स्वामी शिवानंद जी ने मैथुन के प्रकार बताए हैं जिनसे बचना ही ब्रह्मचर्य है -
1. स्त्रियों को कामुक भाव से देखना।
२. सविलास की क्रीड़ा करना।
3. स्त्री के रुप यौवन की प्रशंसा करना।
4. तुष्टिकरण की कामना से स्त्री के निकट जाना।
5. क्रिया निवृत्ति अर्थात् वास्तविक रति क्रिया।
इसके अतिरिक्त विकृत यौनाचार से भी वीर्य की भारी क्षति हो जाती है। हस्तक्रिया आदि इसमें शामिल है।
शरीर में व्याप्त वीर्य कामुक विचारों के चलते अपना स्थान छोडऩे लगते हैं और अन्तत: स्वप्रदोष आदि के द्वारा बाहर आ जाता है।
ब्रह्मचर्य का तात्पर्य वीर्य रक्षा से है। यह ध्यान रखने की बात है कि ब्रह्मचर्य शारीरिक व मानसिक दोनों प्रकार से होना जरूरी है। अविवाहित रहना मात्र ब्रह्मचर्य नहीं कहलाता।
धर्म कर्तव्य के रूप में सन्तानोत्पत्ति और बात है और कामुकता के फेर में पडक़र अंधाधुंध वीर्य नाश करना बिलकुल भिन्न है।
मैथुन क्रिया से होने वाले नुकसान निम्रानुसार है-
* शरीर की जीवनी शक्ति घट जाती है, जिससे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है।
* आँखो की रोशनी कम हो जाती है।
* शारीरिक एवं मानसिक बल कमजोर हो जाता है।
* जिस तरह जीने के लिये ऑक्सीजन चाहिए वैसे ही ‘निरोग’ रहने के लिये ‘वीर्य’।
* ऑक्सीजन प्राणवायु है तो वीर्य जीवनी शक्ति है।
* अधिक मैथुन से स्मरण शक्ति कमजोर हो जाता है।
* चिंतन विकृत हो जाता है।
वीर्यक्षय से विशेषकर तरूणावस्था में अनेक रोग उत्पन्न होते हैं -
चेहरे पर मुँहासे , नेत्रों के चतुर्दिक नीली रेखाएँ, दाढ़ी का अभाव, धँसे हुए नेत्र, रक्तक्षीणता से पीला चेहरा, स्मृतिनाश, दृष्टि की क्षीणता, मूत्र के साथ वीर्यस्खलन, दुर्बलता, आलस्य, उदासी, हृदय-कम्प, शिरोवेदना, संधि-पीड़ा, दुर्बल वृक्क, निद्रा में मूत्र निकल जाना, मानसिक अस्थिरता, विचारशक्ति का अभाव, दुःस्वप्न, स्वप्नदोष व मानसिक अशांति।
अगर ग्रुप में किसी भाई को ये समस्याएँ हैं तो उपाय भी लिख रहा हूँ -
लेटकर श्वास बाहर निकालें और अश्विनी मुद्रा अर्थात् 30-35 बार गुदाद्वार का आकुंचन-प्रसरण श्वास रोककर करें।
ऐसे एक बार में 30-35 बार संकोचन विस्तरण करें। तीन चार बार श्वास रोकने में 100 से 120 बार हो जायेगा।
यह ब्रह्मचर्य की रक्षा में खूब मदद करेगी। इससे व्यक्तित्व का विकास होगा ही, व ये रोग भी दूर होंगे समय के साथ ।।
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3. वीर्य रक्षण से लाभ -
शरीर में वीर्य संरक्षित होने पर आँखों में तेज, वाणी में प्रभाव, कार्य में उत्साह एवं प्राण ऊर्जा में अभिवृद्धि होती है।
ऐसे व्यक्ति को जल्दी से कोई रोग नहीं होता है उसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता आ जाती है ।
पहले के जमाने में हमारे गुरुकुल शिक्षा पद्धति में ब्रह्मचर्य अनिवार्य हुआ करता था। और उस वक्त में यहाँ वीर योद्धा, ज्ञानी, तपस्वी व ऋषि स्तर के लोग हुए ।
भगवान बुद्ध ने कहा है - ‘‘भोग और रोग साथी है और ब्रह्मचर्य आरोग्य का मूल है।’’
स्वामी रामतीर्थ ने कहा है - ‘‘जैसे दीपक का तेल-बत्ती के द्वारा ऊपर चढक़र प्रकाश के रूप में परिणित होता है, वैसे ही ब्रह्मचारी के अन्दर का वीर्य सुषुम्रा नाड़ी द्वारा प्राण बनकर ऊपर चढ़ता हुआ ज्ञान-दीप्ति में परिणित हो जाता है।
पति के वियोग में कामिनी तड़पती है और वीर्यपतन होने पर योगी पश्चाताप करता है।
भगवान शंकर ने कहा है-
'इस ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही मेरी ऐसी महान महिमा हुई है।'
कुछ उपाय -
ब्रह्मचर्य जीवन जीने के लिये सबसे पहले ‘मन’ का साधने की आवश्यकता है।
भोजन पवित्र एवं सादा होना चाहिए, सात्विक होना चाहिए।
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1. प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाएँ।
2. तेज मिर्च मसालों से बचें। शुद्ध सात्विक शाकाहारी भोजन करें।
3. सभी नशीले पदार्थों से बचें।
4. गायत्री मन्त्र या अपने ईष्ट मन्त्र का जप व लेखन करें।
5. नित्य ध्यान (मेडिटेशन) का अभ्यास करें।
6. मन को खाली न छोड़ें किसी रचनात्मक कार्य व लक्ष्य से जोड़ रखें।
7. नित्य योगाभ्यास करें। निम्न आसन व प्राणायाम अनिवार्यत: करें-
आसन-पश्चिमोत्तासन, सर्वांगासन, भद्रासन प्राणायाम- भस्त्रिका, कपालभाति, अनुलोम विलोम।
जो हम खाना खाते हैं उससे वीर्य बनने की काफी लम्बी प्रक्रिया है।खाना खाने के बाद रस बनता है जो कि नाडियों में चलता है।फिर बाद में खून बनता है।इस प्रकार से यह क्रम चलता है और अंत में वीर्य बनता है।
वीर्य में अनेक गुण होतें हैं।
क्या आपने कभी यह सोचा है कि शेर इतना ताकतवर क्यों होता है?वह अपने जीवन में केवल एक बार बच्चॉ के लिये मैथुन करता है।जिस वजह से उसमें वीर्य बचा रहता है और वह इतना ताकतवर होता है।
जो वीर्य इक्कठा होता है वह जरूरी नहीं है कि धारण क्षमता कम होने से वीर्य बाहर आ जायेगा।वीर्य जहाँ इक्कठा होता है वहाँ से वह नब्बे दिनों बाद पूरे शरीर में चला जाता है।
फिर उससे जो सुंदरता,शक्ति,रोग प्रतिरोधक क्षमता आदि बढती हैं उसका कोई पारावार नहीं होता है।
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4. पत्नी का त्याग नहीं करना है -
ब्रह्मचर्य में स्त्री और पुरुष का कोई लेना देना ही नहीं है।
प्राचीन काल में ऋषि मुनि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे, ऋषि पत्नियां भी बहुत जागृत और ग्यानी होती थी। आत्मसाक्षात्कार का जितना अधिकार पुरुषो को था उतना ही स्त्रियों को भी था।
ब्रह्मचर्य को पूर्ण गरिमा प्राचीन काल में ही मिली थी। मैंने एक कथा सुनी थी, एक ऋषि ने अपने पुत्र को दुसरे ऋषि के पास सन्देश लेकर भेजा था, पुत्र ने पिता से कहा की राह में एक नदी पड़ती है, कैसे पार करूँगा।
ऋषि ने कहा जाकर नदी से कहना,अगर मेरे पिता ने एक पल भी ब्रह्मचर्य का व्रत ना त्यागा हो, स्वप्न में भी नहीं, तो हे नदी तू मुझे रास्ता दे दे।
कथा कहती है की नदी ने रास्ता दे दिया। कैसा विरोधाभास है, एक पुत्र का पिता और ब्रह्मचारी , कैसे ?
