..........🌹प्रिया आत्मन🌹..............
अगर भगवान के लिए कुछ करना चाहते हो तो खुद की ही भेंट चढ़ाओ ।
बहुत पुरानी बात है कहीं पर यज्ञ हो रहा था और उस क्षेत्र का राजा एक बकरे की बली चढ़ाने जा रहा था ।
तभी उधर से भगवान बुद्ध गुजर रहे थे । उन्होंने उस राजा को कहा - “ठहरो, राजन ! ये क्या कर रहे हो ? इस बेजान बकरे की भेंट क्यों चढ़ा रहे हो ? आखिर किसलिए ?”
राजा ने कहा - “इसके चढ़ाने से बहुत पुण्य प्राप्त होगा ।”
बुद्ध ने बोले - “यदि ऐसी बात है तो मुझे भेंट चढ़ा दो, इससे भी ज़्यादा पुण्य मिलेगा ।”
यह सुनकर राजा थोड़ा डरा । क्योंकि बकरे की बली चढ़ाने में कोई हर्ज़ा नहीं था, लेकिन बुद्ध की बली चढ़ाने की बात मन में आते ही राजा कांप गए ।
बुद्ध ने कहा - “अगर सच में ही कोई बहुत बड़ा लाभ करना हो तो अपने को ही चढ़ा दो, बकरा चढ़ाने से क्या होगा ?"
राजा ने कहा - “अरे, नहीं महाराज ! बकरे का क्या नुकसान होगा ? बल्कि यह तो स्वर्ग चला जाएगा ।”
बुद्ध बोले - “यह तो बहुत ही अच्छा है, मैं स्वर्ग की तलाश कर रहा हूँ, तुम मुझे बली चढ़ा दो और मुझे स्वर्ग भेज दो और ऐसा क्यों नहीं करते कि तुम अपने माता-पिता को ही स्वर्ग भेज दो या फिर खुद को क्यों रोके हुए हो ? जब स्वर्ग जाने की ऐसी सरल व सुगम तरकीब मिल गई है तो काट लो गर्दन, अपनी । इस बेचारे बेजान बकरे को क्यों भेज रहे हो, स्वर्ग में ? जो शायद स्वर्ग में जाना भी ना चाहता हो ? बकरे को खुद ही चुनने दो कि उसे कहाँ जाना है ?" उस राजा को बुद्ध की बात समझ में आ गयी ।
फूल भी यदि तुमने भगवान के चरणों में चढ़ाये हैं तो कौन सा बड़ा कार्य कर दिया ? पेड़-पौधों के ऊपर खिलते हुए फूलों की सुगन्ध उस विराट भगवान के चरणों में ही तो जा रही है और वह सुगन्ध कहाँ जा रही है ? लेकिन तुमने उन फूलों को वृक्षों से तोड़कर मुर्दा कर दिया और फिर मुर्दा फूलों को जाकर मन्दिर में चढ़ा आए और समझ रहे हो कि बहुत बड़ा काम कर आए हो । कभी तुम मन्दिर में धूप-दीप जला रहे हो तो कभी जानवरों की भेंट चढ़ा रहे हो और कभी किसी अन्य इन्सान की भी भेंट चढ़ा रहे हो । लेकिन अपने आपको कब चढ़ाओगे ? और जो अपने आपको चढ़ाता है, वही उसे पाता है ।
सच तो यही है अगर भगवान के लिए कुछ करना चाहते हो तो खुद को ही भेंट चढ़ाओ । खुद को, अपने मन को, अपने तन को और फिर सामर्थ्य अनुसार अपने धन को भेंट चढ़ाओ । यही जीवन का सत्य है ।
ओशो
सुप्रभात दोस्तों।😊😊😊
..........🌹प्रिया आत्मन🌹..............
