बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

Osho Prvachan, ओशो प्रवचन, 1:45:39 min in Whatsapp




..........🌹प्रिया आत्मन🌹..............

लाओत्से ने चुंगी की कीमत चुकाने के लिए अपने देश को जो खज़ाना दिया उसका नाम ‍है‘ताओ तेह किंग’, जिसका प्रारंभ कुछ ऐसे होता है : ‘सत्य कहा नहीं जा सकता और जो कहा जा सकता है वह सत्य नहीं है।’ उसी सत्य को ‘जनाने’ का प्रयास है ताओ उपनिषद। इस उपनिषद पर ओशो के 127 प्रवचन हैं। प्रारंभ में ओशो कहते हैं : ‘जो भी सत्य को कहने चलेगा, उसे पहले ही कदम पर जो बड़ी से बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाती है वह यह कि शब्द में डालते ही सत्य असत्य होजाता है।’ ताओ का अर्थ है—पथ, मार्ग। और लाओत्सु कहते हैं कि ‘जिस पथ पर विचरण किया जा सके वह सनातन और अविकारी पथ नहीं है।’ इस पथ पर जलवत होना, स्त्रैण-चित्त होना, घाटी-सदृश होना—127 प्रवचनों की यह प्रवचन शृंखला एक ही बात की ओर इंगित करती है कि अस्तित्व के साथ लड़ने में नहीं, उसके साथ बहने में ही हमारा कल्याण है। अत: जलालुद्दीन रूमी के हमसफर हंसों की भांति ओशो हमें नि:शब्द शब्दों के जरिए आकाश के राजमार्ग की उड़ान दे देते हैं जहां पीछे कोई पगचिन्ह नहीं, बस वही अंतहीन पथ है, वही गंतव्य है।

ओशो   
            🍀ओशो प्रवचन🍀
         ❤ताओ उपनिषद-93❤
                :45:39  min

जब ध्यान में ज्यादा समय तक बैठ नहीं पाते

..........🌹प्रिया आत्मन🌹..............

मैं लोगों को सीधे बैठने भर से ही शुरू करने को नहीं कहता। शुरू ऐसी जगह से करो जहां से शुरू करना सरल हो। वर्ना तो व्यर्थ ही तुम्हें बहुत कुछ लगने लगेगा —जो वास्तव में है नहीं।
     यदि तुम सीधे बैठने से शुरू करते हो, तो भीतर बड़ी बैचेनी अनुभव करोगे। जितना तुम बैठने का प्रयास करोगे, उतनी ही अशांति अनुभव होगी। तुम्हें बस अपने विक्षिप्त मन का ही पता चलेगा, किसी और चीज का नहीं। इससे विषाद पैदा होगा, तुम हताश हो जाओगे, आनंदित अनुभव नहीं करोगे। बल्कि, तुम्हे लगने लगेगा कि तुम विक्षिप्त हो गए। और कोई बार तुम वास्तव में विक्षिप्त भी हो सकते हो!
     यदि तुम ईमानदारी से 'मात्र बैठने' का प्रयास करो तो विक्षिप्त भी हो सकते हो। लोग क्योंकि ईमानदारी से प्रयास नहीं करते, इसीलिए अधिक विक्षिप्तता नहीं घटती। थिर बैठने की मुद्रा में तुम्हे भीतर की इतनी विक्षिप्तता का पता लगना शुरू हो जाता है कि यदि तुम इसे निष्ठापूर्वक जारी रखो तो सच में विक्षिप्त हो सकते हो। ऐसा पहले बहुत बार हुआ है। तो मैं कभी भी किसी ऐसी चीज की सलाह नहीं देता जो निराशा, विषाद या उदासी पैदा कर सके... जो तुम्हें अपनी विक्षिप्तता के प्रति बहुत ज्यादा सचेत कर दे। हो सकता है कि अपने भीतर की पूरी विक्षिप्तता के प्रति जाग पाने की तुम्हारी तैयारी न हो।
     कुछ बातें तुम्हें धीरे-धीरे पता लगने देनी चाहिए। ज्ञान सदा शुभ नहीं होता। जैसे-जैसे उसे पचाने की तुम्हारी क्षमता बढती जाए, उसे वैसे ही धीरे-धीरे खुलना चाहिए।
     मैं तुम्हारी विक्षिप्तता से ही शुरू करता हूँ, बैठने की मुदा से नहीं। मैं तुम्हारे पागलपन को चलने देता हूं। यदि तुम पागल की तरह नाचो, तो उसका विपरीत तुम्हारे भीतर घटित होगा। तेज नृत्य में तुम्हें अपने भीतर एक शांत बिंदु का पता लगना शुरू होता है, शांत बैठने से तुम्हें विक्षिप्तता का पता लगने लगता है। सदा विपरीत का ही पता चलता है।
     पागलों की तरह, अव्यवस्थित रूप से नाचने में, रोने में, अराजक श्वास प्रक्रिया में मैं तुम्हें पागल होने देता हूं। फिर सतह के पागलपन के विपरीत तुम्हें एक ऐसे सूक्ष्म बिंदु, अपने भीतर के एक ऐसे गहन बिंदु का पता लगने लगता है जो शांत और स्थिर है। तुम बहुत आनंदित अनुभव करोगे, तुम्हारे केंद्र पर एक आंतरिक मौन होगा। लेकिन यदि तुम सीधे थिर बैठते हो तो भीतर विक्षिप्तता ही होगी। बाहर से तुम शांत हो, पर भीतर से विक्षिप्त हो।