जाहिर है कि संभोग एक बार सन्तानोपत्ति के लिए किया गया था , आनंद के लिए नहीं ।
बुद्ध और महावीर के बाद हज़ारों युवक अपनी पत्नियों को घर को छोड़ कर भिक्षु बन गए , तब ब्रह्मचर्य का अर्थ सिर्फ स्त्री निषेध बन गया।
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नर और नारी के घनिष्ठ सहयोग के बिना सृष्टि का व्यवस्थाक्रम नहीं चल सकता।
दोनों का मिलन कामतृप्ति एवं प्रजनन जैसे पशु प्रयोजन के लिए नहीं होता, वरन घर बसाने से लेकर व्यक्तियों के विकास और सामाजिक प्रगति तक समस्त सत्प्रवित्तियों का ढांचा दोनों के सहयोग से ही सम्भव होता है।
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अध्यात्म के मंच से एक और बेसुरा राग अलापा गया कि नारी ही दोष दुर्गुणों की, पाप-पतन की जड़ है।
इसलिए उससे सर्वथा दूर रहकर ही स्वर्ग मुक्ति और सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
इस सनक में लोग घर छोडक़र भागने में, स्त्री बच्चे को बिलखता छोडक़र भीख माँगने और दर-दर भटकने के लिए निकल पड़े।
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तंत्र के पथिको ने आज्ञा चक्र में अर्ध नारीश्वर की कल्पना की है, यह कल्पना नहीं यथार्थ है, विज्ञान भी स्वीकारता है, की, हर स्त्री में एक पुरुष विद्यमान है और हर पुरुष में एक स्त्री।
जब साधक या साधिका की चेतना आज्ञा चक्र में प्रवेश करती है, जब कुण्डलिनी आज्ञा चक्र का भेदन करती है तो काम ऊर्जा राम ऊर्जा में रूपांतरित हो जाती है, साधक जीव संज्ञा से शिव संज्ञा में प्रविष्ट हो जाता है।
आज्ञा चक्र में पुरुष साधक को अपने भीतर की स्त्री का दर्शन होता है और स्त्री साधक को अपने भीतर के पुरुष का, जैसे ही यह दर्शन मिलता है, वैसे ही बाहर की स्त्री या पुरुष विलीन हो जाता है, खो जाता है।
बाहर की स्त्री या पुरुष में रस ख़त्म हो जाता है, आप अपने भीतर के पुरुष या स्त्री को पा लेते हैं, और साथ ही आप आतंरिक या आध्यात्मिक सम्भोग के रहस्य को जान लेते हैं, जो पंचमकार का एक सूक्ष्म मकार है।
यह बिलकुल उसी तरह होता है , जैसे खेचरी मुद्रा में साधक ललना चक्र से टपकने वाली मदिरा का पान करके आनंद में रहता है। जैसे ही आपको भीतर का सौंदर्य मिलता है, बाहर का सौंदर्य खो जाता है ।
संसार की स्त्री या पुरुष में कोई आकर्षण नहीं रह जाता है, कोई रस नहीं रह जाता है, यही वो घडी है, जब ब्रह्मचर्य आपके भीतर से प्रस्फूटित होता है. अब आप वो नहीं रहे आप रूपांतरित हो जाते हैं, यही वो जगह है जहाँ शिवत्व घटता है ।
5. कमेन्टस में चर्चा -
एक बात ध्यान रखना है चर्चा में कि यहाँ माता-बहने भी हैं तो शब्दों का ख्याल रखना है , कामुक या गंदे शब्दों से परहेज करना है जहां तक हो सके ।
शादीशुदा व्यक्ति पूर्ण ब्रह्मचर्य ना रख सकें तो भी संयमित जीवन अवश्य व्यतीत करना चाहिए ।
अगर कोई कहता है कि यौन इच्छाओं को दबाने से नपुंसकता आ जाएगी या दबाने से अच्छा है भोग लो , तो भाई ऐसा है कि उपर लिखी दिनचर्या अपनाओगे तो यौन इच्छाएँ पैदा ही नहीं होगी ,
मन निर्मल तो तन निर्मल ।।
अगर कोई कहे कि संभोग 8-10 दिन इतना ज्यादा करो कि घृणा हो जाए , तो भाई ऐसा है कि नसें उभर आएंगी , पीड़ा भी महसूस करोगे , संभोग से मन उचट भी जाएगा , परन्तु .....
महिने 2-3 में वीर्य बनने पर , कामुक साहित्य , नेट पर अशलील चीजें देखने पर , नारी को गलत भावना से देखने पर फिर से काम वेग उठेगा , तुम फिर बह जाओगे।
इसलिए ये सोचना बिल्कुल गलत होगा कि 8-10 दिन जमकर करो तो घृणा हो जाएगी सदा के लिए । ।
साधना पर भी प्रभाव पडेगा , जो व्यक्ति कामुक है , उसके विचार भी वैसे चलेंगे , ज्यादा वीर्य नष्ट करने से शरीर में शक्ति का संचार कम होगा , वह 1 घण्टे तक ज्ञान मुद्रा में ही नहीं बैठ पाएगा ।
6. योग और भोग में फर्क क्या है,आइये जानते हैं।
योग जो पुत्र उत्पत्ति के उद्देश्य से किया गया संभोग जिसे संयोग की संज्ञा दी गई है ,यह योग में आता है। और जो काम इच्छा की पूर्ति के लिए व अपने उच्छृखल मन को बिभिन्न शारीरीक कृड़ा से आनंदित व मनोनुकुल तृप्ति के उद्देश्य से किया गया संभोग यह भोग की संज्ञा में आता है । और यह मैथुन क्रिया 10 प्रकार की होती है 1*योनि मैथुन 2*गुदामैथुन 3*मुख मैथुन 4* स्पर्श मैथुन 5*हस्त मैथुन 6* दृष्टि मैथुन 7*कल्पना मैथुन8* स्वप्न मैथुन 9*वाक्य मैथुन (कह कर उत्तेजित हो बीर्य का नाश करना) 10*श्रोता मैथुन(सुन कर उत्तेजित हो बीर्य का नाश करना।
अर्थात जो इन 10 प्रकार के मैथुन क्रियाओं से वंचित है वह पूर्ण रुपेन ब्रह्मचर्य है अन्यथा ब्रह्मचर्य का दावा करना खोखली आडंबर है पर अल्पकालिक ब्रह्मचर्य का व्रत हम साधक में से कोई भी व्यक्ति निभा सकता है या निभाने की भरपूर कोशिश कर सकता है जैसी प्रबल चेष्टा होगी वैसी ही प्रबल उसका परिणाम होगा।
पहले सिद्धासन से बैठ जाओ यह केवल मात्र इस सिद्धासन का ही अभ्यास किया जाए तो यह भी वीर्य रक्षार्थ तथा स्वप्नदोष को दूर करने में अत्यंत हितकर है। उसके पश्चात बाह्य कुंभक प्रणाम करें। यह प्रणाम कैसे किया जाता है नीचे वीडियो दी गई है वहां से आप सीख सकते हैं। ऊर्ध्वरेता बनने के लिए इस प्राणायम के आदि से अंत तक एक विशेष क्रिया का ध्यान रखना तथा अभ्यास करना है।
