🕉🌞विज्ञान भैरव तंत्र 🌞🕉
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🌞👉 मांँ पार्वती के द्वारा पूछे गए परा शक्ति के स्वरूप को पहचानने के लिए उपाय के रूप में क्रमशः एक के बाद एक 112 धारणाओं का निरूपण करते हुए भगवान शिव कहते हैं--
⚜🚩प्रथम धारणा 🚩⚜
👉 प्रथम धारणा की योग दर्शन के आधार पर व्याख्या --हृदय से ऊपर द्वादशांत तक जाने वाला प्राण और नीचे द्वादशांत से हृदय तक आने वाला जीव नामक अपान यह परा देवी का उच्चारण है , स्पंदन है। विज्ञान भैरव तंत्र के आधार पर हमारे इस शरीर में रीड के सबसे निचले भाग से लेकर ब्रह्मरंध्र से ऊपर शिखा के अंतिम भाग के ऊपर बाह्य आकाश तक 12 चक्रों की स्थिति मानी गई है जो क्रमश इस प्रकार हैं -जन्माग्र, मूल, कंद, नाभि, हृदय, कंठ तालु ,भ्रूमध्य ,ललाट ,ब्रह्मरंध्र, शक्ति तथा व्यापिनी। रीड के सबसे निचले भाग से लेकर शिखा के अंतिम स्थान से ऊपर बाह्म आकाश तक उस परा शक्ति का स्फुरण होता रहता है।वह परा देवी ही निरंतर स्वयं इसका उच्चारण करती रहती है अर्थात प्राण और अपान के रूप में स्पंदित होती रहती है ।यह परम शक्ति आंतरिक तथा बाहरी भावों की सृष्टि करती है। इस स्थिति में बाह्म और आंतरिक विषय अर्थात प्राण और अपान की सृष्टि अर्थात उत्पन्न होने के स्थान जन्माग्र और द्वादशांत अर्थात व्यापिनी चक्र में नित्य उत्पन्न हो रही चेतन शक्ति की भावना करने से योगी में भैरव स्वभाव की अभिव्यक्ति हो जाती है अर्थात उसका भैरव स्वरूप प्रकट हो जाता है ,वह सत चित आनंद स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है, सत चित आनंद स्वरुप को प्राप्त कर लेता है ,भय से मुक्त अवस्था को प्राप्त कर लेता है। यहां पर इस व्याख्या को हम योग शास्त्र के अनुकूल व्याख्या मान सकते हैं किंतु यहां पर विशेष रूप से समझने का विषय है कि प्राण की स्थिति द्वादशांत अर्थात व्यापिनी चक्र में प्रथम धारणा के अनुसार बताई गई है ।अपान की स्थिति हृदय चक्र में बतायी गई है अर्थात प्राण की गति हृदय चक्र से शिखा के अंतिम भाग के ऊपर बाह्म आकाश तक बतायी गई है और इसके दो ही विभाग दर्शाए गए हैं "प्राण एवं अपान"। यदि योग दर्शन के आधार पर इस सत्य की व्याख्या करें तो नाभि से पाद अंगूष्ठ पर्यंत अपान प्राण का निवास और कार्यक्षेत्र है ।नाभि से हृदय पर्यंत समान प्राण का निवास एवं कार्यक्षेत्र है ।हृदय से लेकर कंठ तक प्राण का निवास एवं कार्यक्षेत्र है। कंठ से लेकर शिखा पर्यंत उदान प्राण का निवास और कार्यक्षेत्र है ।व्यान प्राण का निवास और कार्यक्षेत्र संपूर्ण शरीर व्यापी माना गया है, जिसे दोनों बांहों में विशेष रूप से दर्शाया जाता है।
👉 उक्त प्रथम धारणा के अनुसार भगवान शिव कह रहे हैं-- कि व्यापिनी चक्र में प्राण की स्थापना करनी चाहिए अर्थात व्यापिनी चक्र में ध्यान करके प्राण की स्थापना करनी चाहिए क्योंकि जहां पर हम ध्यान करते हैं , मन को एकाग्र करते हैं ।हमारा प्राण उसी केंद्र बिंदु पर ठहर जाता है ।