अपनी ऊर्जा को मूलाधार चक्र (Root Chakra) से सहस्रार चक्र (Crown Chakra) तक उठाने का प्रयास करें। यह ऊर्जा का उत्थान आध्यात्मिक जागरण में सहायक होता है।

देर तक संभोग करने के टिप्स:

तांत्रिक सेक्स में संभोग की अवधि को बढ़ाने के लिए निम्नलिखित सुझाव उपयोगी हो सकते हैं:

  1. धीमी गति (Slow Pace): जल्दबाजी न करें। धीरे-धीरे आगे बढ़ें और प्रत्येक क्षण का पूर्ण आनंद लें।

  2. श्वास नियंत्रण (Breath Control): गहरी और नियंत्रित श्वास लें। यह उत्तेजना को नियंत्रित करने में सहायक होता है।

  3. पोजीशन में बदलाव (Change Positions): समय-समय पर पोजीशन बदलें। इससे उत्तेजना का स्तर संतुलित रहता है और संभोग की अवधि बढ़ती है।

  4. पेल्विक मांसपेशियों का व्यायाम (Kegel Exercises): पेल्विक मांसपेशियों को मजबूत करने वाले व्यायाम करें। यह संभोग के दौरान नियंत्रण में सहायक होता है।

  5. मानसिक ध्यान (Mental Focus): ध्यान को संभोग से हटाकर अन्य विचारों पर केंद्रित करें। यह स्खलन में देरी करने में सहायक हो सकता है।

  6. ल्यूब्रिकेंट का उपयोग (Use of Lubricants): ल्यूब्रिकेंट का उपयोग करने से संभोग का अनुभव सुखद होता है और अवधि बढ़ाने में सहायता मिलती है।

महत्वपूर्ण सुझाव:

  • संचार (Communication): साथी के साथ अपनी भावनाओं और इच्छाओं के बारे में खुलकर बात करें। यह आपसी समझ और संतुष्टि को बढ़ाता है।

  • आत्म-जागरूकता (Self-Awareness): अपने शरीर और मन की प्रतिक्रियाओं के प्रति जागरूक रहें। यह तांत्रिक साधना में गहराई लाने में सहायक होता है।

  • नियमित अभ्यास (Regular Practice): तांत्रिक तकनीकों का नियमित अभ्यास करें। यह समय के साथ आपके अनुभव को समृद्ध करेगा।

निष्कर्ष:

तांत्रिक सेक्स और मंत्र जाप की विधियाँ शारीरिक और आध्यात्मिक जुड़ाव को गहरा करती हैं। इन तकनीकों का उद्देश्य केवल शारीरिक सुख नहीं, बल्कि ऊर्जा का उत्थान और आत्मिक संतुलन प्राप्त करना है। इनका अभ्यास सावधानीपूर्वक और समझदारी से करना चाहिए, ताकि जीवन में संतुलन और समृद्धि लाई जा सके।

 (Tantra Couple Intimacy) का चरण-दर-चरण मार्गदर्शन

1. मानसिक और भावनात्मक तैयारी

तंत्र केवल शारीरिक क्रिया नहीं है, बल्कि यह एक आध्यात्मिक और भावनात्मक जुड़ाव भी है।

साथी के साथ एक-दूसरे पर भरोसा बनाएँ और एक आरामदायक वातावरण तैयार करें।

धीमी गति से गहरी साँसें लें और अपने साथी के साथ आँखों में आँखें डालकर जुड़ाव महसूस करें।


2. पवित्र स्थान बनाना


एक शांत और सकारात्मक ऊर्जा वाला स्थान चुनें।

मोमबत्तियाँ, हल्की रोशनी, सुगंधित धूप और मन को शांत करने वाला संगीत जोड़ें।


3. ध्यान और साँस नियंत्रण


एक-दूसरे के सामने बैठें और आँखें बंद करके ध्यान लगाएँ।

सिंक्रनाइज़ (समान गति से) गहरी साँसें लें और ऊर्जा प्रवाह को महसूस करें।

यह अभ्यास आपकी आत्मीयता को गहराई देगा।


4. स्पर्श और ऊर्जा जागरण

अपने साथी के शरीर को धीरे-धीरे छूकर ऊर्जा बिंदुओं को जागृत करें।

शरीर के विभिन्न हिस्सों को हल्के और सम्मानजनक तरीके से स्पर्श करें।


5. योनिशक्ति (Sexual Energy) का प्रवाह


यौन क्रिया से पहले एक-दूसरे के शरीर को समझें और धीरे-धीरे अपने स्पर्श से प्रेम बढ़ाएँ।

