🤔 मोह एक नशा है! 🤔
"मोह आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती हैं, लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता।"
और यह व्यर्थ इतना महत्वपूर्ण हो गया है जीवन में कि जब तुम सार्थक को भी साधने जाते हो, तब भी सार्थक नहीं सधता, व्यर्थ ही सधता है।
लोग ध्यान करने आते हैं, तो भी उनकी आकांक्षा को समझने की कोशिश करो तो बड़ी हैरानी होती है। ध्यान से भी वे व्यर्थ को ही मांगते हैं। मेरे पास वे आते हैं, वे कहते हैं कि ध्यान करना चाहता हूं, क्योंकि शारीरिक बीमारियां हैं। क्या आप आश्वासन देते हैं कि ध्यान करने से वे दूर हो जाएंगी?
अच्छा होता, वे चिकित्सक के पास गए होते। अच्छा होता कि उन्होंने आदमी खोजा होता, जो शरीर की चिकित्सा करता। वे आत्मा के वैद्य के पास भी आते हैं तो भी शरीर के इलाज के लिए ही। वे ध्यान भी करने को तैयार हैं, तो भी ध्यान उनके लिए औषधि से ज्यादा नहीं है; और वह औषधि भी शरीर के लिए।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि बड़ी कठिनाई में जीवन जा रहा है, धन की असुविधा है; क्या ध्यान करने से सब ठीक हो जाएगा?
यह मोह का आवरण इतना घना है कि तुम अगर अमृत को भी खोजते हो तो जहर के लिए। बड़ी हैरानी की बात है! तुम चाहते तो अमृत हो; लेकिन उससे आत्महत्या करना चाहते हो। और अमृत से कोई आत्महत्या नहीं होती। अमृत पीया कि तुम अमर हो जाओगे। लेकिन तुम अमृत की तलाश में आते हो तो भी तुम्हारा लक्ष्य आत्महत्या का है। धन या देह, संसार का कोई न कोई अंग, वही तुम धर्म से भी पूरा करना चाहते हो।
सुनो लोगों की प्रार्थनाएं, मंदिरों में जाकर वे क्या मांग रहे हैं? और तुम पाओगे कि वे मंदिर में भी संसार मांग रहे हैं। किसी के बेटे की शादी नहीं हुई है; किसी के बेटे को नौकरी नहीं मिली है; किसी के घर में कलह है। मंदिर में भी तुम संसार को ही मांगने जाते हो? तुम्हारा मंदिर सुपर मार्केट होगा, बड़ी दुकान होगा, जहां ये चीजें भी बिकती हैं, जहां सभी कुछ बिकता है। लेकिन तुम्हें अभी मंदिर की कोई पहचान नहीं। इसलिए तुम्हारे मंदिरों में जो पुजारी बैठे हैं, वे दुकानदार हैं; क्योंकि वहां जो लोग आते हैं, वे संसार के ही ग्राहक हैं। असली मंदिर से तो तुम बचोगे।
मेरे एक मित्र हैं, दांत के डाक्टर हैं। उनके घर मैं मेहमान था। बैठा था उनके बैठकखाने में एक दिन सुबह, एक छोटा सा बच्चा डरा-डरा भीतर प्रविष्ट हुआ। चारों तरफ उसने चौंक कर देखा। फिर मुझसे पूछा कि क्या मैं पूछ सकता हूं--बड़े फुसफुसा कर--कि डाक्टर साहब भीतर हैं या नहीं? तो मैंने कहा, वे अभी बाहर गए हैं। प्रसन्न हो गया वह बच्चा। उसने कहा, मेरी मां ने भेजा था दांत दिखाने। क्या मैं आपसे पूछ सकता हूं कि वे फिर कब बाहर जाएंगे?
बस, ऐसी तुम्हारी हालत है। अगर मंदिर तुम्हें मिल जाए तो तुम बचोगे। दांत का दर्द तुम सह सकते हो; लेकिन दांत का डाक्टर तुम्हें जो दर्द देगा, वह तुम सहने को तैयार नहीं हो। तुम छोटे बच्चों की भांति हो। तुम संसार की पीड़ा सह सकते हो; लेकिन धर्म की पीड़ा सहने की तुम्हारी तैयारी नहीं है। और निश्चित ही धर्म भी पीड़ा देगा। वह धर्म पीड़ा नहीं देता; वह तुम्हारे संसार के दांत इतने सड़ गए हैं, उनको निकालने में पीड़ा होगी। धर्म पीड़ा नहीं देता; धर्म तो परम आनंद है। लेकिन तुम दुख में ही जीए हो और तुमने दुख ही अर्जित किया है। तुम्हारे सब दांत पीड़ा से भर गए हैं; उनको खींचने में कष्ट होगा। तुम इतने डरते हो उनको खींचे जाने से कि तुम राजी हो उनकी पीड़ा और जहर को झेलने को। उससे तुम विषाक्त हुए जा रहे हो; तुम्हारा सारा जीवन गलित हुआ जा रहा है।
लेकिन तुम इस दुख से परिचित हो। आदमी परिचित दुख को झेलने को राजी होता है; अपरिचित सुख से भी भय लगता है! ये दांत भी तुम्हारे हैं। यह दर्द भी तुम्हारा है। इससे तुम जन्मों-जन्मों से परिचित हो। लेकिन तुम्हें पता नहीं कि अगर ये दांत निकल जाएं, यह पीड़ा खो जाए, तो तुम्हारे जीवन में पहली दफा आनंद का द्वार खुलेगा।