साथ ही भगवान शिव कहते हैं कि अपान प्राण के स्थान पर भी ध्यान करना चाहिए। यदि योग दर्शन के आधार पर हम अपान वायु का मूल स्थान देखें तो वह मूलाधार चक्र अर्थात जन्माग्र ही है क्योंकि हृदय अपान वायु का स्थान नहीं है। हमारे संपूर्ण शरीर में प्राण वाही नाडियाँ नाभि से दो अंगुल नीचे कंद से निकलती हैं। हमारा हृदय पंपिंग स्टेशन है किंतु प्राण ऊर्जा का मूल संचार संपूर्ण नाडियों में नाभि से ही होता है । प्राण नाभि से ही प्राप्त होता है ,ऊर्जा नाभि से ही प्राप्त होती है। इसलिए भगवान शिव के द्वारा बतायी गयी इस धारणा में नाभि से लेकर या यूं कहें कि मूलाधार चक्र या जन्माग्र से लेकर ब्रह्मरंध्र या व्यापिनी चक्र तक प्राण को स्थापन करने का ज्ञान दिया गया है। जब साधक मूलाधार चक्र से लेकर सहस्रार चक्र तक समस्त चक्रों में प्राण की स्थापना करता है ,ध्यान करता है तो उस प्राण स्थापना से उसका सत चित आनंद स्वरूप प्रकट हो जाता है। वह भय से मुक्त आनंद भैरव के स्वरुप को प्राप्त कर लेता है।
👉 मां पार्वती को उस सत्य स्वरूप भैरव के स्वरूप को जानने के लिए भगवान शिव धारणा के विज्ञान को समझा रहे हैं-- यहां पर द्वादशांत शब्द का बार बार प्रयोग किया गया है ।यदि इस शब्द के वास्तविक अर्थ को देखें तो विज्ञान भैरव तंत्र के अनुसार हमारी श्वास हृदय तक आती है और हृदय देश से बाहर नासिका से 12 अंगुल बाहर तक जाकर शून्य में विलीन हो जाती है ,फैल जाती है ।नासिका छिद्र से 12 अंगुल की इसी दूरी को द्वादशांत कहते हैं ,जहां पर प्राण इस बाह्म आकाश में विलीन हो जाता है। दूसरे अर्थ में यदि देखें और शारीरिक स्थिति के आधार पर इस शब्द का तार्किक विश्लेषण करें तो शिखा के सबसे ऊपरी भाग से ऊपर शून्य में ही इसका स्थान माना जा सकता है किंतु उक्त धारणा में विशेष रूप से इस शब्द का प्रयोग यहाँ पर नासिका द्वार से 12 अंगुल बाह्म प्राण के बाह्म आकाश में विलीन होने को ही लक्ष्य करके व्याख्या की गई है अतःआगे जब भी हम इस शब्द की व्याख्या करेंगे तो प्राण की नासिका छिद्र से 12 अंगुल दूरी पर बाह्म आकाश में विलीन होने की स्थिति को दृष्टि में रखकर ही अधिकांशतः व्याख्या करेंगे क्योंकि ब्रह्म रंध्र या व्यापिनी चक्र पर लक्ष्य करके व्याख्या करने पर इन धारणाओं का सही सही तत्वार्थ व्यक्त नहीं किया जा सकता, समझाया नहीं जा सकता। जहां पर शरीर स्थित 12 चक्रों को लक्ष्य करके ध्यान का विज्ञान समझाया जाएगा, वहां पर इस विषय वस्तु को और अधिक स्पष्टता से समझाने का प्रयास किया जाएगा।
👏 तंत्र के आधार पर प्रथम धारणा की व्याख्या-- अब तक योग दर्शन को ध्यान में रखते हुए प्रथम धारणा की तर्क की कसौटी पर तोलकर व्याख्या की गई किंतु यदि तंत्र विज्ञान के आधार पर ही प्रथम धारणा की व्याख्या की जाए तो उस व्याख्या के अनुसार वास्तविक अर्थ आता है 👉कि कोई भी साधक जो श्वास ले रहा है और छोड़ रहा है। श्वास लेते समय और छोड़ते समय कुछ समय के लिए विराम अवस्था प्राप्त होती है, शून्य अवस्था प्राप्त होती है जब साधक इस श्वास के आने और जाने की प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करता है और होश पूर्ण तरीके से श्वास के आने और लौटने के बीच के विराम काल को देखने का प्रयास करता है तो जो प्राण एवं अपान क्षण मात्र के लिए थोड़ा ठहर कर वापस उलट जाता है वह विराम अवस्था धीरे धीरे होश पूर्ण तरीके से देखने पर निरंतर बढ़ती चली जाती है और जब साधक निरंतर ऐसा करता है तो धीरे-धीरे उसका भैरव स्वरूप प्रकट होने लगता है । वह भय का रव करने वाले आनंद भैरव स्वरूप को प्राप्त करता चला जाता है। वह सत चित आनंद भाव को प्राप्त होने लगता है ।वह भय को समाप्त करने में समर्थ हो जाता है अर्थात अपने वास्तविक स्वरुप को जान कर भैरव स्वरूप प्राप्त कर लेता है।