तंत्र में केवल आनंद नहीं बल्कि ऊर्जा को संतुलित करना महत्वपूर्ण होता है।


6. धीमी और गहरी यौन क्रिया


तंत्र सेक्स में जल्दबाजी नहीं होती, बल्कि धीमे और ध्यानपूर्वक आगे बढ़ा जाता है।

साँसों और शरीर की गति को संतुलित रखें।

प्रेम और एकता की भावना बनाए रखते हुए पूरी प्रक्रिया में समर्पित रहें।


7. चरमोत्कर्ष से परे जुड़ाव

तंत्र सेक्स केवल शारीरिक आनंद तक सीमित नहीं होता, बल्कि आत्मा का गहरा जुड़ाव होता है।

चरमोत्कर्ष (Orgasm) के बाद भी साथी के साथ जुड़े रहें और ऊर्जा को महसूस करें।


महत्वपूर्ण टिप्स

✔ जल्दबाजी न करें: तंत्र सेक्स धीरे-धीरे करने से अधिक आनंददायक होता है।
✔ संचार करें: साथी से खुले दिल से संवाद करें और अपनी भावनाओं को साझा करें।
✔ आत्म-जागरूकता बढ़ाएँ: केवल शरीर ही नहीं, मन और आत्मा का भी संबंध महत्वपूर्ण है।

 

प्रेम और संभोग में ध्यान (Tantric Love & Intimacy) - गहराई से समझें

ओशो के अनुसार, तंत्र का अर्थ केवल शारीरिक संबंधों से नहीं है, बल्कि यह प्रेम और ऊर्जा के उच्चतम स्तर पर पहुँचने की विधि है। तंत्र में संभोग को ध्यान (Meditation) की तरह देखा जाता है, जहाँ कोई जल्दबाजी नहीं होती, कोई लक्ष्य नहीं होता, और कोई अपराधबोध नहीं होता। यह एक गहरी ऊर्जा यात्रा है, जहाँ दो प्रेमी (या स्वयं भी) अपनी ऊर्जा को संपूर्ण रूप से जागरूक होकर अनुभव करते हैं।

A. तंत्र में प्रेम (Tantric Love) का सही अर्थ

आम प्रेम में आकर्षण, वासना, स्वार्थ और अपेक्षाएँ हो सकती हैं। लेकिन तंत्र प्रेम में कोई अपेक्षा नहीं होती—यह बस एक ऊर्जा प्रवाह है, एक समर्पण है।
➡ कैसे करें?

अपने साथी को बिना किसी शर्त के स्वीकार करें।

साथी के साथ समय बिताते हुए, सिर्फ "होना" सीखें, बिना किसी लक्ष्य के।

प्रेम को केवल भौतिक नहीं, बल्कि ऊर्जा और आत्मिक स्तर पर अनुभव करें।



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B. तंत्र में संभोग (Tantric Intimacy) का सही अर्थ

आम संभोग जल्दी खत्म हो जाता है और अक्सर अधूरापन छोड़ देता है। तंत्र कहता है कि जब प्रेम पूरी तरह से ध्यान में बदल जाता है, तो संभोग केवल शारीरिक क्रिया नहीं रहता, यह एक ऊर्जा ध्यान बन जाता है।

➡ कैसे करें?

