क्या सभी बुद्धपुरुष नाभि— केंद्रित हैं? उदाहरण के लिए बताएं कि कृष्णमूर्ति
मस्तिष्क— केंद्रित हैं या नाभि— केंद्रित? और रामकृष्ण ह्रदय— केंद्रित थे या नाभि—केंद्रित?
सभी बुद्धपुरुष नाभि—केंद्रित होते हैं, लेकिन बुद्धपुरुषों की अभिव्यक्ति दूसरे केंद्रों के जरिए हो सकती है। इस भेद को साफ—साफ समझ लो। सभी बुद्धपुरुष नाभि—केंद्रित होते हैं; दूसरी संभावना नहीं है। लेकिन अभिव्यक्ति और बात है।
रामकृष्ण अपनी अभिव्यक्ति हृदय के द्वारा करते हैं। वे अपने संदेश के लिए हृदय को माध्यम बनाते हैं। नाभि से जो भी उन्होंने पाया है उसे वे हृदय से प्रकट करते हैं। वे गाते हैं, वे नाचते हैं, वह उनके आनंद की अभिव्यक्ति का ढंग है। लेकिन आनंद नाभि पर मिलता है, अन्यत्र नहीं। रामकृष्ण नाभि पर केंद्रित हैं। लेकिन दूसरों को यह कहने के लिए पर केंद्रित हूं वे हृदय का उपयोग करते हैं।
कृष्णमूर्ति उस अभिव्यक्ति के लिए मस्तिष्क का उपयोग करते हैं।
यही कारण है कि उनकी अभिव्यक्तियां परस्पर विरोधी हैं। अगर तुम रामकृष्ण को मानते हो तो तुम कृष्णमूर्ति को नहीं मान सकते। और अगर कृष्णमूर्ति पर तुम्हारा भरोसा है तो तुम रामकृष्ण पर भरोसा नहीं कर सकते। क्योंकि भरोसा सदा अभिव्यक्ति में केंद्रित होता है, अनुभव में नहीं। रामकृष्ण उस आदमी को बचकाने मालूम पड़ेंगे जो बुद्धि से, विचार से जीता है। वह कहेगा, यह क्या नासमझी है—नाचना, गाना? वे क्या कर रहे हैं? बुद्ध कभी नहीं नाचे, ये रामकृष्ण नाच रहे हैं! वे बचकाने लगते हैं।
बुद्धि को हृदय सदा बचकाना मालूम पड़ता है। लेकिन हृदय को बुद्धि व्यर्थ, सतही मालूम पड़ती है।
कृष्णमूर्ति जो भी कहते हैं वह वही है, अनुभव वही है जो रामकृष्ण, चैतन्य या मीरा को हुआ था। लेकिन अगर व्यक्ति मस्तिष्क—केंद्रित है तो उसकी अभिव्यक्ति, उसकी व्याख्या बुद्धिगत होगी। अगर रामकृष्ण कृष्णमूर्ति को मिलेंगे तो कहेंगे, आइए, हम नाचे। समय क्यों बर्बाद करें? नाचकर उसे ज्यादा आदमी से कहा जा सकता है और वह गहरे जाता है। कृष्णमूर्ति कहेंगे, नाच? नाच से तो आदमी सम्मोहित हो जाता है। नाचे मत। विश्लेषण करें, तर्क करें, बोधपूर्ण हों।
अभिव्यक्ति के ये अलग—अलग केंद्र हैं, लेकिन अनुभव एक ही है। कोई अपने अनुभव का चित्र बना सकता है, झेन गुरुओं ने अपने अनुभव का चित्र बनाया। जब वे ज्ञान को उपलब्ध होते हैं तब वे चित्र बनाते हैं। उपनिषद के ऋषियों ने सुंदर कविता की; वे जब ज्ञान को प्राप्त हुए उन्होंने कविता रची। चैतन्य नाचते थे, रामकृष्ण गाते थे। बुद्ध ने, महावीर ने अपने अनुभव को कहने के लिए, लोगों को समझाने के लिए बुद्धि का उपयोग किया। उन्होंने अपने अनुभव बताने के लिए महान सिद्धानों की रचना की।
