शनिवार, 25 अप्रैल 2020

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#कीमत #गुरु #संगत 
*|| गुरु और उसकी संगत के साथ होना सबसे ज्यादा मूल्यवान है। इसके लिये कोई भी कीमत चुकाने से घबराना मत ||*
*||गुरु जैसा शब्द कोई दूसरा नही है||*
*||गुरु -शिक्षक या अध्यापक नही होता||*

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जिसके साथ रहोगे वैसे हो जाओगे। यह जीवन का आधारभूत नियम है, जिसके साथ संबंध जोड़ोगे वैसे हो जाओगे।

अंधकार से नाता जोड़ोगे, अंधकार हो जाओगे; प्रकाश से नाता जोड़ोगे, प्रकाश हो जाओगे।

गुरु वह है जो अंधकार को अलग करे। इसलिए गुरु का अर्थ शिक्षक या अध्यापक नहीं होता ।

गुरु जैसा कोई और दूसरा शब्द ही नहीं; उसका कोई पर्यायवाची नहीं। गुरु शब्द अनूठा है।

गुरु को केवल वे ही खोज सकते हैं जिनके भीतर प्रकाश की खोज पैदा हो गई और जिनको जीवन मृत्यु से घिरा हुआ दिखाई पड़ा है और जो अमृत की तलाश में निकल पड़े हैं।

और जिन्हें यह दिखाई पड़ा है कि यहां सब सपना है, असत् है।

और जिनके भीतर सत्य को जानने की अदम्य अभिलाषा जगी है। जिनके भीतर सत्य को पीने की अभीप्सा का जन्म हुआ है, वे ही लोग गुरु को खोज पाते हैं। ऐसे व्यक्ति का नाम ही शिष्य है।

फिर याद दिला दें, शिष्य का अर्थ विद्यार्थी नहीं होता। विद्यार्थी हो तो शिक्षक मिलेगा। इससे ज्यादा तुम्हारी पात्रता नहीं।

अगर शिष्य हो तो गुरु मिल सकेगा। शिष्य का अर्थ है जो अपना शीश चढ़ा देने को राजी है--जो सब दांव पर लगा देने को राजी है। विद्यार्थी ज्ञान की तलाश करता है, शिष्य अनुभव की।

कुछ चीजें हैं जिनका केवल अनुभव ही हो सकता है और वे ही चीजें मूल्यवान हैं । बहुत चीजें हैं जिनका ज्ञान हो सकता है; वे सब बाजारू हैं। उनका कोई मूल्य नहीं है।

भूगोल है, इतिहास है और हजारों शास्त्र हैं, उनका ज्ञान हो सकता है। लेकि प्रेम, प्रार्थना, परमात्मा, जीवन, मृत्यु--इनका तो अनुभव ही हो सकता है।

जार्ज गुरजिएफ--इस सदी का एक बड़ा सद्गुरु--अनेक बार एक छोटी-सी कहानी कहा करता था। जब भी कोई नया व्यक्ति उसके पास आता था तो वह कहता था, विद्यार्थी की तरह आए हो कि शिष्य की तरह? क्योंकि फिर वैसा ही व्यवहार हो।क्योंकि फिर वैसा ही स्वागत हो। विद्यार्थी की तरह आए हो तो कूड़ा-करकट ज्ञान का तुम्हें सम्हाल दूं और भागो, अपने रास्ते लगो। शिष्य की तरह आए हो तो अपने प्राण तुम्हें सौंप दूं, अपनी आत्मा तुम्हें दे दूं। तो उंडेल दूं अपने को तुम्हारे पात्र में।

और वह कहता था, एक बार ऐसा हुआ कि एक विद्यार्थी भूल से ईश्वर के पास पहुंच गया।ईश्वर ने कहा, मांग ले, मांग ले एक वरदान। अब तू आ ही गया तो खाली हाथ जाना उचित नहीं।

विद्यार्थी के भीतर हजारों प्रश्न उठे। ईश्वर ने देखा होगा उसकी खोपड़ी प्रश्नों से भर गई।

झंझावात प्रश्नों के! ईश्वर ने उसे सलाह दी कि देख, ऐसी बात पूछना जिसका उत्तर होता हो। ऐसी बात मत पूछना जिसका उत्तर न होता हो और केवल अनुभव होता हो।

उसने बहुत खोजा और फिर उसने पूछा कि एक ही प्रश्न पूछ सकता हूं, तो मैं यह पूछना चाहता हूं, मृत्यु क्या है? उसने इतना ही पूछा था कि ईश्वर ने उठाई तलवार और उसकी गर्दन काट दी, क्योंकि मृत्यु का तो सिर्फ अनुभव ही हो सकता है। उसका कोई उत्तर नहीं हो सकता।

गुरजिएफ अपने शिष्यों से कहता था, सोच लेना।अगर गर्दन कटाने की तैयारी हो तो ही शिष्य हो सकते हो। यह कहानी याद रखना। क्योंकि कुछ चीजें हैं जिनका अनुभव, बस अनुभव ही होता है।

शिष्य वह है जो अनुभव की तलाश कर रहा है। जो ईश्वर के संबंध में नहीं जानना चाहता है--ईश्वर को जानना चाहता है! जो प्रेम के संबंध में नहीं जानना चाहता है--प्रेम को जानना चाहता है! जो प्रार्थना सीखने नहीं आया है--प्रार्थनामय होने आया है !