1. धीरे करें, जल्दबाजी न करें

आम संभोग में जल्दबाजी होती है, लेकिन तंत्र में आपको धीमा होना है।

प्रक्रिया का आनंद लें, इसे खत्म करने की कोशिश न करें।

तंत्र में संभोग घंटों तक बिना किसी जल्दबाजी के चल सकता है।



2. नेत्र संपर्क (Eye Gazing) करें

अपने साथी की आँखों में बिना पलक झपकाए देखें।

इसमें गहरी ऊर्जा महसूस करें, प्रेम को आँखों से बहने दें।



3. श्वास (Breathing) का उपयोग करें

एक-दूसरे की सांसों को महसूस करें।

एक-दूसरे के साथ अपनी सांसों को सिंक्रोनाइज़ (Synchronize) करें।

गहरी और धीमी सांस लें, इसे फेफड़ों तक महसूस करें।



4. शरीर को पूरी तरह से महसूस करें

सिर्फ शारीरिक उत्तेजना पर ध्यान न दें, बल्कि पूरे शरीर को एक ऊर्जा स्रोत मानें।

शरीर के हर हिस्से पर ध्यान दें, विशेषकर हृदय (Heart Chakra) और पेट (Sacral Chakra) क्षेत्र पर।



5. ऊर्जा (Energy) को ऊपर ले जाएँ

सामान्य संभोग में ऊर्जा जांघों (Lower Chakras) में रह जाती है, लेकिन तंत्र इसे सिर तक (Crown Chakra) ले जाने की विधि है।

इसे करने के लिए, जब आप उत्तेजना महसूस करें, तो गहरी सांस लें और ऊर्जा को अपने सिर तक महसूस करें।


C. तंत्र और आध्यात्मिक जागरण (Spiritual Awakening)

अगर सही तरीके से किया जाए, तो तंत्र केवल प्रेम और संभोग तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह आत्मज्ञान (Self-Realization) की ओर ले जाता है।

➡ कैसे समझें?

जब आप प्रेम या संभोग को ध्यान से करने लगते हैं, तो यह सिर्फ शरीर की क्रिया नहीं रहती, यह ऊर्जा का विस्तार बन जाती है।

यह आपको शरीर से परे जाने में मदद करता है, जिससे आप अस्तित्व के साथ एक महसूस करने लगते हैं।

यह ध्यान के गहरे स्तर पर ले जाता है, जहाँ व्यक्ति "समर्पण (Surrender)" को अनुभव करता है।


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निष्कर्ष (Conclusion)

ओशो का तंत्र संभोग को ध्यान और ऊर्जा की ऊँचाई तक ले जाने की विधि है। इसमें प्रेम को बिना किसी अपेक्षा के अनुभव किया जाता है, और ऊर्जा को पूरे शरीर में प्रवाहित करने की विधि सिखाई जाती है।

याद रखें:
✔ तंत्र कोई तकनीक नहीं, बल्कि एक जागरूकता (Awareness) है।
✔ संभोग का उद्देश्य चरमोत्कर्ष (Orgasm) नहीं, बल्कि ऊर्जा का विस्तार (Energy Expansion) है।
✔ प्रेम केवल शारीरिक नहीं, बल्कि आत्मिक भी होना चाहिए।
✔ इसे धीरे-धीरे अभ्यास करें, जल्दबाजी न करें।

 

जब यौन ऊर्जा अत्यधिक सक्रिय हो और यह असुविधा या विचलन का कारण बने, तो इसे संतुलित करने और शरीर में पुनर्निर्देशित करने के लिए विभिन्न योगिक, एक्यूप्रेशर, और चिकित्सीय उपाय अपनाए जा सकते हैं। नीचे कुछ प्रभावी तकनीकों का विवरण प्रस्तुत है:

1. योगिक उपाय

(A) प्राणायाम (श्वास नियंत्रण):

  • नाड़ी शोधन प्राणायाम (वैकल्पिक नासिका श्वास):

    • विधि: आरामदायक मुद्रा में बैठें। दाहिने हाथ के अंगूठे से दाहिनी नासिका बंद करें और बाईं नासिका से श्वास लें। फिर दाहिनी नासिका खोलें और बाईं नासिका बंद करके श्वास छोड़ें। इस प्रक्रिया को विपरीत क्रम में दोहराएं।