बुद्ध के पास एक व्यक्ति आया एक सुबह। उसने आ कर बुद्ध के चरणों में प्रणाम किया और कहा कि शब्द से मुझे मत कहें, शब्द तो मैं बहुत इकट्ठे कर लिया हूं। शास्त्र मैंने सब पढ़ लिये हैं। मुझे तो शून्य से कह दें, मौन से कह दें। मैं समझ लूंगा। मुझ पर भरोसा करें।
बुद्ध ने उसे गौर से देखा और आंखें बंद कर लीं और चुप बैठ गए। वह आदमी भी आख बंद कर लिया और चुप बैठ गया। बुद्ध के शिष्य तो बड़े हैरान हुए कि यह क्या हो रहा है। पहले तो उसका प्रश्न ही थोड़ा अजीब था कि ‘बिना शब्द के कह दें और भरोसा करें मुझ पर और मैं शास्त्र से बहुत परिचित हो गया हूं अब मुझे निःशब्द से कुछ खबर दें। सुनने योग्य सुन चुका; पढ़ने योग्य पढ़ चुका; पर जो जानने योग्य है, वह दोनों के पार मालूम होता है। मुझे तो जना दें। मुझे तो जगा दें! ज्ञान मांगने नहीं आया हूं। जागरण की भिक्षा मांगने आया हूं।’ एक तो उसका प्रश्न ही अजीब था, फिर बुद्ध का चुपचाप उसे देख कर आख बंद कर लेना, और फिर उस आदमी का भी आख बंद कर लेना, बड़ा रहस्यपूर्ण हो गया। बीच में बोलना ठीक भी न था, कोई घड़ी भर यह बात चली चुपचाप, मौन ही मौन में कुछ हस्तांतरण हुआ, कुछ लेन-देन हुआ। वह आदमी बैठा-बैठा मुस्कुराने लगा आख बंद किये ही किये। उसके चेहरे पर एक ज्योति आ गई। वह झुका, उसने फिर प्रणाम किया बुद्ध को, धन्यवाद दिया और कहा : ‘बड़ी कृपा। जो लेने आया था, मिल गया।’ और चला गया।
आनंद ने बुद्ध से पूछा कि ‘यह क्या मामला है? क्या हुआ? आप दोनों के बीच क्या हुआ? हम तो सब कोरे के कोरे रह गए। हमारी पकड़ तो शब्द तक है, हमारी पहुंच भी शब्द तक है; निःशब्द में क्या घटा? हम तो बहरे के बहरे रह गए। हमें तो कुछ कहें, शब्दों में कहें।’
बुद्ध ने कहा: आनंद, तू अपनी जवानी में बड़ा प्रसिद्ध घुड़सवार था, योद्धा था। घोड़ों में तूने फर्क देखा? कुछ घोड़े होते हैं—मारो, मारो, बामुश्किल चलते हैं, मारो तो भी नहीं चलते—खच्चर जिनको हम कहते हैं। कुछ घोड़े होते हैं आनंद, मारते ही चल पड़ते हैं। और कुछ घोड़े ऐसे भी होते हैं कि मारने का मौका नहीं देते; तुम कोड़ा फटकासे, बस फटकार काफी है। कुछ घोड़े ऐसे भी होते हैं आनंद कि कोड़ा फटकासे भी मत, कोड़ा तुम्हारे हाथ में है और घोड़ा सजग हो जाता है। बात काफी हो गई। इतना इशारा काफी है। और आनंद, ऐसे भी घोड़े तूने जरूर देखे होंगे, तू बड़ा घुड़सवार था, कि कोड़ा तो दूर, कोड़े की छाया भी काफी होती है। यह ऐसा ही घोड़ा था। इसको कोड़े की छाया काफी थी। "
~ ओशो, अष्टावक्र: महागीता (भाग–3)
प्रवचन नौवां — विषयों में विरसता मोक्ष है
दिनांक 19, नवंबर 1976
श्री रजनीश आश्रम, पूना
..........🌹प्रिया आत्मन🌹..............
