बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

Osho Prvachan in Hindi Whatsapp ke liye, काम-क्रोध का रूपांतरण




..........🌹प्रिया आत्मन🌹..............
                                           इस जगत में वरदानों को अभिशाप बनाने वाले लोग हैं; इस जगत में अभिशापों को वरदान बना लेने वाले लोग भी हैं। अगर काम-क्रोध बहुत हो, तो भी परमात्मा को धन्यवाद देना कि शक्ति पास में है। अब रूपांतरित करना अपने हाथ में है। काम-क्रोध बिलकुल न हो, तो बहुत कठिनाई है। बहुत कठिनाई है। शक्ति ही पास में नहीं है, रूपांतरित क्या होगा!
इसलिए काम-क्रोध बहुत होने से परेशान न हो जाना, सिर्फ विचारमग्न होना। और काम-क्रोध को रूपांतरित करने की यह बहुत वैज्ञानिक विधि है। कहनी चाहिए जितनी वैज्ञानिक हो सकती है उतनी कृष्ण ने कही है, श्वास सम, ध्यान आज्ञा-चक्र पर। इसका अभ्यास करते रहें। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे जो मैंने कहा है, वह आपके खयाल में आना शुरू हो जाएगा। धीरे-धीरे एक दिन वह आ जाएगा कि भीतर की सारी ऊर्जा रूपांतरित हो जाएगी।
ऐसा भी नहीं है कि…लोग मुझसे पूछते हैं कि अगर ऐसा हो गया कि सारा क्रोध खो गया, सारा काम खो गया, सारी ऊर्जा संकल्प बन गई, तो इस जगत में जीएंगे कैसे? इस जगत में क्रोध की भी कभी जरूरत पड़ती है।
निश्चित पड़ती है। लेकिन ऐसा व्यक्ति भी क्रोध कर सकता है, पर ऐसा व्यक्ति क्रोधित नहीं होता। ऐसा व्यक्ति क्रोध कर सकता है, लेकिन ऐसा व्यक्ति क्रोधित नहीं होता। ऐसा व्यक्ति क्रोध का भी उपयोग कर सकता है; लेकिन वह उपयोग है। जैसे आप अपने हाथ को ऊपर उठाते हैं, नीचे गिराते हैं। यह बीमारी नहीं है। लेकिन हाथ ऊपर-नीचे होने लगे, और आप कहें कि मैं रोकने में असमर्थ हूं; यह तो होता ही रहता है; यह मेरे वश के बाहर है–तब बीमारी है।
क्रोध उपयोग किया जा सकता है। लेकिन केवल वे ही उपयोग कर सकते हैं, जो क्रोध के बाहर हैं। हमारा तो क्रोध ही उपयोग करता है; हम क्रोध का उपयोग नहीं करते। हमारे ऊपर तो हमारी इंद्रियां ही हावी हो जाती हैं।
क्या काम का उपयोग नहीं हो सकता? इस मुल्क ने तो बहुत वैज्ञानिक प्रयोग किए हैं इस दिशा में भी। बहुत सैकड़ों वर्षों तक, अगर किसी को पुत्र न हो, तो ऋषि-मुनि से भी पुत्र मांगा जा सकता था अपनी पत्नी के लिए। ऋषि-मुनि से भी प्रार्थना की जा सकती थी कि एक पुत्र दान दे दो। बहुत हैरानी की बात है!
जब पश्चिम के लोगों को पहली दफा पता चला, तो उन्होंने कहा, कैसे अजीब लोग रहे होंगे! पहली तो बात कि वे ऋषि-मुनि, वे क्या संभोग के लिए राजी हुए होंगे? और दूसरी बात, यह कैसा अनैतिक कृत्य कि कोई आदमी अपनी पत्नी के लिए पुत्र मांगने जाए! उनकी समझ के बाहर पड़ी बात। मिस मियो ने और जिन लोगों ने भारत के खिलाफ बहुत कुछ लिखा, इस तरह की सारी बातें इकट्ठी कीं। पर उन्हें कुछ पता नहीं। अब मिस मियो अगर जिंदा होती, तो उसको पता चलता कि अब पश्चिम भी सोच रहा है।
पश्चिम सोच रहा है कि सभी लोग अगर बच्चे पैदा न करें, तो बेहतर है। क्योंकि पश्चिम कह रहा है कि जब हम बीज चुनकर बेहतर फूल, बेहतर फल पैदा कर सकते हैं, तो हम वीर्य चुनकर भी बेहतर व्यक्ति क्यों पैदा नहीं कर सकते हैं! आज नहीं कल पश्चिम में वीर्य भी चुना हुआ होगा। उनके रास्ते टेक्नोलाजिकल होंगे।
लेकिन एक ऋषि के पास जाकर कोई प्रार्थना करे, तो ऋषि का तो काम विसर्जित हो गया है। इसीलिए ऋषि से प्रार्थना की जा सकती थी। जिसकी कोई कामना नहीं रही, जिसकी कोई वासना नहीं रही, उसी से तो पवित्रतम वीर्य की उपलब्धि हो सकती है। जिसकी कोई इच्छा नहीं है, शरीर को भोगने का जिसका कोई खयाल नहीं है, वह भी अपने शरीर को दान कर सकता है।
ध्यान रहे, वीर्य कोई आध्यात्मिक चीज नहीं है, शारीरिक, फिजियोलाजिकल घटना है। और जब आप मरेंगे, तो आपका सारा वीर्य आपके शरीर के साथ नष्ट हो जाएगा। वह कोई आत्मिक चीज नहीं है कि आपके साथ चली जाएगी। शरीर का दान है।
ऋषि-मुनि जानते हैं कि उनका शरीर तो खो जाएगा, लेकिन अगर उनके शरीर से कुछ भी उपयोग हो सकता है, तो उतना उपयोग भी किया जा सकता है। ये बहुत हिम्मतवर लोग रहे होंगे। साधारण हिम्मत से यह काम होने वाला नहीं था।
इस संकल्प की स्थिति के बाद भी काम और क्रोध का उपयोग किया जा सकता है, इंस्ट्रूमेंट की तरह। न किया जाए, तो कोई मजबूरी नहीं है। फिर व्यक्तियों पर निर्भर करता है कि उपयोग करेंगे, नहीं करेंगे। एक बात पक्की है कि काम और क्रोध आपका उपयोग नहीं कर सकते।
इसीलिए इस चक्र को आज्ञा-चक्र नाम दिया गया कि जिस व्यक्ति का इस चक्र पर कब्जा हो जाता है, उसकी इंद्रियां उसकी आज्ञा मानने लगती हैं। और जिस व्यक्ति का इस चक्र पर अधिकार नहीं है, उसे अपनी इंद्रियों की आज्ञा माननी पड़ती है। इस चक्र के इस पार इंद्रियों की आज्ञा है; उस पार अपनी मालकियत शुरू होती है। इसलिए उस चक्र को दि आर्डर, आज्ञा ही नाम दे दिया गया। इस तरफ रहोगे, तो इंद्रियों की आज्ञा माननी पड़ेगी। उस तरफ रहोगे, तो इंद्रियों को आज्ञा दे सकते हो।
                                                                                  Osho
                                                                                  गीता दर्शन–(प्रवचन–047)