    • लाभ: यह प्राणायाम मानसिक शांति प्रदान करता है, ऊर्जा संतुलन में मदद करता है, और यौन ऊर्जा को नियंत्रित करने में सहायक है।

  • शीतली प्राणायाम:

    • विधि: जीभ को नली के आकार में मोड़ें और मुंह से श्वास लें। फिर नाक से श्वास छोड़ें। इसे 5-10 बार दोहराएं।

    • लाभ: यह प्राणायाम शरीर को शीतलता प्रदान करता है, मानसिक शांति बढ़ाता है, और उत्तेजना को कम करने में मदद करता है।

(B) आसन:

  • सर्वांगासन (कंधा खड़ा):

    • विधि: पीठ के बल लेटें, पैरों को ऊपर उठाएं, और हाथों से कमर को सहारा दें, जिससे पूरा शरीर कंधों पर संतुलित हो।

    • लाभ: यह आसन रक्त परिसंचरण में सुधार करता है, मन को शांत करता है, और यौन ऊर्जा को संतुलित करने में सहायक है।

  • पश्चिमोत्तानासन (बैठकर आगे की ओर झुकना):

    • विधि: पैरों को सीधा करके बैठें, श्वास लें, और फिर श्वास छोड़ते हुए आगे की ओर झुकें, हाथों से पैरों को पकड़ने का प्रयास करें।

    • लाभ: यह आसन मन को शांत करता है, नसों को शिथिल करता है, और यौन ऊर्जा को नियंत्रित करने में मदद करता है।

2. मुद्राएँ

  • अश्विनी मुद्रा:

    • विधि: आरामदायक स्थिति में बैठें। गुदा की मांसपेशियों को संकुचित करें (जैसे मल त्याग को रोकना) और फिर शिथिल करें। इसे 10-15 बार दोहराएं।

    • लाभ: यह मुद्रा पेल्विक फ्लोर की मांसपेशियों को मजबूत करती है, ऊर्जा को ऊपर की ओर निर्देशित करती है, और यौन ऊर्जा के संतुलन में मदद करती है।

  • मूलबंध:

    • विधि: गुदा, मूत्रमार्ग, और जननांगों की मांसपेशियों को एक साथ संकुचित करें और कुछ सेकंड के लिए रोकें, फिर शिथिल करें। इसे 10-15 बार दोहराएं।

    • लाभ: यह बंध ऊर्जा को जागृत करता है, उसे ऊपर की ओर निर्देशित करता है, और यौन ऊर्जा को नियंत्रित करने में सहायक है।

3. एक्यूप्रेशर उपाय

  • रिन 6 (Ren 6) बिंदु:

    • स्थान: नाभि से लगभग 1.5 इंच नीचे।

    • विधि: इस बिंदु पर हल्का दबाव डालें और गोलाकार गति में मालिश करें। इसे 2-3 मिनट तक करें।

    • लाभ: यह बिंदु जीवन ऊर्जा को बढ़ाता है, यौन ऊर्जा को संतुलित करता है, और मानसिक शांति प्रदान करता है।

  • स्प्लीन 6 (Spleen 6) बिंदु:

    • स्थान: टखने के अंदरूनी हिस्से से लगभग 3 इंच ऊपर, पिंडली की हड्डी के पीछे।

    • विधि: इस बिंदु पर हल्का दबाव डालें और गोलाकार गति में मालिश करें। इसे 2-3 मिनट तक करें।

    • लाभ: यह बिंदु पेल्विक क्षेत्र में रक्त परिसंचरण में सुधार करता है, यौन ऊर्जा को संतुलित करता है, और मानसिक शांति में मदद करता है।

4. चिकित्सीय उपाय

  • ध्यान (मेडिटेशन):

    • विधि: एक शांत स्थान पर बैठें, आंखें बंद करें, और अपनी श्वास पर ध्यान केंद्रित करें। मन में उत्पन्न विचारों को बिना प्रतिक्रिया के आने और जाने दें।

    • लाभ: ध्यान मानसिक शांति बढ़ाता है, उत्तेजना को कम करता है, और यौन ऊर्जा को नियंत्रित करने में सहायक है।