श्वास निकालने से पूर्व जो नाभि के नीचे मूलाधार को खींचा था उसे निरंतर खींचे ही रखना है ढीला नहीं छोड़ना जितने समय तक अथवा जितने भी प्राणायाम करें मूलाधार को खींचे ही रखना है। पहले पहले कुछ कठिनाई प्रतीत होगी किंतु कुछ दिनों के अभ्यास से सरलता से कर सकेंगे।फिर मूलाधार का खींचने से तथा गूदा खींची रहेगी और वीर्य को जहां ठहरता है वह भी ऊपर को खींचा रहेगा। मूलाधार खींचते समय नाभि के नीचे ध्यान करें कि हम वीर्य को ऊपर की ओर खींच रहे हैं कुछ समय के अभ्यास के बाद वीर्य ऊपर को यथार्थ में खींचने तथा जाने लगेगा और आगे चलकर आप पूर्णरूपेण ऊर्ध्वरेता बन जाएंगे। वीर्य ऊपर को देने लगेगा वीर्य को धीरे आना ही बंद हो जाएगा फिर आपकी इच्छा के बिना एक बिंदु भी बाहर नहीं निकल सकता। स्वपनदोष पर में आदि रोग तो हो ही कैसे सकते हैं।
ऐसी अवस्था भी आवेगी कि कभी स्वप्नदोष होने का अवसर आएगा तो अर्ध निंद्रा में आप मूलाधार को खींच लेंगे आंखें खुल जाएंगी स्वप्नदोष से बच जाएंगे। आपकी विजय होगी आप की विजय और हार आपके अभ्यास के ऊपर हैं 1 वर्ष तक इस प्राणायम का अभ्यास करें उसके पश्चात द्वितीय आभ्यंतर प्राणायाम करें और इसी क्रम से तीसरा और चोथा प्राणायाम भी करे। सभी प्राणायाम का अभ्यास करने पर आप निश्चित रूप से ऊर्ध्वरेता हो जाएंगे।
इस प्राणायाम की जितनी प्रशंसा की जाए थोड़ी सब ऋषि यों और विशेषता पूज्य पाद महर्षि दयानंद की कृपा है जो ऐसी विद्या इस गिरे हुए संसार को मिली है।इस प्राणायाम के प्रभाव से जहां स्वप्नदोष आदि रोग दूर होंगे वहां शरीर में वीर्य वृद्धि को प्राप्त होकर फिर बल पराक्रम और जितेंद्रयता की प्राप्ति होगी। इसका अभ्यास सब युवकों विद्यार्थियों तथा ब्रह्मचर्य प्रेमी स्त्री पुरुषों को करना। यह वीर्य रक्षा का सर्वोत्तम साधन और परम औषध है।इसके अतिरिक्त पद्मासन सिद्धासन सर्वांगासन उधर पद्मासन हलासन शीर्षासन योग मुद्रा आदि आसन तथा उज्जाई भस्त्रिका आदि प्राणायाम भी अति हितकारी होते हैं।यदि वीर्य विकार के कारण शरीर में जलन होती हो तो भस्त्रिका के स्थान पर शीतली प्राणायाम करना लाभदायक है।विचार शुद्ध पवित्र रखें लाल मिर्च गुड़ शक्कर प्याज लहसुन आदि उत्तेजक पदार्थों का सेवन ना करें प्राणायाम में विशेष सफलता पाने के इच्छुक नमक का सेवन भी छोड़ दें।
अपना जो ‘काम-संस्थान’ है, वह जब सक्रिय होता है तभी वीर्य को बाहर धकेलता है | किन्तु निम्न प्रयोग द्वारा उसको सक्रिय होने से बचाना है |
ज्यों ही किसी स्त्री के दर्शन से या कामुक विचार से आपका ध्यान अपनी जननेन्द्रिय की तरफ खिंचने लगे, तभी आप सतर्क हो जाओ | आप तुरन्त जननेन्द्रिय को भीतर पेट की तरफ़ खींचो | जैसे पंप का पिस्टन खींचते हैं उस प्रकार की क्रिया मन को जननेन्द्रिय में केन्द्रित करके करनी है | योग की भाषा में इसे योनिमुद्रा कहते हैं |
अब आँखें बन्द करो | फिर ऐसी भावना करो कि मैं अपने जननेन्द्रिय-संस्थान से ऊपर सिर में स्थित सहस्रार चक्र की तरफ देख रहा हूँ | जिधर हमारा मन लगता है, उधर ही यह शक्ति बहने लगती है | सहस्रार की ओर वृत्ति लगाने से जो शक्ति मूलाधार में सक्रिय होकर वीर्य को स्खलित करनेवाली थी, वही शक्ति ऊर्ध्वगामी बनकर आपको वीर्यपतन से बचा लेगी | लेकिन ध्यान रहे : यदि आपका मन काम-विकार का मजा लेने में अटक गया तो आप सफल नहीं हो पायेंगे | थोड़े संकल्प और विवेक का सहारा लिया तो कुछ ही दिनों के प्रयोग से महत्त्वपूर्ण फायदा होने लगेगा | आप स्पष्ट महसूस करेंगे कि एक आँधी की तरह काम का आवेग आया और इस प्रयोग से वह कुछ ही क्षणों में शांत हो गया
जब भी काम का वेग उठे, फेफड़ों में भरी वायु को जोर से बाहर फेंको | जितना अधिक बाहर फेंक सको, उतना उत्तम | फिर नाभि और पेट को भीतर की ओर खींचो | दो-तीन बार के प्रयोग से ही काम-विकार शांत हो जायेगा और आप वीर्यपतन से बच जाओगे |
यह प्रयोग दिखता छोटा-सा है, मगर बड़ा महत्त्वपूर्ण यौगिक प्रयोग है | भीतर का श्वास कामशक्ति को नीचे की ओर धकेलता है | उसे जोर से और अधिक मात्रा में बाहर फेंकने से वह मूलाधार चक्र में कामकेन्द्र को सक्रिय नहीं कर पायेगा | फिर पेट व नाभि को भीतर संकोचने से वहाँ खाली जगह बन जाती है | उस खाली जगह को भरने के लिये कामकेन्द्र के आसपास की सारी शक्ति, जो वीर्यपतन में सहयोगी बनती है, खिंचकर नाभि की तरफ चली जाती है और इस प्रकार आप वीर्यपतन से बच जायेंगे |
इस प्रयोग को करने में न कोई खर्च है, न कोई विशेष स्थान ढ़ूँढ़ने की जरूरत है | कहीं भी बैठकर कर सकते हैं | काम-विकार न भी उठे, तब भी यह प्रयोग करके आप अनुपम लाभ उठा सकते हैं | इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है, पेट की बीमारियाँ मिटती हैं, जीवन तेजस्वी बनता है और वीर्यरक्षण सहज में होने लगता है |
ब्रह्मचर्य रक्षा हेतु मंत्र
एक कटोरी दूध में निहारते हुए इस मंत्र का इक्कीस बार जप करें | तदपश्चात उस दूध को पी लें, ब्रह्मचर्य रक्षा में सहायता मिलती है | यह मंत्र सदैव मन में धारण करने योग्य है :
ॐ नमो भगवते महाबले पराक्रमाय
मनोभिलाषितं मनः स्तंभ कुरु कुरु स्वाहा |
पादपश्चिमोत्तानासन
विधि: जमीन पर आसन बिछाकर दोनों पैर सीधे करके बैठ जाओ | फिर दोनों हाथों से पैरों के अगूँठे पकड़कर झुकते हुए सिर को दोनों घुटनों से मिलाने का प्रयास करो | घुटने जमीन पर सीधे रहें | प्रारंभ में घुटने जमीन पर न टिकें तो कोई हर्ज नहीं | सतत अभ्यास से यह आसन सिद्ध हो जायेगा | यह आसन करने के 15 मिनट बाद एक-दो कच्ची भिण्डी खानी चाहिए | सेवफल का सेवन भी फायदा करता है |
लाभ: इस आसन से नाड़ियों की विशेष शुद्धि होकर हमारी कार्यक्षमता बढ़ती है और शरीर की बीमारियाँ दूर होती हैं | बदहजमी, कब्ज जैसे पेट के सभी रोग, सर्दी-जुकाम, कफ गिरना, कमर का दर्द, हिचकी, सफेद कोढ़, पेशाब की बीमारियाँ, स्वप्नदोष, वीर्य-विकार, अपेन्डिक्स, साईटिका, नलों की सुजन, पाण्डुरोग (पीलिया), अनिद्रा, दमा, खट्टी ड्कारें, ज्ञानतंतुओं की कमजोरी, गर्भाशय के रोग, मासिकधर्म की अनियमितता व अन्य तकलीफें, नपुंसकता, रक्त-विकार, ठिंगनापन व अन्य कई प्रकार की बीमारियाँ यह आसन करने से दूर होती हैं |