..........🌹प्रिया आत्मन🌹..............
                                           🌞ऊर्जा तो ऊर्जा है 🌞

                                                                                      ऊर्जा तो केवल ऊर्जा है वह अच्छी या बुरी नहीं होती, इसका उपयोग अच्छा या बुरा होता है। दुनिया में हर शाक्ति केवल शाक्ति है।जैसे विद्युत एक शाक्ति है ,आग एक शक्ति है। हम आग से भोजन बना सकते हैं या घर में आग भी लगा सकते हैं ।झ्सके उपयोग में इरादे बुरे हो सकते हैं ।शाक्ति अपने स्वभाव के अनुकूल ही कार्य करती है । यह नहीं कह सकती है कि नहीं हम यह कार्य नहीं करेंगे क्योकि यह कार्य बुरा है ।यह भी नहीं कहेगी कि हम यह कार्य करेंगे क्योंकि यह कार्य अच्छा है।
इसी प्रकार मन भी एक शाक्ति है । मन को जिस् भी भाँति संस्कारित किया जाय अथवा प्रशिक्षित किया जाय तो वह उसी प्रकार से कार्य करना प्रारम्भ कर देता है । क्योंकि मन तो ऊर्जा के सिद्धांत पर ही कार्य करता है। किसी भी वस्तु के दो पहलू होते है।यदि किसी चीज का उपयोग सृजनात्मक हो सकता है तो वही चीज विध्वंसक भी हो सकती है । अब कोई चीज सृजनात्मक रहे तो इसके लिए उपयोगकर्ता को शाक्ति के प्रवाह की एक दिशा निर्धारित्त करने की आवश्यकता होती है एवं सतत आवजर्वेशन की आवश्यकता होती है ।मन भी एक शाक्ति है तो इसके साथ भी यही नियम लागू होता है। इसके भी प्रवाह की एक दिशा निर्धारित करने एवं सतत अजर्वेशन की आवश्यकता हैं। यह कार्य विना साक्षीभाव के संभव नही हो पाता । मन के स्तर पर विलाप करने से कुछ नहीं होगा । इसका यदि समाधान है तो समाधि से ,जिसके लिए साक्षी भाव आनिबार्य कुंजी है।
                                                                                                             ओशो की प्रेरणा 🌺🌷🌷🌺
                                                                                                             मंदिर के आंतरिक अर्थ 