  • शीतल स्नान:

    • विधि: ठंडे पानी से स्नान करें या ठंडे पानी में पैरों को डुबोकर बैठें।

    • लाभ: यह शरीर की गर्मी को कम करता है, उत्तेजना को शांत करता है, और यौन ऊर्जा को संतुलित करने में मदद करता है।

  • आहार नियंत्रण:

    • विधि: मसालेदार, तैलीय, और भारी खाद्य पदार्थों से बचें। ताजे फल, सब्जियाँ, और हल्के आहार का सेवन करें।

    • लाभ: यह शरीर की ऊर्जा को संतुलित करता है, मानसिक शांति बढ़ाता है, और यौन ऊर्जा को नियंत्रित करने में सहायक है।

इन उपायों का नियमित अभ्यास यौन ऊर्जा को संतुलित करने, मानसिक शांति बढ़ाने, और जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने में मदद करता है। यदि समस्या बनी रहती है या बढ़ती है, तो किसी योग्य स्वास्थ्य विशेषज्ञ से परामर्श करना उचित होगा।

संभोग के समय ऊर्जा को रूपांतरित करने के लिए योग मुद्रा और एक्यूपंक्चर पॉइंट्स

संभोग को केवल एक भौतिक क्रिया न मानकर यदि इसे एक ऊर्जात्मक साधना के रूप में देखा जाए, तो इसका लाभ शरीर, मन और आत्मा के स्तर पर प्राप्त किया जा सकता है। तंत्र, योग और एक्यूपंक्चर के अनुसार, सही योग मुद्राओं और ऊर्जा बिंदुओं को सक्रिय करने से संभोग ऊर्जा को ब्रह्मांडीय ऊर्जा में रूपांतरित किया जा सकता है।


1. संभोग के समय उपयुक्त योग मुद्राएँ (Sexual Yoga Postures)

योग में कुछ विशेष मुद्राएँ (Postures) हैं, जो संभोग ऊर्जा को ऊपर की ओर प्रवाहित कर सकती हैं और कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत कर सकती हैं।

(A) योनि मुद्रा (Yoni Mudra)

👉 विधि:

  • संभोग के दौरान पति-पत्नी दोनों अपनी हथेलियों को जोड़कर ध्यान मुद्रा में रखें।

  • श्वास को गहरा लें और नाभि पर ध्यान केंद्रित करें।

  • इससे शरीर में ऊर्जा का संचय होता है और संभोग ऊर्जा ब्रह्मांडीय ऊर्जा में बदलने लगती है।

(B) मूलबंध (Mula Bandha) – ऊर्जा को ऊपर उठाने के लिए

👉 विधि:

  • संभोग के दौरान मूलाधार चक्र (Root Chakra) को सक्रिय करने के लिए गुदा और जननेंद्रिय की मांसपेशियों को संकुचित करें।

  • इसे "मूलबंध" कहा जाता है, जिससे वीर्य या यौन ऊर्जा बाहर न गिरकर ऊपर की ओर प्रवाहित होती है।

  • यह योग मुद्रा संभोग ऊर्जा को सहस्रार चक्र (Crown Chakra) तक पहुंचाने में सहायक होती है।

(C) वज्रासन (Vajrasana) – संभोग के बाद ऊर्जा संतुलन के लिए

👉 विधि:

  • संभोग के बाद दोनों को वज्रासन में बैठना चाहिए।

  • यह मुद्रा शरीर में प्राणशक्ति (Vital Energy) को संतुलित करती है और मन को शांत रखती है।

  • इसमें ध्यान के साथ ओम मंत्र का जाप करने से ऊर्जा का रूपांतरण होता है।


2. एक्यूपंक्चर और प्रेशर पॉइंट्स (Acupressure Points)

तंत्र और एक्यूपंक्चर के अनुसार, शरीर में कुछ विशिष्ट बिंदु (Acupoints) ऐसे होते हैं, जिन पर दबाव देने से संभोग ऊर्जा को नियंत्रित किया जा सकता है।