प्रारंभ में यह आसन आधा मिनट से शुरु करके प्रतिदिन थोड़ा बढ़ाते हुए 15 मिनट तक कर सकते हैं | पहले 2-3 दिन तकलीफ होती है, फिर सरल हो जाता है |
इस आसन से शरीर का कद लम्बा होता है | यदि शरीर में मोटापन है तो वह दूर होता है और यदि दुबलापन है तो वह दूर होकर शरीर सुडौल, तन्दुरुस्त अवस्था में आ जाता है | ब्रह्मचर्य पालनेवालों के लिए यह आसन भगवान शिव का प्रसाद है | इसका प्रचार पहले शिवजी ने और बाद में जोगी गोरखनाथ ने किया था |
पादांगुष्ठानासन
इसमें शरीर का भार केवल पाँव के अँगूठे पर आने से इसे 'पादाँगुष्ठानासन' कहते हैं। वीर्य की रक्षा व ऊर्ध्वगमन हेतु महत्त्वपूर्ण होने से सभी को विशेषतः बच्चों व युवाओं को यह आसन अवश्य करना चाहिए।
लाभः अखण्ड ब्रह्मचर्य की सिद्धि, वज्रनाड़ी (वीर्यनाड़ी) व मन पर नियंत्रण तथा वीर्यशक्ति को ओज में रूपांतरित करने में उत्तम है। मस्तिष्क स्वस्थ रहता है व बुद्धि की स्थिरता व प्रखरता शीघ्र प्राप्त होती है। रोगी-नीरोगी सभी के लिए लाभप्रद है।
रोगों में लाभः स्वप्नदोष, मधुमेह, नपुंसकता व समस्त वीर्योदोषों में लाभप्रद है।
विधिः पंजों के बल बैठ जायें। बायें पैर की एड़ी सिवनी (गुदा व जननेन्द्रिये के बीच का स्थान) पर लगायें। दोनों हाथों की उंगलियाँ ज़मीन पर रखकर दायाँ पैर बायीं जंघा पर रखें। सारा भार बायें पंजे पर (विशेषतः अँगुठे पर) संतुलित करके हाथ कमर पर या नमस्कार की मुद्रा में रखें। प्रारम्भ में कुछ दिन आधार लेकर कर सकते हैं। कमर सीधी व शरीर स्थिर रहे। श्वास सामान्य, दृष्टि आगे किसी बिंदु पर एकाग्र व ध्यान संतुलन रखने में हों। यही क्रिया पैर बदल कर भी करें।
समयः प्रारंभ में दोनों पैरों से आधा-एक मिनट। दोनों पैरों को एक समान समय देकर यथासंभव बढ़ा सकते हैं।
सावधानीः अंतिम स्थिती में आने की शीघ्रता न करें, क्रमशः अभ्यास बढ़ायें। इसे दिन भर में दो-तीन बार कभी भी कर सकते हैं। किन्तु भोजन के तुरन्त बाद न करें।
बुद्धिशक्तिवर्धक प्रयोगः
लाभः इसके नियमित अभ्यास से ज्ञानतन्तु पुष्ट होते हैं। चोटी के स्थान के नीचे गाय के खुर के आकार वाला बुद्धिमंडल है, जिस पर इस प्रयोग का विशेष प्रभाव पड़ता है और बुद्धि ब धारणाशक्ति का विकास होता है।
विधिः सीधे खड़े हो जायें। हाथों की मुट्ठियाँ बंद करके हाथों को शरीर से सटाकर रखें। सिर पीछे की तरफ ले जायें। दृष्टि आसमान की ओर हो। इस स्थिति में 25 बार गहरा श्वास लें और छोड़ें। मूल स्थिती में आ जायें।
मेधाशक्तिवर्धक प्रयोगः
लाभः इसके नियमित अभ्यास से मेधाशक्ति बढ़ती है।
विधिः सीधे खड़े हो जायें। हाथों की मुट्ठियाँ बंद करके हाथों को शरीर से सटाकर रखें।
आँखें बंद करके सिर को नीचे की तरफ इस तरफ झुकायें कि ठोढ़ी कंठकूप से लगी रहे और कंठकूप पर हलका-सा दबाव पड़े। इस स्थिती में 25 बार गहरा श्वास लें और छोड़ें। मूल स्थिती में आ जायें।
विशेषः श्वास लेते समय मन में 'ॐ' का जप करें व छोड़ते समय उसकी गिनती करें।
ध्यान दें- प्रत्येक प्रयोग सुबह खाली पेट 15 बार करें, फिर धीरे-धीरे बढ़ाते हुए 25 बार तक कर सकते हैं।
शिश्नेन्द्रिय स्नान
शौच के समय एवं लघुशंका के समय साथ में गिलास अथवा लोटे में ठंड़ा जल लेकर जाओ और उससे शिश्नेन्द्रिय को धोया करो | कभी-कभी उस पर ठंड़े पानी की धार किया करो | इससे कामवृत्ति का शमन होता है और स्वप्नदोष नहीं होता |
ब्रह्मचर्यासन के नियमित अभ्यास से ब्रह्मचर्य-पालन में खूब सहायता मिलती है अर्थात् इसके अभ्यास से अखंड ब्रह्मचर्य की सिद्धि होती है। इसलिए योगियों ने इसका नाम ब्रह्मचर्यासन रखा है। विधिः जमीन पर घुटनों के बल बैठ जायें। तत्पश्चात् दोनों पैरों को अपनी-अपनी दिशा में इस तरह फैला दें कि नितम्ब और गुदा का भाग जमीन से लगा रहे।
:::::::::::::::::साधना में अश्विनी मुद्रा और मूल बंध की भूमिका :::::::::::::::::::
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श्वास सामान्य चलना और गुदा द्वार को बार-बार संकुचित करके बंद करना व फिर छोड़ देना. या श्वास भीतर भरकर रोक लेना और गुदा द्वार को बंद कर लेना, जितनी देर सांस भीतर रुक सके रोकना और उतनी देर तक गुदा द्वार बंद रखना और फिर धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए गुदा द्वार खोल देना इसे अश्विनी मुद्रा कहते हैं.| कई साधक इसे अनजाने में करते रहते हैं और इसको करने से उन्हें दिव्य शक्ति या आनंद का अनुभव भी होता है, परन्तु वे ये नहीं जानते कि वे एक यौगिक क्रिया कर रहे हैं.| अश्विनी मुद्रा का अर्थ है "अश्व यानि घोड़े की तरह करना". घोडा अपने गुदा द्वार को खोलता बंद करता रहता है और इसी से अपने भीतर अन्य सभी प्राणियों से अधिक शक्ति उत्पन्न करता है.| इस अश्विनी मुद्रा को करने से कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है और ऊपर की और उठकर उच्च केन्द्रों को जाग्रत करती है.| यह मुद्रा समस्त रोगों का नाश करती हैं.| विशेष रूप से शरीर के निचले हिस्सों के सब रोग शांत हो जाते हैं. |स्त्रियों को प्रसव पीड़ा का भी अनुभव नहीं होता. |प्रत्येक नए साधक को या जिनकी साधना रुक गई है उनको यह अश्विनी मुद्रा अवश्य करनी चाहिए. |इसको करने से शरीर में गरमी का अनुभव भी हो सकता है,| उस समय इसे कम करें या धीरे-धीरे करें व साथ में प्राणायाम भी करें.