..........🌹प्रिया आत्मन🌹..............
                                              अभी सिर्फ चालीस साल पहले काशी में एक साधु हुए हैं विशुद्धानन्द। सिर्फ ध्वनियों के विशेष आघात से किसी की भी मृत्यु हो सकती थी, ऐसे सैकड़ों प्रयोग विशुद्धानन्द ने करके दिखाए। वह साधु अपने बन्द मन्दिर के गुम्बज में बैठा था जो बिलकुल 'अनहाईजीनिक' था।
पहली दफा तीन अंग्रेज डाक्टरों के सामने प्रयोग किया गया। वे तीनों अंग्रेज डाक्टर एक चिड़िया को लेकर अन्दर गए। विशुद्धानन्द ने कुछ ध्वनियां कीं, वह चिड़िया तड़फडायी और मर गयी। उन तीनों ने जांच कर ली कि वह मर गयी। तब विशुद्धानन्द ने दूसरी ध्वनियां कीं, वह चिड़िया तड़फड़ायी और जिन्दा हो गयी! तब पहली दफा शक पैदा हुआ कि ध्वनि के आघात का परिणाम हो सकता है! अभी हम दूसरे आघातों के परिणामों को मान लेते हैं क्योंकि उनको विज्ञान कहता है।
हम कहते है कि विशेष किरण आपके शरीर पर पड़े तो विशेष परिणाम होंगे। विशेष औषधि आपके शरीर में डाली जाए तो विशेष परिणाम होंगे। विशेष रंग विशेष परिणाम लाते हैं। लेकिन विशेष ध्वनि क्यों नहीं? अभी तो कुछ प्रयोगशालाएं पश्‍चिम में, ध्वनियों का जीवन से क्या संबंध हो सकता है, इस पर बड़े काम में रत है।
दो तीन प्रयोगशालाओं में बड़े गहरे परिणाम हुए हैं। इतना तो बिलकुल साफ हो गया है कि विशेष ध्वनि का परिणाम, जिस मां की छाती से दूध नहीं निकल रहा है, उसकी छाती से दूध लाया जा सकता है। विशेष ध्वनि करने पर जो पौधा छह महीने में फूल देता है वह दो महीने में फूल दे सकता है। जो गाय जितना दूध देती है उससे दुगुना दे सकती है—विशेष ध्वनि पैदा की जाए तो।
आज रूस की डेअरीज में बिना ध्वनि के कोई गाय से दूध नहीं दुहा जा रहा है। और बहुत जल्दी कोई फल, कोई सब्जी बिना ध्वनि के पैदा नहीं होगी। क्योंकि प्रयोगशाला में तो यह सिद्ध हो गया है, अब व्यापक फैलाव की बात है। अगर फल, सब्जी, दूध और गाय ध्वनि से प्रभावित होते हैं, तो कोई कारण नहीं है कि आदमी प्रभावित न हो।
स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य ध्वनि की विशेष तरंगों पर निर्भर है। इसलिए तब बहुत गहरी 'हाईजीनिक' व्यवस्था थी जो हवा से बंधी हुई नहीं थी। सिर्फ हवा मिल जाने से ही कोई स्वास्थ्य आ जाने वाला है, ऐसी धारणा नहीं थी। नहीं तो यह असम्भव है, कि पांच हजार साल के लम्बे अनुभव में यह खयाल में न आ गया होता! हिन्दुस्तान का साधु बन्द गुफाओं में बैठा है जहां रोशनी नहीं जाती, हवा नहीं जाती। बन्द मंदिरों में बैठा है। छोटे दरवाजे हैं, जिनमें से झुककर अन्दर प्रवेश करना पड़ता है। कुछ मंदिरों में तो रेंगकर ही अन्दर प्रवेश करना पड़ता है। फिर भी स्वास्थ्य पर इसका कोई बुरा परिणाम कभी नहीं हुआ था।
हजारों साल के अनुभव में कभी नहीं आया कि इनका स्वास्थ्य पर बुरा परिणाम हुआ है। पर जब पहली दफा संदेह उठा तो हमने अपने मंदिरों के दरवाजे बड़े कर लिए। खिड़कियां लगा दीं। हमने उनको 'माडर्नाइज' किया, बिना यह जाने हुए कि वह 'माडर्नाइज' होकर साधारण मकान हो जाते हैं। उनकी वह 'रिसेटिविटी' खो जाती है जिसके लिए वह कुंजी है।
                                     ओशो 