(A) ह्वी-यिन पॉइंट (Hui Yin Point) – पेरिनियम बिंदु

👉 स्थान:

  • यह पॉइंट गुदा (Anus) और जननेंद्रिय (Genitals) के बीच स्थित होता है।

  • इसे "GV-1" या "Hui Yin" कहा जाता है।

👉 ऊर्जा रूपांतरण के लिए विधि:

  • संभोग के दौरान इस बिंदु पर हल्का दबाव देने से मूलाधार चक्र जाग्रत होता है और वीर्य की हानि रोकी जा सकती है।

  • इसे दबाने से शरीर की ऊर्जा का प्रवाह ऊर्ध्वगामी हो जाता है।

  • तिब्बती और चीनी तंत्रों में इसे 'अमरत्व बिंदु' (Immortality Point) कहा जाता है।


(B) किडनी-1 पॉइंट (Kidney-1 or Yong Quan) – जीवन ऊर्जा केंद्र

👉 स्थान:

  • यह पॉइंट पैर के तलवे के बीच स्थित होता है।

  • इसे "Yong Quan" भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है "जीवन का फव्वारा" (Fountain of Life)।

👉 ऊर्जा रूपांतरण के लिए विधि:

  • संभोग के दौरान इस पॉइंट पर हल्की मसाज करने से ऊर्जा जाग्रत होती है।

  • यह पॉइंट विशेष रूप से पुरुषों में यौन ऊर्जा को ब्रह्मचर्य ऊर्जा में बदलने में मदद करता है।

  • यह ऊर्जा को सिर तक पहुंचाने में सहायक होता है।


(C) तीसरी आंख का पॉइंट (Third Eye Point - GV-24.5)

👉 स्थान:

  • यह पॉइंट दोनों आंखों के बीच माथे के बीचों-बीच स्थित होता है।

  • इसे "आज्ञा चक्र" (Ajna Chakra) भी कहा जाता है।

👉 ऊर्जा रूपांतरण के लिए विधि:

  • संभोग के दौरान या चरमसुख (Orgasm) के समय इस बिंदु को हल्के से दबाने से ऊर्जा सहस्रार चक्र की ओर बढ़ती है।

  • इससे संभोग केवल शारीरिक नहीं रहता, बल्कि आध्यात्मिक अनुभव में बदल जाता है।


3. विशेष तांत्रिक विधि – वीर्य संरक्षण और ओजस वृद्धि

संभोग के दौरान यदि ऊर्जा को सही दिशा में प्रवाहित किया जाए, तो यह ओजस (Ojas) में परिवर्तित होकर व्यक्ति को बलशाली और तेजस्वी बना सकती है।

✅ संभोग के समय मूलबंध (Mula Bandha) और ऊर्जा बिंदुओं पर दबाव देने से वीर्य ऊर्जा बाहर नष्ट नहीं होती।
शिव-शक्ति ध्यान (Shiva-Shakti Meditation) से संभोग ऊर्जा का रूपांतरण संभव है।
✅ संभोग के बाद ध्यान मुद्रा में बैठकर ‘सोहम’ या ‘ओम’ मंत्र का जाप करने से ऊर्जा को ब्रह्मांडीय स्तर पर भेजा जा सकता है।


💡 निष्कर्ष

✅ संभोग केवल एक शारीरिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि आध्यात्मिक रूपांतरण का साधन बन सकता है।
मूलबंध, योनि मुद्रा और वज्रासन से संभोग ऊर्जा को सहस्रार चक्र तक ले जाया जा सकता है।
ह्वी-यिन पॉइंट (GV-1), किडनी-1 पॉइंट और थर्ड आई पॉइंट को दबाने से संभोग ऊर्जा का सही उपयोग संभव है।
✅ वीर्य शक्ति को संरक्षित करके इसे ओजस में बदला जा सकता है, जिससे व्यक्ति तेजस्वी और ऊर्जावान बनता है।

"संभोग ऊर्जा को जाग्रत करके आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया जा सकता है।" – तंत्र सिद्धांत

 

