*तुम जहा हो वहां मन नहीं हो सकता*
मन के कुछ नियम हैं; मन के कुछ खेल हैं; उनमें एक नियम यह है कि जो चीज उपलब्ध हो जाए, मन उसे भूलने लगता है। जो मिल जाए, उसकी विस्मृति होने लगती है। जो पास हो, उसे भूल जाने की संभावना बढ़ने लगती है। मन उसकी तो याद करता है, जो दूर हो; मन उसके लिए तो रोता है, जो मिला न हो; जो मिल जाए, मन उसे धीरे— धीरे भूलने लगता है। मन की आदत भविष्य में होने की है, वर्तमान में होने की नहीं।
मन के इस नियम को समझना और तोड़ना जरूरी है। इसको तोड़ दो वही ध्यान है। ध्यान का अर्थ है : जो है, उसके प्रति जागो — जो नहीं है, उसकी फिक्र छोड़ो। और मन का नियम यह है : जो है, उसके प्रति सोए रहो, जो नहीं है, उसके प्रति जागते रहो। मन का सारा खेल अभाव के साथ संबंध बनाने का है।
तो जहां तुम पहुंच जाते हो, मन वहा से हट जाता है। मन आगे दौड़ने लगता है। कहीं और जाता है। मन सदा तुमसे आगे दौड़ता रहता है। तुम जहां हो, वहां कभी नहीं होता। तुम मंदिर में हो, वह दुकान में है। तुम दुकान में, वह मंदिर में। तुम बाजार में हो तो वह हिमालय की सोचता है। तुम हिमालय पहुंच जाओ, वह बाजार की सोचने लगता है।
मन की इस व्यवस्था को थोड़ा समझो और मन को यह खेल और मत खेलने दो। अन्यथा बहुत बार.. सदा ही ऐसा हुआ है। बुद्ध के पास जो लोग थे, वंचित रह गए। और फिर अब हजारों साल से याद कर रहे हैं। अब रोते हैं। अब आंसू बहाते हैं, अब मंदिर बनाते हैं, पूजा करते हैं। और यह आदमी मौजूद था कभी, तब ऐसी भी घड़ियां आयीं कि बुद्ध किसी गांव से गुजरे हैं और तुम अपनी दुकान पर बैठे थे और काम बहुत था और तुम बुद्ध को देखने भी न गए।
ऐसा हुआ। बुद्ध जब मरने लगे तो एक आदमी भागा हुआ आया। उसने कहा कि तीस साल से मैं सोचता था, जाना है... जाना है…। आप मेरे गाव से कोई दस बार निकले, लेकिन कभी शादी थी घर में, कभी पत्नी बीमार थी, कभी दुकान पर ग्राहक थे, कभी मेहमान आ गए थे। मैंने सोचा, फिर कभी. फिर कभी. फिर कभी.। मगर अभी मुझे पता चला कि आप अब संसार ही छोड़ रहे हैं तो मैं भागा आ गया हूं। बुद्ध ने कहा, फिर भी तुमने जल्दी की है। कुछ हैं, जो मैं छोड़ ही चुकूंगा, तब आएंगे। फिर भी देर—अबेर, तुम आ गए—तीस साल बाद सही। मगर कुछ हैं, जब मैं जा चुका होऊंगा, तब आएंगे।
अब बुद्ध को हजारों साल तक लोग याद करेंगे। अब उस याद से कुछ भी बहुत होता नहीं।
मन की इस वृत्ति को त्यागो, छोड़ो। समझो और छोड़ो। वर्तमान में जीना सीखो। जहां हो, वहां होना सीखो। यह सवाल मेरा ही नहीं है, अगर वृक्ष के पास बैठे हो तो वृक्ष के पास ही रहो; फिर मत भागो दूर—दूर। संसार बड़ा है, विस्तार बड़ा है, मत भागो दूर—दूर। इस छोटे से पौधे के पास ही हो जाओ। थोड़ी देर इसके पास ही रहो। जब हो तो पास ही रहो। जो करो, उस कृत्य में पूरे मौजूद हो जाओ। भोजन करो तो भोजन ही करो और कुछ न करो। स्नान करो तो स्नान ही करो और कुछ न करो। और तुम अचानक चकित हो जाओगे, यह स्नान भी प्रार्थना बन गया। स्नान भी पूजा हो गई। भोजन भी भगवान को लगाया भोग हो गया।
ऐस धम्मो सनंतनो
ओशो
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