    यदि तुम किसी सक्रिय विधि से शुरू करो —जो विधायक हो, जीवंत हो, गतिमय हो - तो बेहतर होगा। फिर तुम भीतर एक स्थिरता को विकसित होता हुआ अनुभव करोगे। जितनी वह स्थिरता विकसित होगी उतना ही तुम्हारे लिए किसी बैठने अथवा लेटने की मुद्रा का उपयोग कर पाना संभव होगा —कोई अधिक शांत ध्यान विधि संभव हो सकेगी।
                                ओशो
                             ध्यान योग

..........🌹प्रिया आत्मन🌹..............

संदेह पैदा क्यों होता है ?दुनियामें संदेह पैदा होता है झूठी श्रद्धा थोप देनेके कारण। छोटा बच्चा है,तुम कहते हो मंदिर चलो। छोटा बच्चा पुछता है किस लिए?अभी मैं खेल रहा हूं! तुम कहते हो, मंदिरमें और ज्यादा आनंद आएगा।
        और छोटे बच्चेको वह आनंद नहीं आता, तुम तो श्रद्धा सिखा रहे हो और बच्चा सोचता है, ये कैसा आनंद, यहां बड़े-बड़े बैठे है उदास, यहां दौडभी नहीं सकता, खेलभी नहीं सकता। नाच भी नहीं सकता, चीख पुकार नहीं कर सकता, यह कैसा आनंद। फिर बाप कहता है, झुको, यह भगवान की मूर्ति है। बच्चा कहता है भगवान ?यह तो पत्थर की मूर्तिको कपड़े पहना रखे है। झुको अभी, तुम छोटे हो अभी तुम्हारी बात समझमें नहीं आएगी।
         ध्यान रखना तुम सोचते हो तुम श्रद्धा पैदा कर रहे हो!वह बच्चा‍ सर तो झुका लेगा लेकिन जानता है, कि यह पत्थरकी मूर्ति है। उसे न केवल इस मूर्तिपर संदेह आ रहा है;अब तुम परभी संदेह आ रहा है, तुम्हारी बुद्धिपरभी संदेह आ रहा है। अब वह सोचता है ये बाप भी कुछ मूढ़ मालूम होता है। कह नहीं सकता, कहेगा, जब तुम बूढे हो जाओगे, मां-बाप पीछे परेशान होते है, वे कहते है कि क्या मामला है?
        बच्चे हमपर श्रद्धा क्यों नहीं रखते, तुमने नष्ट करवा दी श्रद्धा। तुमने ऐसी-ऐसी बातें बच्चे पर थोपी, बच्चेका सरल ह्रदय तो टुट गया। उसके पीछे संदेह पैदा हो गया!
         झूठी श्रद्धा कभी संदेहसे मुक्त होतीही नहीं, वह संदेहकी जन्मदात्री है। मुझे पहली दफा मंदिर ले जाया गया, और कहा की झुको, मैंने कहा, मुझे झुका दो, क्योंकि मुझे झुकने जैसा कुछ नजर आ नहीं रहा।
          पर मैं कहता हूं, मुझे अच्छे बड़े बूढे मिले, मुझे झुकाया नहीं गया। कहा, ठीक है जब तेरा मन करे तब झुकना, उसके कारण अबभी मेरे मनमे अपने बड़े-बूढ़ो के प्रति श्रद्धा है। ख्याल रखना, किसी पर जबरदस्ती़ थोपना मत, थोपने का प्रतिकार है संदेह। जिसका अपने मां-बापपर भरोसा खो गया, उसका अस्तित्व़पर भरोसा खो गया। श्रद्धाका बीज तुम्हारे झूठे संदेहके नीचे सुख गया।
                                                                                      ओशो (एस धम्मो सनातनो)


ओशो के उपरोक्त पुरे प्रवचन सुनने के लिए उनके ऑफिसियल वेब साईट पर जाए.........

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