संभोग ऊर्जा (Sexual Energy) एक अत्यंत शक्तिशाली जीवन-ऊर्जा (Vital Energy) है, जिसे सही दिशा में प्रयोग करके आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं। तंत्र, वेद और आधुनिक विज्ञान तीनों इस विषय पर अलग-अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, लेकिन इनका मूल उद्देश्य संभोग ऊर्जा को केवल भौतिक सुख तक सीमित न रखकर उसे उच्च चेतना (Higher Consciousness) और ब्रह्मांडीय ऊर्जा (Cosmic Energy) से जोड़ना होता है।


1. तांत्रिक दृष्टिकोण (Tantric Perspective)

तंत्रशास्त्र में संभोग को केवल भौतिक क्रिया न मानकर आध्यात्मिक साधना (Spiritual Practice) की तरह देखा जाता है। यह ऊर्जा के संतुलन, कुंडलिनी जागरण (Kundalini Awakening), और ब्रह्मांडीय चेतना से जुड़ने का एक माध्यम हो सकता है।

तंत्र में संभोग ऊर्जा के सकारात्मक उपयोग के तरीके

मैथुन को एक साधना बनाना – पति-पत्नी के बीच प्रेम और श्रद्धा होनी चाहिए। वासना की बजाय इसे शक्ति जागरण का साधन बनाएं।
शरीर में ऊर्जा प्रवाह को नियंत्रित करना – ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल संभोग न करना नहीं, बल्कि ऊर्जा को सही दिशा में ले जाना है। संभोग के समय मंत्रोच्चारण, विशेष मुद्रा (यौन योगासन), और चक्र ध्यान (Chakra Meditation) करके ऊर्जा को सहस्रार चक्र (Crown Chakra) तक ले जाया जा सकता है।
काम-क्रिया को कुंडलिनी जागरण से जोड़ना – यदि संभोग ऊर्जा को उचित साधना के माध्यम से सहस्रार तक पहुंचाया जाए तो यह आत्मबोध (Self-Realization) की ओर ले जा सकता है।

महत्त्वपूर्ण तांत्रिक धारणा: तंत्र में "मैथुन साधना" (Maithuna Sadhana) का उल्लेख मिलता है, जिसमें संभोग को समाधि की तरह माना गया है। यदि यह बिना वासना और केवल आध्यात्मिक उद्देश्य से किया जाए, तो इसे ‘दिव्य योग’ कहा जाता है।


2. वैदिक दृष्टिकोण (Vedic Perspective)

वेदों और उपनिषदों में संभोग को केवल प्रजनन (Procreation) तक सीमित नहीं रखा गया, बल्कि इसे आध्यात्मिक विकास (Spiritual Growth) और यज्ञ (Sacred Ritual) की तरह देखा गया है।

वैदिक दृष्टिकोण में संभोग ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग

गर्भाधान संस्कार (Garbhadhana Sanskar) – वैदिक परंपरा में संभोग को एक संस्कार माना गया, जिसमें संतान को दिव्य ऊर्जा से संपन्न करने हेतु विशेष मंत्रों का जाप किया जाता है।
संभोग को ब्रह्मचर्य के रूप में अपनाना – ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल स्त्री-पुरुष संबंधों से बचना नहीं, बल्कि अपनी ऊर्जा को नियंत्रित करके उच्चतर चेतना में परिवर्तित करना है।
ओजस वर्धन और ऊर्जा संतुलन – वेदों में कहा गया है कि वीर्य (Semen) और रज (Egg) का सही उपयोग न होने पर यह ऊर्जा नष्ट हो सकती है। योग और प्राणायाम द्वारा इसे ओजस (Ojas) में बदला जा सकता है।

ऋग्वेद (Rigveda) में कहा गया है कि जो व्यक्ति संभोग ऊर्जा को संयमित करके उसे ब्रह्मांडीय चेतना से जोड़ता है, वह जीवन में तेजस्वी बनता है।


3. वैज्ञानिक दृष्टिकोण (Scientific Perspective)

आधुनिक विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करता है कि संभोग केवल जैविक क्रिया नहीं है, बल्कि यह मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक स्तर पर भी प्रभाव डालता है।