..........🌹प्रिया आत्मन🌹..............
                                             जिस व्यक्ति को संभोग का कोई अनुभव नहीं होता, वह अक्सर समाधि की तलाश में निकल जाता है। वह अक्सर सोचता है कि संभोग से कुछ
नहीं मिलता, समाधि कैसे पाऊं? लेकिन उसके पास झलक भी नहीं है,
जिससे वह समाधि की यात्रा पर निकल सके।
स्त्री-पुरुष का मिलन एक गहरा मिलन है। और जो व्यक्ति उस छोटे से मिलन को भी उपलब्ध नहीं होता, वह स्वयं के और अस्तित्व के मिलन को उपलब्ध नहीं हो सकेगा। स्वयं का और अस्तित्व का मिलन तो और बड़ा मिलन है, विराट मिलन है। यह तो बहुत छोटा सा मिलन है। लेकिन इस छोटे मिलन में भी अखंडता घटित होती हैछोटी मात्रा में। एक और विराट मिलन है, जहां अखंडता घटित होती हैस्वयं के और सर्व के मिलन से। वह एक बड़ा संभोग है, और शाश्वत संभोग है।
यह मिलन अगर घटित होता है, तो उस क्षण में व्यक्ति निर्दोष हो जाता है। मस्तिष्क खो जाता है; सोच-विचार विलीन हो जाता है; सिर्फ होना,
मात्र होना रह जाता है, जस्ट बीइंग। सांस चलती है, हृदय धड़कता है,
होश होता है; लेकिन कोई विचार नहीं होता। संभोग में एक क्षण को व्यक्ति निर्दोष हो जाता है।
अगर आपके भीतर की स्त्री और पुरुष के मिलने की कला आपको जाए, तो फिर बाहर की स्त्री से मिलने की जरूरत नहीं है। लेकिन बाहर की स्त्री से मिलना बहुत आसान, सस्ता; भीतर की स्त्री से मिलना बहुत कठिन और दुरूह। बाहर की स्त्री से मिलने का नाम भोग; भीतर की स्त्री से मिलने का नाम योग। वह भी मिलन है। योग का मतलब ही मिलन है।
यह बड़े मजे की बात है। लोग भोग का मतलब तो समझते हैं मिलन और योग का मतलब समझते हैं त्याग। भोग भी मिलन है, योग भी मिलन है। भोग बाहर जाकर मिलना होता है, योग भीतर मिलना होता है। दोनों मिलन हैं। और दोनों का सार संभोग है। भीतर, मेरे स्त्री और पुरुष जो मेरे भीतर हैं, अगर वे मिल जाएं मेरे भीतर, तो फिर मुझे बाहर
की स्त्री और बाहर के पुरुष का कोई प्रयोजन रहा। और जिस व्यक्ति के भीतर की स्त्री और पुरुष का मिलन हो जाता है, वही ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। भोजन कम करने से कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होता; स्त्री से, पुरुष से भाग कर कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। आंखें बंद कर लेने से, सूरदास हो जाने सेआंखें फोड़ लेने सेकोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होने का एकमात्र उपाय है: भीतर की स्त्री और पुरुष का मिल जाना।
                                                  ओशो 

ओशो के उपरोक्त पुरे प्रवचन सुनने के लिए उनके ऑफिसियल वेब साईट पर जाए. 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Please Do not Enter Any Spam Link in the Comment Box.
कृपया कमेंट बॉक्स में कोई स्पैम लिंक न डालें।

शास्त्रों के अनुसार मित्रता वाले नक्षत्र, शत्रुता वाले नक्षत्र एवं ग्रहों से सम्बन्ध

शास्त्रों के अनुसार किस नक्षत्र की किस नक्षत्र से मित्रता तथा किस नक्षत्र से शत्रुता एवं किस से सम भाव रहता है?   शास्त्रों में नक्षत्रों के...