| सर्दी में इसे करने से ठण्ड नहीं लगती.| मन एकाग्र होता है.| साधक को चाहिए कि वह सब अवस्थाओं में इस अश्विनी मुद्रा को अवश्य करता रहे.| जितना अधिक इसका अभ्यास किया जाता है उतनी ही शक्ति बदती जाती है.| इस क्रिया को करने से प्राण का क्षय नहीं होता और इस प्राण उर्जा का उपयोग साधना की उच्च अवस्थाओं की प्राप्ति के लिए या विशेष योग साधनों के लिए किया जा सकता है.| मूल बांध इस अश्विनी मुद्रा से मिलती-जुलती प्रक्रिया है.| इसमें गुदा द्वार को सिकोड़कर बंद करके भीतर - ऊपर की और खींचा जाता है.| यह वीर्य को ऊपर की और भेजता है एवं इसके द्वारा वीर्य की रक्षा होती है.| यह भी कुंडलिनी जागरण व अपानवायु पर विजय का उत्तम साधन है.| इस प्रकार की दोनों क्रियाएं स्वतः हो सकती हैं. इन्हें अवश्य करें. ये साधना में प्रगति प्रदान करती हैं. |साधना में अथवा ध्यान में अथवा आराधना में कुछ समय मन को एकाग्रकर इन क्रियाओं को करने से शक्ति प्राप्ति और उन्नति की मात्रा बढ़ जाती है |यही सब छोटी-छोटी तकनीकियाँ हैं जो गुरु लोग अपने शिष्यों को क्रमशः बताते हैं और उनकी सफलता को नियंत्रित और तीब्र करते रहते हैं ,तभी तो कहा जाता है की साधना -आराधना का मार्ग बिना गुरु के अँधेरे में हाथ-पाँव चलाने जैसा ही होता है |सामान्य साधक जो बिना गुरु के साधना करते हैं उनमे से अधिकतर को इन छोटी -छोटी तकनीकियों की जानकारी नहीं होती और बहुत परिश्रम पर भी उपलब्धि की मात्रा कम होती है ,कभी कभी तो शून्य होती है ,क्योकि वह तकनीकियों को जानते ही नहीं की ऊर्जा कैसे बढायें ,कैसे उसे उर्ध्वमुखी करें ,कैसे आने वाली ऊर्जा को नियंत्रित करें ,कैसे प्राप्त ऊर्जा को अपने में समाहित करें |साधना -आराधना केवल हाथ जोड़कर प्रार्थना करना ही नहीं है अथवा मंत्र जप नहीं है |यह ऊर्जा को नियंत्रित कर खुद में समायोजित कर उसका उपयोग साधना की उन्नति में करना है | ...............................................................................हर-हर महादेव
कम देखें
साधारणतया योगासन भोजन के बाद नहीं किये जाते परंतु कुछ ऐसे आसन हैं जो भोजन के बाद भी किये जाते हैं। उन्हीं आसनों में से एक है ब्रह्मचर्यासन। यह आसन रात्रि-भोजन के बाद सोने से पहले करने से विशेष लाभ होता है।
ब्रह्मचर्यासन के नियमित अभ्यास से ब्रह्मचर्य-पालन में खूब सहायता मिलती है अर्थात् इसके अभ्यास से अखंड ब्रह्मचर्य की सिद्धि होती है। इसलिए योगियों ने इसका नाम ब्रह्मचर्यासन रखा है।
विधिः जमीन पर घुटनों के बल बैठ जायें। तत्पश्चात् दोनों पैरों को अपनी-अपनी दिशा में इस तरह फैला दें कि नितम्ब और गुदा का भाग जमीन से लगा रहे। हाथों को घुटनों पर रख के शांत चित्त से बैठे रहें।
लाभः इस आसन के अभ्यास से वीर्यवाहिनी नाड़ी का प्रवाह शीघ्र ही ऊर्ध्वगामी हो जाता है और सिवनी नाड़ी की उष्णता कम हो जाती है, जिससे यह आसन स्वप्नदोषादि बीमारियों को दूर करने में परम लाभकारी सिद्ध हुआ है।
जिन व्यक्तियों को बार-बार स्वप्नदोष होता है, उन्हें सोने से पहले पाँच से दस मिनट तक इस आसन का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। इससे उपस्थ इन्द्रिय में काफी शक्ति आती है और एकाग्रता में वृद्धि होती है।
ज्रोली मु्द्रा करने का तरीका (how to do vajroli mudra)
- वज्रोली मुद्रा करने के लिए आप सबसे पहले किसी शांत वातावरण में योग मैट पर बैठ जाएं।
- आप योग मैट पर पद्मासन या सुखासन में बैठ सकते हैं।
- इसके बाद अपने दोनों हाथों को घुटनों पर रखें।
- अब अपनी दोनों आंखें बंद कर लें। नाक से लंबी गहरी सांस लेते रहें।
- सांस लेने के बाद इसे कुछ देर अपने अंदर रखें। इस दौरान अपने गुदाद्वार और अंडकोष के बीच के भाग को ऊपर की तरफ संकुचित करने की कोशिश करें।
- इस अवस्था में जितनी देर हो सके रुकें। इसके बाद सांस छोड़ दें।
- इस क्रिया को आप धीरे-धीरे 10-15 बार आसानी से रोजाना कर सकते हैं।
वज्रोली मुद्रा के फायदे (vajroli mudra benefits in hindi)
- अगर आप नियमित रूप से वज्रोली मुद्रा करते हैं, तो इससे आपका पाचन तंत्र हमेशा स्वस्थ रह सकता है। पाचन से जुड़ी समस्याओं को दूर करने के लिए आप वज्रोली मुद्रा कर सकते हैं। इसके नियमित अभ्यास से आप कब्ज, गैस आदि से बच सकते हैं।
- वज्रोली मुद्रा का अभ्यास करने से कब्ज की समस्या से राहत मिल सकती है। अगर आपको कब्ज रहती है, तो इस स्थिति में आप वज्रोली मुद्रा कर सकते हैं।
- वज्रोली मुद्रा करने से यौन से जुड़ी समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है। लेकिन अगर आपको कोई गंभीर यौन समस्या है, तो एक्सपर्ट की राय पर ही इस आसन को करें।
- नियमित रूप से वज्रोली मुद्रा करने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत बनती है। वज्रोली मुद्रा शारीरिक शक्ति को बढ़ाने में मदद करता है।
- वज्रोली मुद्रा का अभ्यास करने से पेट में जमा टॉक्सिंस आसानी से निकल जाते हैं। इससे स्किन भी साफ होती है।
- पेशाब से जुड़ी समस्याएं ठीक हो सकती है। वज्रोली मुद्रा करने से बार-बार पेशाब आने, रुक-रुक कर पेशाब आना और पेशाब करते समय जलन महसूस होना, जैसी समस्याएं ठीक हो सकती हैं।
- वज्रोली मुद्रा मलद्वार मूत्र रोग जैसे बार-बार पेशाब आना, रुक-रुक कर पेशाब आना व पेशाब करते समय लिंग व योनी में जलन होना में भी कारगर हैं।
4-इसके लिये संतमत में दो प्रमुख दोहे हैं ..
4-1-आँख कान मुँह ढाँप के ,नाम निरंजन लेय । अंदर के पट तब खुलें,जब बाहर के देय ।
4-2-तीनों बन्द लगाय कर , अनहद सुनो टंकोर । सहजो सुन्न समाधि में, नहिं सांझ नहिं भोर ।..