संभोग ऊर्जा और मस्तिष्क पर प्रभाव

ऑक्सिटोसिन और डोपामिन हार्मोन का स्राव – संभोग के दौरान शरीर में ऑक्सिटोसिन (Oxytocin) और डोपामिन (Dopamine) जैसे हार्मोन रिलीज होते हैं, जो मानसिक शांति और सकारात्मकता लाते हैं।
माइंडफुल सेक्स (Mindful Sex) – आधुनिक न्यूरोसाइंस में माइंडफुलनेस (Mindfulness) को संभोग से जोड़ा गया है। यदि संभोग के दौरान व्यक्ति पूरी तरह से वर्तमान क्षण में रहता है, तो उसका मस्तिष्क उच्च कंपन (Higher Frequency) उत्पन्न करता है।
ऊर्जा संतुलन और नाड़ी विज्ञान – विज्ञान के अनुसार, संभोग के दौरान स्पाइनल कॉर्ड (Spinal Cord) से ऊर्जा पूरे शरीर में प्रवाहित होती है। यदि इस ऊर्जा को नियंत्रित किया जाए, तो यह न केवल स्वास्थ्य को बेहतर बनाती है, बल्कि मानसिक संतुलन भी बनाए रखती है।

डॉ. विल्हेम रीच (Dr. Wilhelm Reich) नामक वैज्ञानिक ने ‘ऑर्गोन एनर्जी’ (Orgone Energy) की खोज की थी, जिससे यह साबित हुआ कि संभोग ऊर्जा को ब्रह्मांडीय ऊर्जा में बदला जा सकता है।


संभोग ऊर्जा को ब्रह्मांडीय ऊर्जा में बदलने की विधियाँ

संभोग ऊर्जा को ब्रह्मांडीय ऊर्जा से जोड़ने के लिए निम्नलिखित साधन अपनाए जा सकते हैं:

  1. यौन ध्यान (Sexual Meditation) – संभोग के दौरान सांसों पर ध्यान दें और ऊर्जा को मूलाधार से सहस्रार चक्र तक प्रवाहित करें।

  2. मंत्र जाप (Mantra Chanting) – संभोग के समय शिव-पार्वती या राधा-कृष्ण से संबंधित मंत्रों का जाप करने से ऊर्जा शुद्ध होती है।

  3. योग और प्राणायाम (Yoga & Pranayama) – कपालभाति, नाड़ी शोधन और महामुद्रा योग द्वारा वीर्य शक्ति को ओजस में बदला जा सकता है।

  4. संभोग के बाद ध्यान (Meditation after Sex) – संभोग के पश्चात 10-15 मिनट ध्यान करने से ऊर्जा का सही उपयोग होता है।

  5. संयमित संभोग (Controlled Intercourse) – बार-बार वीर्यपात से शरीर कमजोर हो सकता है। इसलिए "अष्टांग योग" में वर्णित "ब्रह्मचर्य" का पालन आवश्यक है।


निष्कर्ष (Conclusion)

संभोग केवल भौतिक सुख प्राप्त करने का साधन नहीं, बल्कि इसे तांत्रिक, वैदिक और वैज्ञानिक रूप से एक शक्तिशाली ऊर्जा के रूप में देखा जाता है। यदि इसे सही दिशा में नियंत्रित किया जाए, तो व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से ऊँचे स्तर तक पहुंच सकता है।

💡 प्रमुख बातें:
✔ तंत्र कहता है कि संभोग ऊर्जा से कुंडलिनी जागरण हो सकता है।
✔ वेदों में संभोग को यज्ञ और संस्कार के रूप में देखा गया है।
✔ विज्ञान बताता है कि संभोग ऊर्जा से मानसिक और शारीरिक संतुलन संभव है।
✔ ध्यान, मंत्र जाप, योग और प्राणायाम द्वारा इस ऊर्जा को ब्रह्मांडीय चेतना से जोड़ा जा सकता है।

"संभोग से समाधि तक की यात्रा संभव है, यदि इसे सही दिशा में ले जाया जाए।" – ओशो

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