तुम मंदिर भी जाते हो तो तुम पूछते हो पुजारी से, परमात्मा फिर कब बाहर होंगे, तब मैं आऊं। तुम जाते भी हो, तुम जाना भी नहीं चाहते हो। तुम कैसी चाल अपने साथ खेलते हो, इसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है।
निरंतर तुम्हें देख कर, तुम्हारी समस्याओं को देख कर, मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि तुम्हारी एक ही मात्र समस्या है कि तुम ठीक से यही नहीं समझ पा रहे हो कि तुम क्या करना चाहते हो। ध्यान करना चाहते हो? यह भी पक्का नहीं है। फिर ध्यान नहीं होता तो तुम परेशान होते हो। लेकिन जो करने का तुम्हारा पक्का ही नहीं है, वह तुम पूरे-पूरे भाव से करोगे नहीं, आधे-आधे भाव से करोगे। और आधे-आधे भाव से जीवन में कुछ भी नहीं होता। व्यर्थ तो बिना भाव के भी चलता है। उसमें तुम्हें कुछ भी लगाने की जरूरत नहीं; उसकी अपनी ही गति है। लेकिन सार्थक में जीवन को डालना पड़ता है, दांव पर लगाना होता है।
यह सूत्र कहता हैः "मोह आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती हैं, लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता।"
मोह का आवरण इतना घना है कि अगर तुम धर्म की तरफ भी जाते हो तो तुम चमत्कार खोजते हो वहां भी। वहां भी अगर बुद्ध खड़े हों, तुम न पहचान सकोगे। तुम सत्य साईं बाबा को पहचानोगे। अगर बुद्ध और सत्य साईं बाबा दोनों खड़े हों, तो तुम सत्य साईं बाबा के पास जाओगे, बुद्ध के पास नहीं। क्योंकि बुद्ध ऐसी मूढ़ता न करेंगे कि तुम्हें ताबीज दें, हाथ से राख गिराएं; बुद्ध कोई मदारी नहीं हैं।
लेकिन तुम मदारियों की तलाश में हो। तुम चमत्कार से प्रभावित होते हो। क्योंकि तुम्हारी गहरी आकांक्षा, वासना परमात्मा की नहीं है; तुम्हारी गहरी वासना संसार की है। जहां तुम चमत्कार देखते हो, वहां लगता है कि यहां कोई गुरु है। यहां आशा बंधती है कि वासना पूरी होगी। जो गुरु हाथ से ताबीज निकाल सकता है, वह चाहे तो कोहिनूर भी निकाल सकता है। बस गुरु के चरणों में, सेवा में लग जाने की जरूरत है, आज नहीं कल कोहिनूर भी निकलेगा। क्या फर्क पड़ता है गुरु को! ताबीज निकाला, कोहिनूर भी निकल सकता है।
कोहिनूर की तुम्हारी आकांक्षा है। कोहिनूर के लिए छोटे-छोटे लोग ही नहीं, बड़े से बड़े लोग भी चोर होने को तैयार हैं। जिस आदमी के हाथ से राख गिर सकती है शून्य से, वह चाहे तो तुम्हें अमरत्व प्रदान कर सकता है; बस केवल गुरु-सेवा की जरूरत है!
नहीं, बुद्ध से तुम वंचित रह जाओगे; क्योंकि वहां कोई चमत्कार घटित नहीं होता। जहां सारी वासना समाप्त हो गई है, वहां तुम्हारी किसी वासना को तृप्त करने का भी कोई सवाल नहीं है। बुद्ध के पास तो महानतम चमत्कार, आखिरी चमत्कार घटित होता है--निर्वासना का प्रकाश है वहां। लेकिन तुम्हारी वासना से भरी आंखें वह न देख पाएंगी। बुद्ध को तुम तभी देख पाओगे, तभी समझ पाओगे, उनके चरणों में तुम तभी झुक पाओगे, जब सच में ही संसार की व्यर्थता तुम्हें दिखाई पड़ गई हो, मोह का आवरण टूट गया हो।
मोह एक नशा है। जैसे नशे में डूबा हुआ कोई आदमी चलता है, डगमगाता; पक्का पता भी नहीं कहां जा रहा है, क्यों जा रहा है; चलता है बेहोशी में; ऐसे तुम चलते रहे हो। कितना ही तुम सम्हालो अपने पैरों को, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सभी शराबी सम्हालने की कोशिश करते हैं। तुम अपने को भला धोखा दे लो, दूसरों को कोई धोखा नहीं हो पाता। सभी शराबी कोशिश करते हैं कि वे नशे में नहीं हैं; वे जितनी कोशिश करते हैं, उतना ही प्रकट होता है। और यह मोह नशा है।
– ओशो
शिव-सूत्र
प्रवचन – ०५
संसार के सम्मोहन
और सत्य का आलोक
(पूरा प्रवचन
www.oshoworld.com
पर MP3 में भी उपलब्ध हैं।)
🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂
#बुद्ध #सत्य_साईंबाबा #साईंबाबा #मोह #ओशो #चमत्कार
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Please Do not Enter Any Spam Link in the Comment Box.
कृपया कमेंट बॉक्स में कोई स्पैम लिंक न डालें।