अगोचरी मुद्रा कैसे करें?-
07 FACTS;-
1-अगोचरी मुद्रा अथार्त नाक से चार उँगली आगे के शून्य स्थान पर दोनों नेत्रों की दृष्टि को एक बिन्दु पर केन्द्रित करके ध्यान लगाना।ॐ शरीर है ..निरंजन राम है ।ये मुद्रा कई तरह के नाम ध्यान में प्रयोग की जाती है ।
2-अंगूठे के पास वाली दोनों उंगली ..दोनों कानों में इतनी टाइट ,मगर इतनी सहनीय घुसायें कि कान बाहरी आवाज के प्रति साउंडप्रूफ़ हो जाँय । अब बीच वाली दोनों बङी उंगली से , दोनों आँखे मूँदते हुये ,थोङा ही टाइट ( ताकि दुखने न लगें ) रखकर दबायें रहें ।
3-शेष बची दोनों उंगलियाँ ,मुँह बन्द करते हुये होठों पर रखकर हल्का सा दबायें रहें। दोनों अंगूठे .. गर्दन पर या आपकी शरीर की बनाबट के अनुसार जहाँ भी सरलता से आरामदायक स्थिति में रख जाँय ..रख लें । इनके कहीं भी होने से कुछ ज्यादा अंतर नहीं होता । बस अभ्यास करते समय असुविधा और कष्ट महसूस न हो ।
4-अब बस अंदर मष्तिष्क के बीचोबीच में स्वत सुनाई देने वाली आवाज को सुनते रहना है।यह बेहद आसानी से हरेक को पहली ही बार में सुनाई देगी ।शुरूआत में रथ के पहियों के दौङने की घङघङाहट सुनाई देगी।यह सूर्य का रथ है। इसको काल पहिया या चक्र भी कह सकते हैं। पर एक काल-चक्र दूसरा भी होता हैं। ये आवाज किसी किसी को घर की चाकी चलने से निकलने वाली आवाज जैसी भी सुनाई देती है ।
5-वास्तव में सृष्टि में पाप पुण्य वाले दो पहियों का रथ निरंतर दौङता रहता है।और जीव इन्ही दोनों पहियों से बँधा अज्ञान में घिसटता रहता है । समदर्शी संत पाप पुण्य ..दोनों को छोड़कर इसी रथ के ऊपर बैठकर जीवन सफ़र तय करता है ।
6-इसी स्थिति के लिये कबीर ने कहा है ''चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोय । दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय ''। अर्थात जीव अपने स्वरूप को भूलकर पाप पुण्य के दो पाट वाली चाकी में अनंतकाल से पिस रहा है।इस रथ की आवाज के बाद ,आपको किसी बाग में चहकती अनेकों चिङियों की आवाज सुनाई देगी।इसके बाद निरंजन यानी रामधुनि यानी ररंकार सुनाई देगा।यही ध्वनि रूपी असली राम का नाम है।
7-शंकर जी ने पार्वती को यही अमरकथा सुनाई थी।यह घटाकाश में निरंतर गूंज रहा है । तुलसीदास ने रामायण में संकेत रूप में इसी के अखंड पाठ की सलाह दी थी ।कागभुशुंडि ने भी इसी के बारे में कहा था कि ''मैं निरंतर राम कथा का पान करता हूँ '।..इसके सुनते वक्त बस ये ध्यान रखना है कि मष्तिष्क के बीचोबीच वाली आवाज ही सुनें..दाँये बाँये की नहीं ।
अगोचरी मुद्रा के लाभ :-
03 FACTS;-
1-ये मुद्रा बहुत तेजी से पाप भक्षण करती है और ईश्वर प्राप्ति में बहुत सहयोगी है।
2-अगर मन अशांत हो तो यह बहुत ही लाभकारी मुद्रा है ,यह मन के विचारों की उथल-पुथल को शांत करती है |
3-यह ध्यान की शक्ति में विकास करती है |
2-उनमनी मुद्रा ;-
04 FACTS;-
1-उनमनी मुद्रा यानी भोंहो के मध्य ध्यान टिकाना । उनमनी याने संसार से उदासीनता का भाव । उन ( यानी प्रभु ) मनी ( मन लगा देना ) प्रभु से मन लगा देना । कहने का आशय यह है कि ध्यान के समय संसार से उदासीन होकर प्रभु से प्रेम भाव से मन को जोङना ।
2-सहस्त्रार (जो सर की चोटी वाला स्थान है) में पूर्ण एकाग्रता के साथ मन को लगाने का अभ्यास करने से आत्मा परमात्मा की ओर गमन करने लगती है और व्यक्ति ब्रह्मांड की चेतना से जुड़ने लगता है।
3-शुरूआत करते समय खुली आँखों से कुछ देर तक नाक की नोक को देखते रहें । इससे सुरति एकाग्र होकर स्वतः ही नाक की जङ (बिन्दी या तिलक के ठीक नीचे का स्थान .. भ्रूमध्य के ठीक नीचे) पर पहुँच जायेगी । और आपकी आँखे स्वयं बन्द होती चली जायेंगी ।
4-अपने को ढीला छोङ दें और इसके बाद कुछ न करते हुये जो हो रहा है उसको होने दें। कुछ अभ्यास के बाद इसी स्थिति के बीच लेट जाने का प्रयत्न करें। इसके लिये आरामदायक गद्दे पर अभ्यास करें ।इसकी सही क्रिया जान लेने पर यह मुद्रा आंतरिक लोकों की सहज यात्रा कराती है ।
3)अश्विनी मुद्रा ;-
03 FACTS;-
1-जिस प्रकार से अश्व (घोडा) अपने गुदाद्वार को बार-बार सिकोड़ता एवं ढीला करने की क्रिया करता है उसी प्रकार से अपने गुदाद्वार से यह क्रिया करने से अश्वनी मुद्रा बनती है | इस मुद्रा का नाम भी इसी आधार पर पड़ा है | घोड़े में बल एवं फुर्ती का रहस्य यही मुद्रा है, इस क्रिया के करने के फलस्वरूप घोड़े में इतनी शक्ति आ जाती है कि आज के मशीनी युग में भी इंजन आदि की शक्ति अश्वशक्ति (HORSE POWER) से ही मापी जाती है.
2-यह मूल बन्ध की प्रारम्भिक क्रिया है।प्राण शक्ति का क्षरण रोककर आध्यात्मिक प्रगति हेतु ऊपर की ओर दिशान्तरित कर देती है।अश्विनी मुद्रा इतनी आसान है कि इसको करने में किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होती है।गुदाद्वारा को बार-बार सिकोड़ने और फैलाने की क्रिया को ही अश्विनी मुद्रा कहते हैं।इससे गुदा की पेशियाँ मजबूत होती हैं।
3-दो विधि ;-
02 FACTS;-
1-कगासन में बैठकर (टॉयलैट में बैठने जैसी अवस्था) गुदाद्वार को अंदर खिंचकर मूलबंध की स्थिति में कुछ देर तक रहें और फिर ढीला कर दें। पुन: अंदर खिंचकर पुन: छोड़ दें। यह प्रक्रिया यथा संभव अनुसार करते रहें और फिर कुछ देर आरामपूर्वक बैठ जाएं।
2-बिस्तर से उतरें, नीचे धरती पर चटाई-कम्बल आदि बिछा दे l पूर्व की तरफ सिर कर दे l श्वास बाहर फेंक दे , पेट को अन्दर-बाहर 2-5 बार करे l योनी को संकोचन-विस्तरण 25 बार करे l फिर श्वास ले l फिर श्वास बाहर फेंके और शौच जाने की जगह को, जैसे घोड़ा लीद छोड़ता है, संकोचन-विस्तरण करता है, ऐसे करे l ऐसे 4 श्वास लेकर करे तो 100 बार हो जायेगा l
सावधानियां :-
02 FACTS;-
अश्वनी मुद्रा करते समय यदि मल-मूत्र का वेग हो तो इस वेग को रोकना नही चाहिए बल्कि इससे निवृत्त हो लेना चाहिए |
यदि गुदाद्वार में किसी प्रकार का गंभीर रोग हो तो यह मुद्रा योग शिक्षक की सलाह अनुसार ही करें।
अश्विनी मुद्रा करने का समय व अवधि -
:02 FACTS;-
1-सामान्य स्थिति में यह क्रिया लेटकर,बैठकर या चलते-फिरते कभी भी दिन में कई बार कर सकते हैं |
2-अश्वनी मुद्रा ..एक बार में कम-से-कम 20-30 बार करनी चाहिए |
लाभ : -
02 FACTS;-
1-अश्विनी मुद्रा के आध्यात्मिक लाभ :-
अश्वनी मुद्रा से कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है। आपका मूलाधार केंद्र प्रभावशाली होगा l स्वाधिष्ठान केंद्र विकसित होगा l ध्यान भजन में बरकत होगी
2-अश्विनी मुद्रा के चिकित्सकीय लाभ :-
04 POINTS;-
1-अश्वनी मुद्रा के निंरतर अभ्यास से गुदा से सम्बंधित समस्त रोग(जैसे बवासीर, अर्श, भगंदर आदि) नष्ट हो जाते हैं |
2-इस मुद्रा को करने से दिमाग़ तेज होता है शरीर में ताकत बढ़ती है तथा उम्र लंबी होती है।वह आजीवन निरोग रहता है |
3-शौच के समय यदि इस क्रिया को बार –बार किया जाये तो शौच खुलकर आता है |
4-अश्विनी मुद्रा त्रिदोषनाशक है l बवासीर और कब्ज़ में बहुत लाभ होता है lइससे बुद्धि में इजाफा होता है l
क्या अर्थ है सिद्धि/ मुद्रायें और परमात्मा का?-
कबीर कहते हैं कि परमात्मा पाँचवें तत्व या पाँचों तत्व से भी परे हैं । अर्थात शरीर से बाहर है । ये सिर्फ़ समाधि द्वारा स्थिर हुयी विदेह अवस्था में संभव है । अथवा निजत्व में पूर्ण और निश्चयात्मक असंशय भाव से स्थिर होकर संभव है ।
संत कबीर के अनुसार;-
''संतों शब्दई शब्द बखाना ।शब्द फांस फँसा सब कोई ।
शब्द नहीं पहचाना ।प्रथमहिं ब्रह्म स्वं इच्छा ते ।
पाँचै शब्द उचारा ।सोहं निरंजन रंरकार शक्ति और ॐकारा ।
पाँचों तत्व प्रकृति । तीनों गुण उपजाया ।
लोक द्वीप चारों खान । चौरासी लख बनाया।
शब्दइ काल कलंदर कहिये । शब्दइ भर्म भुलाया ।
पाँच शब्द की आशा में । सर्वस मूल गंवाया ।
शब्दइ ब्रह्म प्रकाश मेंट के । बैठे मूंदे द्वारा
शब्दइ निरगुण शब्दइ सरगुण । शब्दइ वेद पुकारा ।
शुद्ध ब्रह्म काया के भीतर । बैठ करे स्थाना ?