भगवान Lord Shiva, representing 112 concepts one after the other, respectively, as a way to identify the nature of the transcendental power asked by Maan Parvati.
First impression
व्याख्या Interpretation of the first conception based on Yoga philosophy - Prana, which goes from the heart to the Dwadashant and the Jiva coming from the Dwadashant to the heart, is the chanting of the para goddess, is pulsating. On the basis of Vigyan Bhairava system, in this body, 12 chakras have been considered in this body from the lowest part of the reed to the outer sky above the last part of the crest above the Brahmarandhra, which are respectively - zamagra, moola, tuber, navel, Heart, throat, palate, frontal, brahmarandhra, Shakti and Vyapini. From the lowest part of the reed to the upper sky above the crest of the shikha, that parasite is being remembered. That para goddess continues to pronounce it herself, that is, vibrating as the soul and the apana. Shakti creates internal and external feelings. In this situation, the feeling of the conscious and the conscious power arising in the external and external matter, ie the creation of life and life, that is, in the place of being born, and in the Dwadashant i.e. the Vipini chakra, the yogi expresses the nature of Bhairava, that is, manifest his Bhairav form. He goes, he becomes distinguished in the form of Sat Chit Anand, attains the form of Sat Chit Anand, attains a state free from fear. Here, we can consider this interpretation as a favorable interpretation of Yoga Shastra, but here it is a matter of special understanding that the state of life is stated according to the first assumption in Dwadashant i.e. Vyapini Chakra. That is, the speed of life is told from the heart chakra to the outer sky above the last part of the crest and its two divisions are shown "Prana and Apan". If you explain this truth on the basis of Yoga philosophy, then from the navel is the residence and work area of your life till the foot organ. From the navel to the heart is the residence and work area of the same life. From the heart to the throat is the residence and field of life. Uddan is the residence and work area of Prana till the Shikha. The residence and work area of Vyan Pran is considered to be the entire body wide, which is specially depicted in both arms.