शिष्य की अंतरात्मा अस्तित्वगत खोज कर रही है। विद्यार्थी बौद्धिक कुतूहल से भरा है।

विद्यार्थी कुछ जानकारियां इकट्ठी करेगा और अपने रास्ते पर चला जाएगा। विद्यार्थी ज्यादा-से-ज्यादा पंडित होगा। शिष्य प्रज्ञा को उपलब्ध होगा। शिष्य ही बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकते हैं, विद्यार्थी नहीं। और जो शिष्य है आज, कभी गुरु हो सकता है। विद्यार्थी कभी गुरु नहीं हो सकता।

और ध्यान रहे, जानकारियां ज्ञान जैसी ही मालूम होती हैं--बस जैसी ही! ज्ञान नहीं हो सकतीं, बस ज्ञान जैसी मालूम होती हैं। झूठे सिक्के हैं, जो असली सिक्कों जैसे मालूम होते हैं।

गुरु को खोजो; लेकिन तभी खोज सकोगे जब तुम्हारे भीतर प्रकाश को खोजने की आकांक्षा उमगने लगी हो। सत्य को पाने की प्यास तुम्हारे कंठ में अनुभव होने लगी हो। अमृत को जानने के लिए ऐसा अदम्य वेग, ऐसी त्वरा पैदा हो रही हो कि अगर गर्दन भी चढ़ानी पड़े तो तुम तैयार हो जाओ।

गुरु-परताप साध की संगति! गुरु महिमा है एक--एक रोशनी, एक प्रताप, एक प्रकाश, एक चमत्कार! उसका होना इस जगत में एक अपूर्व घटना है--अद्वितीय। वैसे फूल रोज-रोज नहीं खिलते। सदियां बीत जाती हैं तब कभी कोई सद्गुरु होता है।इसलिए सद्गरुओं को पहचानना ही हम भूल जाते हैं, क्योंकि सदियों तक पहचान नहीं होती। सदियों तक पंडित-पुरोहितों से हमारा संबंध होता है और फिर जब सद्गुरु आता है तो हम पहचान ही नहीं पाते।

पहचानना तो दूर हम नाराज होते हैं, नाखुश होते हैं। हम दुश्मन हो जाते हैं। क्योंकि हमारी तो सारी जानकारी पंडित-पुरोहित की होती है।

और सद्गुरु पंडित-पुरोहित से बिल्कुल उल्टा होता है, बिल्कुल भिन्न होता है।

धन्यभागी हैं वे जो गुरु-परताप की छाया में आ जाएं! भीखा का यह वचन बड़ा प्यारा है, गुरु-परताप साध की संगति ! गुरु की आभा से मंडित हो जाओ, और गुरु की आभा से जो मंडित हुए साधु हों उनमें डूब जाओ, एकलीन हो जाओ। किसी बुद्ध को पकड़ लो और किसी बुद्ध के क्षेत्र में डुबकी मार जाओ; फिर शेष सब अपने से हो जाता है।

परमात्मा को खोजने कोई सात-समंदर पार नहीं जाना है। परमात्मा को खोजने कोई कैलाश, काशी और काबा नहीं जाना है।

परमात्मा वहां है जहां कोई सद्गुरु है; जहां साधुओं की संगति है। परमात्मा वहां है जहां दीवाने बैठकर उसके रस को पी रहे हैं। जहां भंवरे इकट्ठे हुए हैं और परमात्मा को पीकर गीत गा रहे हैं, गुंजार कर रहे हैं।

जहां किसी एक जले हुए दीए के पास और-और दीए सरक-सरककर जलने शुरू हो गए हैं। जहां एक दीए के आसपास और बहुत दीए जल उठे हैं। जहां दीपावली हो गई है।

गुरु-परताप साध की संगति! वहां प्रवेश कर जाना। ऐसा द्वार मिल जाए तो छोड़ना ही मत। कीमत जो भी चुकानी हो चुका देना। क्योंकि हमारे पास चुकाने को भी क्या है? खाली हैं, नंगे हैं। हमारी गर्दन भी ले ली जाए तो हमारा खोता क्या है? गर्दन तो आज नहीं कल मौत ले ही लेगी और बदले में कुछ भी न देगी। गर्दन की कीमत ही क्या है!

*ओशो🌸💐🌺🌷🌹*

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