ज्ञानी योगी पंडित औ । सिद्ध शब्द में उरझाना ।
पाँचइ शब्द पाँच हैं मुद्रा ।काया व्यास देव ताहि पहिचाना ।
चांद सूर्य तिहि जाना । सोहं शब्द अगोचरी मुद्रा ।
भंवर गुफा स्थाना । बीच ठिकाना ।
जो जिहसक आराधन करता । सो तिहि करत बखाना ।
शब्द निरंजन चांचरी मुद्रा । है नैनन के माँही ।
ताको जाने गोरख योगी । महा तेज तप माँही ।
शब्द ॐकार भूचरी मुद्रा । त्रिकुटी है स्थाना।
शुकदेव मुनी ताहि पहिचाना । सुन अनहद को काना ।
शब्द रंरकार खेचरी मुद्रा । दसवें द्वार ठिकाना।
ब्रह्मा विष्णु महेश आदि लो । रंरकार पहिचाना ।
शक्ति शब्द ध्यान उनमुनी मुद्रा । बसे आकाश सनेही ।
झिलमिल झिलमिल जोत दिखावे । जाने जनक विदेही ।
पाँच शब्द पाँच हैं मुद्रा । सो निश्चय कर जाना ।
आगे पुरुष पुरान निःअक्षर । तिनकी खबर न जाना ?
नौ नाथ चौरासी सिद्धि लो । पाँच शब्द में अटके
मुद्रा साध रहे घट भीतर । फिर औंधे मुख लटके।
पाँच शब्द पाँच है मुद्रा ।लोक द्वीप यम जाला ।
कहैं कबीर अक्षर के आगे। निःअक्षर का उजियाला ।
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भावार्थ;-
05 FACTS;-
1-सभी शब्द... नाम, धुनों आदि का वर्णन परमात्मा की प्राप्ति के लिये कर रहे हैं ।
और इन्हीं नकली शब्द जाल में फ़ंस कर रह गये । असली शब्द या ‘वस्तु’ की तरफ़ किसी
का ध्यान नही है।आदि सृष्टि के समय ब्रह्म ने इच्छा करते हुये 5 शब्दों को उत्पन्न किया - सोहं निरंजन रंरकार शक्ति और ॐकार ।
2-फ़िर 5 तत्व और हरेक तत्व की 5-5 = 25 प्रकृति और 3 गुणों ( सत, रज, तम ) को
उत्पन्न किया । फ़िर लोक, दीप, चार खाने ( अंडज, जरायुज, स्वेदज, वारिज ) और 84 लाख जीव जन्तुओं को बनाया ।शब्द को ही काल, खिलाङी कहिये और शब्द से ही
समस्त भ्रम उत्पन्न हुआ।
3-इन पाँच शब्दों के चक्कर में फ़ंसकर जीव अपना मूल परमात्मा को भूल गया ।
यही शब्द ब्रह्म आत्मप्रकाश छुपाकर मुक्ति या परमात्म द्वार को बन्द कर स्थित हो गये।
मनुष्य शरीर के बीच ( सभी आँखों से ऊपर ) हंस के 5 शब्द कृमशः निरंजन, ॐकार, सोहं, रंरकार, शक्ति और 5 मुद्रायें कृमशः चांचरी, भूचरी, अगोचरी, खेचरी, उनमुनी हैं ।
4- चाचरी मुद्रा, दोनों आँखें बन्द कर अन्तर में नाभि से नासिका के अग्रभाग तक द्रण होकर
सिद्ध की जाती है । भूचरी मुद्रा, सोहं - हंसो अजपा जप को प्राण ( स्वांस ) के मध्य ध्यान में
रखकर सिद्ध की जाती है । अगोचरी मुद्रा, दोनों कानों को बन्द कर अन्दर की ध्वनि सुनकर सिद्ध की जाती है ।
5-खेचरी मुद्रा में जीभ को उलटकर ब्रह्मरन्ध्र ( तालु ) और काग तक बारबार छुआकर पहुँचाकर सिद्ध की जाती है । यह मुद्रा हनुमान जी को सिद्ध थी । जिससे उन्हें उङने, छोटा -बङा शरीर आदि बना लेने की कई सिद्धियां प्राप्त थीं ।उनमनी मुद्रा में दृष्टि को भौंहों के मध्य टिकाकर मुद्रा सिद्ध की जाती है ।
क्या है 5 हंसों की मुद्राएं ?-
03 FACTS;-
1-परमात्मा ने जैसे ब्रह्माण्ड की रचना की । ठीक उसी आकार में मनुष्य शरीर की रचना की ।योग स्थितियों के साक्षात्कार और प्राप्ति के लिये की गयी क्रिया अवस्था को मुद्रा कहते हैं ।पंच मुद्राओं को भी राजयोग का साधन मानते हैं ।वैसे यह मुद्राएं सिर्फ साधकों के लिए हैं जो कुंडलिनी जागरण कर सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं।
2-खेचरी से स्वाद् अमृततुल्य होता है। भूचरी से प्राण-अपान वायु में एकता कायम होती है। चांचरी से आंखों की ज्योति बढ़ती है और ज्योतिदर्शन होते हैं। अगोचरी से आंतरिक नाद का अनुभव होता है और उन्मनी से परमात्मा के साथ ऐक्य बढ़ता है। उक्त सभी से पांचों इंद्रियों पर संयम कायम हो जाता है। ये है;–
3-ये पांच प्रमुख मुद्राएं हैं- 1.खेचरी (मुख के लिए), 2.भूचरी (नाक के लिए), 3.चांचरी (आंख के लिए), 4.अगोचरी (कान के लिए), 5.उन्मनी (मस्तिष्क के लिए)।
3-1- चाचरी ;-
चाचरी मुद्रा, दोनों आँखें बन्द कर अन्तर में नाभि से नासिका के अग्रभाग तक द्रण होकर सिद्ध की जाती है । सर्वप्रथम दृष्टि को नाक से चार अंगुल आगे स्थिर करने का अभ्यास करना चाहिए। इसके बाद नासाग्र पर दृष्टि को स्थिर करें, फिर भूमध्य में दृष्टि स्थिर करने का अभ्यास करें। इससे मन एवं प्राण स्थिर होकर ज्योति का दर्शन होता है।
3-2- भूचरी; -
भूचरी मुद्रा, सोहं - हंसो ,अजपा जप को प्राण ( स्वांस ) के मध्य ध्यान में रखकर सिद्ध की जाती है ।भूचरी मुद्रा कई प्रकार के शारीरिक मानसिक कलेशों का शमन करती है। कुम्भक के अभ्यास द्वारा अपान वायु उठाकर हृदय स्थान में लाकर प्राण के साथ मिलाने का अभ्यास करने से प्राणजय होता है, चित स्थिर होता है तथा सुषुम्ना मार्ग से प्राण संस्पर्श के ऊपर उठने की संभावना बनती है।
3-3- अगोचरी; -
अगोचरी मुद्रा, दोनों कानों को बन्द कर अन्दर की ध्वनि सुनकर सिद्ध की जाती है ।शरीर के भीतर नाद में सभी इंद्रियों के साथ मन को पूर्णता के साथ ध्यान लगाकर; कान से भीतर स्थित नाद को सुनने का अभ्यास करना चाहिए। इससे ज्ञान एवं स्मृति बढ़ती है तथा चित्त एवं इंद्रियां स्थिर होती हैं।
3-4- खेचरी; -
03 POINTS;-
1-खेचरी अथार्त जीभ को उलटकर ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँचाकर स्थिर करना ।खेचरी मुद्रा में जीभ को उलटकर ब्रह्मरन्ध्र ( तालु ) और काग तक बारबार छुआकर पहुँचाकर सिद्ध की जाती है । यह मुद्रा हनुमान जी को सिद्ध थी ।जिससे उन्हें उङने, छोटा बङा शरीर आदि बना लेने की कई सिद्धियां प्राप्त थीं
2-इसके लिए जीभ और तालु को जोड़ने वाले मांस-तंतु को धीरे-धीरे काटा जाता है, अर्थात एक दिन जौ भर काट कर छोड़ दिया जाता है। फिर तीन-चार दिन बाद थोड़ा-सा और काट दिया जाता है। इस प्रकार थोड़ा-थोड़ा काटने से उस स्थान की रक्त शिराएं अपना स्थान भीतर की तरफ बनाती जाती हैं। जीभ को काटने के साथ ही प्रतिदिन धीरे-धीरे बाहर की तरफ खींचने का अभ्यास किया जाता है।