लाओत्से ने चुंगी की कीमत चुकाने के लिए अपने देश को जो खज़ाना दिया उसका नाम है‘ताओ तेह किंग’, जिसका प्रारंभ कुछ ऐसे होता है : ‘सत्य कहा नहीं जा सकता और जो कहा जा सकता है वह सत्य नहीं है।’ उसी सत्य को ‘जनाने’ का प्रयास है ताओ उपनिषद। इस उपनिषद पर ओशो के 127 प्रवचन हैं। प्रारंभ में ओशो कहते हैं : ‘जो भी सत्य को कहने चलेगा, उसे पहले ही कदम पर जो बड़ी से बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाती है वह यह कि शब्द में डालते ही सत्य असत्य होजाता है।’ ताओ का अर्थ है—पथ, मार्ग। और लाओत्सु कहते हैं कि ‘जिस पथ पर विचरण किया जा सके वह सनातन और अविकारी पथ नहीं है।’ इस पथ पर जलवत होना, स्त्रैण-चित्त होना, घाटी-सदृश होना—127 प्रवचनों की यह प्रवचन शृंखला एक ही बात की ओर इंगित करती है कि अस्तित्व के साथ लड़ने में नहीं, उसके साथ बहने में ही हमारा कल्याण है। अत: जलालुद्दीन रूमी के हमसफर हंसों की भांति ओशो हमें नि:शब्द शब्दों के जरिए आकाश के राजमार्ग की उड़ान दे देते हैं जहां पीछे कोई पगचिन्ह नहीं, बस वही अंतहीन पथ है, वही गंतव्य है।
ओशो
🍀ओशो प्रवचन🍀
❤ताओ उपनिषद-92❤
..........🌹प्रिया आत्मन🌹..............
जीवन योग हो जाता है यदि सारे कृत्य ध्यान बन जायें
एक संत हुए जो कुम्हार थे। उनका नाम गोरा था। वे मिट्टीके बर्तन बनाते थे। बर्तन बनाते हुए गोरा नाचते थे, गीत गाते थे। जब वे चाक पर बर्तन गढ़ते थे तो जैसे – जैसे बर्तन चाकपर केंद्रीभूत होता था, गोरा भी अपने भीतर केंद्रीभूत हो जाते थे। तुम्हें तो एकही चीज दिखाई देती कि चाक घूम रहा है, मिट्टीका बर्तन आकार ले रहा है और गोरा उसे केंद्रीभूत कर रहे हैं। तुम्हें एकही केंद्रीकरण दिखाई देता; लेकिन उसके साथ–साथ, एक दूसरा केंद्रीकरणभी घटित हो रहा था—गोरा भी केंद्रिभूत हो रहे थे। बर्तनको गढ़ते हुए, बर्तनको रूप देते हुए, वे खुदभी आंतरिक चेतनाके अदृश्य जगतमें रूपांतरित हो रहे थे।
जब बर्तन निर्मित हो रहा था, वह उनका असली कृत्य नहीं था—तो वे साथही साथ अपनाभी सृजन कर रहे थे।
कोईभी कृत्य ध्यानपूर्ण हो सकता है। और एक बार तुमने जान लिया कि, कैसे कोई कृत्य ध्यानपूर्ण होता है तो फिर कठिनाई नहीं है। तब तुम अपने सभी कृत्योंको ध्यानमें रूपांतरित कर सकते हो। और तब सारा जीवन योग बन जाता है। तब सड़क पर चलना, या दफ्तर में काम करना, या सिर्फ बैठना, कुछ भी न करना -ध्यान बन सकता है। कुछभी ध्यान बन सकता है। स्मरण रहे, ध्यान कृत्य में नहीं है, कृत्यकी गुणवत्तामें है।
ओशो (तंत्र सूत्र)🌹
ओशो के उपरोक्त पुरे प्रवचन सुनने के लिए उनके ऑफिसियल वेब साईट पर जाए...............
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