लेकिन अनुभव स्वयं में न बुद्धि—निर्भर है न भाव—निर्भर, वह दोनों के पार है। बहुत कम लोग हुए हैं जो दोनों केंद्रों के द्वारा अपने को अभिव्यक्ति दे सकें। तुम्हें कृष्णमूर्ति अनेक मिल जाएंगे, तुम्हें रामकृष्ण अनेक मिल जाएंगे। लेकिन यह कभी—कभार ही होता है कि कोई दोनों केंद्रों के जरिए अपने को अभिव्यक्त करे। तब वह व्यक्ति तुम्हें उलझन में डाल देता है। तुम उस आदमी के साथ कभी चैन नहीं अनुभव करोगे, क्योंकि तुम्हें दोनों के बीच तारतम्य नहीं दिखाई पड़ेगा। वे परस्पर इतने विरोधी हैं।
इसलिए जब मुझे कुछ समझाने को होता है तो निश्चय ही उसे बुद्धि के द्वारा समझाना पड़ता है। इसलिए मैं बहुत से ऐसे लोगों को आकर्षित कर लेता हूं जो बुद्धिवादी हैं, मस्तिष्क—प्रधान हैं। फिर एक दिन वे देखते हैं कि मैंने कीर्तन और नृत्य की इजाजत भी दे रखी है। तब वे अड़चन में पड़ते है। वे पूछते हैं, यह क्या है? दोनों में कोई लेना—देना नहीं है!
लेकिन मेरे लिए उनमें कोई विरोध नहीं है। नृत्य भी कहने का एक ढंग है, और कभी—कभी वह ज्यादा गहरा ढंग होता है। बुद्धि भी कहने का एक ढंग है, और कभी—कभी वह बहुत स्पष्ट ढंग। इसलिए दोनों अभिव्यक्ति के उपाय है।
अगर तुम बुद्ध को नाचते देखो तो तुम्हें अड़चन होगी। और अगर तुम महावीर को नग्न खड़े और बांसुरी बजाते देख लो तो तुम सो न सकोगे। सोचोगे, महावीर को यह क्या हो गया? पागल तो नहीं हो गए? कृष्ण के हाथ में बांसुरी ठीक है, महावीर के हाथ में बिलकुल अविश्वसनीय हो जाती है। महावीर और हाथ में बांसुरी! यह अकल्पनीय है, तुम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।
लेकिन इसका यह कारण नहीं है कि महावीर और कृष्ण में, बुद्ध और चैतन्य में कोई विरोध है। इसका कारण महज अभिव्यक्ति का भेद है। बुद्ध एक विशेष तरह के चित्तों को आकर्षित करेंगे—मस्तिष्क—प्रधान चित्तों को। और चैतन्य और रामकृष्ण ठीक उसके विपरीत हृदय—प्रधान चित्तों को आकर्षित करेंगे।
लेकिन कठिनाई खड़ी होती है, मेरे जैसा व्यक्ति कठिनाई खड़ी करता है। मैं दोनों चित्तों को आकर्षित करता हूं—लेकिन कोई भी मेरे साथ चैन नहीं अनुभव कर पाता है। जब मैं बोलता होता हूं तो मस्तिष्क—प्रधान व्यक्ति मेरे साथ चैन अनुभव करता है। लेकिन जब मैं दूसरे तरह की अभिव्यक्ति को मौका देता हूं तो मस्तिष्क—प्रधान व्यक्ति बेचैन हो जाता है। और वही बात दूसरे के साथ घटती है। जब कोई भाव—प्रधान विधि उपयोग की जाती है तो हृदय—प्रधान व्यक्ति चैन अनुभव करता है, लेकिन जब मैं समझाता हूं तर्क का उपयोग करता हूं तो वह गायब हो जाता है, तब वह यहां नहीं होता। वह कहता है, यह मेरे लिए नहीं है।
अपने मस्तिष्क और हृदय के बीच सेतु निर्मित करो और तब तुम जानोगे कि जो भी ज्ञान को उपलब्ध हुए हैं वे एक ही बात कहते हैं, सिर्फ उनकी भाषा भिन्न होती है।
तंत्र--सूत्र (भाग--1) प्रवचन--10
केंद्रित, संतुलित और आप्तकाम होओ—(प्रवचन—दसवां)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Please Do not Enter Any Spam Link in the Comment Box.
कृपया कमेंट बॉक्स में कोई स्पैम लिंक न डालें।