3-इसका अभ्यास करने से कुछ महिनों में जीभ इतनी लम्बी हो जाती है कि यदि उसे ऊपर की तरफ उल्टा करें तो वह श्वास जाने वाले छेदों को भीतर से बन्द कर देती है। इससे समाधि के समय श्वास का आना-जाना पूर्णतः रोक दिया जाता है।
3-5- उनमनी; -
उनमनी अथार्त द्रष्टि को भौंहों के मध्य टिकाना ।सहस्त्रार (जो सर की चोटी वाला स्थान है) में पूर्ण एकाग्रता के साथ मन को लगाने का अभ्यास करने से आत्मा परमात्मा की ओर गमन करने लगती है और व्यक्ति ब्रह्मांड की चेतना से जुड़ने लगता है।
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क्या है 5 परमहंसों की मुद्राएं ?-
ये 5 विशेष और परमहंसों की मुद्राएं हैं । उनका साक्षात्कार प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है ।
05 FACTS;-
1-शाम्भवी ;- जीवों में संकल्प से प्रवेश कर उनके अन्तःकरण का अनुभव करना
2- सनमुखी; - संकल्प से ही सभी कार्य होने लगे ।
3- सर्वसाक्षी ;- स्वयं को, तथा परमात्मा को सबमें देखना ।
4- पूर्णबोधिनी ;- जिसका विचार ( या इच्छा ) करता है । उसकी पूर्ति तथा बोध पल भर में ही हो जाता है । एक ही जगह स्थित सम्पूर्ण जगत की बात जानना ।
5- उनमीलनी ;- अनहोने कार्य करने की सिद्धि ।उनमनी मुद्रा में दृष्टि को भौंहों के मध्य टिकाकर मुद्रा सिद्ध की जाती है ।
;यौन ऊर्जा को शक्ति (Power) में बदलना एक प्राचीन तकनीक है, जिसे विभिन्न आध्यात्मिक और योगिक परंपराओं में अत्यधिक महत्व दिया गया है। इस प्रक्रिया में यौन ऊर्जा को बचाकर, नियंत्रित करके और उसे उच्च मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक उद्देश्यों की ओर ले जाया जाता है। यह प्रक्रिया "ऊर्जा के संवर्धन" (Energy Transmutation) के सिद्धांत पर आधारित है।
1. यौन ऊर्जा का महत्व समझें
यौन ऊर्जा आपके शरीर में सबसे शक्तिशाली ऊर्जा है। इसे सृजन और निर्माण की ऊर्जा कहा जाता है। जब इसे सही तरीके से निर्देशित किया जाता है, तो यह:
- मानसिक स्पष्टता बढ़ा सकती है।
- शारीरिक शक्ति और सहनशक्ति को सुधार सकती है।
- आध्यात्मिक उन्नति में मदद कर सकती है।
2. ब्रह्मचर्य (Celibacy) और संयम का अभ्यास करें
- यौन ऊर्जा को नियंत्रित करने का पहला कदम है इच्छाओं को संयमित करना।
- पूरी तरह से ब्रह्मचर्य अपनाना आवश्यक नहीं है, लेकिन अनावश्यक यौन गतिविधियों से बचें।
- ध्यान दें कि ऊर्जा आपके शरीर में बर्बाद न हो और इसे सही दिशा में परिवर्तित करें।
3. ध्यान (Meditation) और प्राणायाम (Breathing Techniques)
- ध्यान:
- रोज़ 15-20 मिनट ध्यान करें।
- मन को यौन इच्छाओं से हटाकर एक सकारात्मक उद्देश्य पर केंद्रित करें।
- "सहज ध्यान" या "चक्र ध्यान" मददगार हो सकता है।
- प्राणायाम:
- भस्त्रिका प्राणायाम और कपालभाति प्राणायाम यौन ऊर्जा को जागृत कर उसे ऊपर उठाने में सहायक हैं।
- सांसों को नियंत्रित करके ऊर्जा को मस्तिष्क (सहस्रार चक्र) तक पहुंचाएं।
4. मुद्रा और बंध (Body Locks)
योग में कुछ विशेष मुद्राएं और बंध (Locks) ऊर्जा को ऊपर उठाने में सहायक होते हैं:
- मूलबंध (Root Lock):
- गुदा और जननेंद्रियों को अंदर खींचकर कसें।
- यह ऊर्जा को नीचे से ऊपर ले जाने में मदद करता है।
- उड्डीयान बंध (Abdominal Lock):
- पेट को अंदर की ओर खींचकर सहारा दें।
- यह नाभि केंद्र की ऊर्जा को जागृत करता है।
- जालंधर बंध (Throat Lock):
- गले को लॉक करके ऊर्जा को सिर की ओर निर्देशित करें।
5. चक्र जागरण और ऊर्जा संवर्धन
यौन ऊर्जा मूलाधार चक्र (Root Chakra) में निहित होती है। इसे उच्च चक्रों (सहस्रार, अनाहत, और मणिपुर चक्र) की ओर निर्देशित करें:
- योग क्रियाएं:
- कुंडलिनी योग का अभ्यास करें।
- "ऊं" का जाप ऊर्जा को उच्चतर केंद्रों तक ले जाता है।
- चक्र ध्यान:
- अपनी ऊर्जा को धीरे-धीरे नाभि, हृदय, और मस्तिष्क तक ले जाएं।
6. सृजनात्मक गतिविधियों में ऊर्जा लगाएं
अपनी यौन ऊर्जा को सृजनात्मक और उत्पादक कार्यों में लगाएं:
- कला, संगीत, लेखन या किसी नए प्रोजेक्ट पर काम करें।
- शारीरिक ऊर्जा का उपयोग खेल या व्यायाम में करें।
7. आहार और जीवनशैली पर ध्यान दें
- सात्विक आहार: ऊर्जा को शुद्ध और नियंत्रित रखने के लिए सात्विक भोजन (फल, सब्जियां, अनाज) खाएं।
- शराब और मादक पदार्थों से बचें: ये ऊर्जा को कमजोर करते हैं।
- शरीर को स्वस्थ रखें: नियमित व्यायाम करें और पर्याप्त नींद लें।
8. सकारात्मक आदतें अपनाएं
- दिनचर्या में अनुशासन रखें।
- अपने उद्देश्य और लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करें।
- यौन विचारों से ध्यान हटाने के लिए सकारात्मक संगति और वातावरण में रहें।
9. तंत्र और मंत्र का सहारा लें
- तंत्र परंपरा में यौन ऊर्जा को जागृत और नियंत्रित करने की तकनीकें सिखाई जाती हैं।
- मंत्र जाप जैसे "ॐ नमः शिवाय" या "ॐ" आपकी ऊर्जा को स्थिर और उच्चतर बना सकते हैं।
10. प्रेरणादायक उद्देश्यों की ओर रुख करें
- अपनी यौन ऊर्जा को एक बड़े उद्देश्य की ओर समर्पित करें।
- समाजसेवा, आत्म-विकास, या किसी बड़े लक्ष्य के प्रति समर्पण इस ऊर्जा को सही दिशा देगा।
निष्कर्ष
यौन ऊर्जा को शक्ति में बदलना एक प्रक्रिया है जिसमें धैर्य, अनुशासन, और नियमित अभ्यास की आवश्यकता होती है। यह न केवल आपकी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा को बढ़ाएगा बल्कि आपके जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन और सफलता लाएगा।