First impression
व्याख्या Interpretation of the first conception based on Yoga philosophy - Prana, which goes from the heart to the Dwadashant and the Jiva coming from the Dwadashant to the heart, is the chanting of the para goddess, is pulsating. On the basis of Vigyan Bhairava system, in this body, 12 chakras have been considered in this body from the lowest part of the reed to the outer sky above the last part of the crest above the Brahmarandhra, which are respectively - zamagra, moola, tuber, navel, Heart, throat, palate, frontal, brahmarandhra, Shakti and Vyapini. From the lowest part of the reed to the upper sky above the crest of the shikha, that parasite is being remembered. That para goddess continues to pronounce it herself, that is, vibrating as the soul and the apana. Shakti creates internal and external feelings. In this situation, the feeling of the conscious and the conscious power arising in the external and external matter, ie the creation of life and life, that is, in the place of being born, and in the Dwadashant i.e. the Vipini chakra, the yogi expresses the nature of Bhairava, that is, manifest his Bhairav form. He goes, he becomes distinguished in the form of Sat Chit Anand, attains the form of Sat Chit Anand, attains a state free from fear. Here, we can consider this interpretation as a favorable interpretation of Yoga Shastra, but here it is a matter of special understanding that the state of life is stated according to the first assumption in Dwadashant i.e. Vyapini Chakra. That is, the speed of life is told from the heart chakra to the outer sky above the last part of the crest and its two divisions are shown "Prana and Apan". If you explain this truth on the basis of Yoga philosophy, then from the navel is the residence and work area of your life till the foot organ. From the navel to the heart is the residence and work area of the same life. From the heart to the throat is the residence and field of life. Uddan is the residence and work area of Prana till the Shikha. The residence and work area of Vyan Pran is considered to be the entire body wide, which is specially depicted in both arms.
According to the said first belief, Lord Shiva is saying - that one should establish life in the Vipini Chakra, that is, by meditating in the Vipini Chakra, we should establish Prana because where we meditate, the mind converges. The center stops at the center. Also Lord Shiva says that one should also meditate on the place of life. If we look at the original place of Apana Vayu on the basis of Yoga philosophy, then it is the base of the Muladhar Chakra, that is, because the heart is not the place of Apana Vayu. In our entire body, the pulse of the vital organs originates from the navel, two fingers below the tuber. Our heart is a pumping station, but the basic transmission of vital energy is through the navel throughout the nadis. Life is obtained from the navel, energy comes from the navel. Therefore, in this belief told by Lord Shiva, knowledge has been given to establish the life from the navel or say, from Muladhara Chakra or Janmagra to Brahmarandhra or Vyapini Chakra. When the seeker establishes the life in all the chakras from the Muladhara Chakra to the Sahasrara Chakra, meditating, then his true consciousness becomes manifest by that life. He attains the form of Ananda Bhairava free from fear.
Lord Shiva is explaining the science of perception to Lord Maa Parvati to know the true nature of Bhairav - here the word Dwadashanta has been used again and again. If we look at the real meaning of this word then science of Bhairav system According to our breath comes to the heart and the heart goes out from the nasal to 12 fingers out of the country and merges into the void, it spreads. The same distance of 12 fingers from the nasal cavity is called Dwadashant, where the soul is in this outer sky. Dissolves. In other sense, if you look at it and do a logical analysis of this word on the basis of physical condition, then it can be considered as its location in the zero above the topmost part of the crest, but in the above assumption, especially this word can be used here from the nasal gate. The 12 fingers have been interpreted with the aim of merging into the outer space of the breath of life, so whenever we explain this word, most of the time it is seen in the condition of merging in the external sky at a distance of 12 fingers from the nasal cavity of life. Will explain because aiming at the Brahmo fandra or Vyapini Chakra, these assumptions cannot be expressed or explained in the right way. Where the science of meditation will be explained by aiming for the 12 chakras located in the body, there will be an attempt to explain this subject matter more clearly.
व्याख्या Interpretation of the first assumption on the basis of Tantra - So far, keeping in view the Yoga philosophy, the logic of the first conception was interpreted on the basis of the criterion, but if the first assumption is interpreted on the basis of Tantra science, according to that interpretation The real meaning comes from any seeker who is breathing and exhaling. The pausing state is attained for some time while inhaling and exhaling, the void state is attained when the seeker focuses on the process of coming and going of this breath and the pause between the arrival and return of the breath in a conscious manner When one tries to look at time, then the soul and the person who goes back for a brief moment and reverses it, the resting state slowly increases continuously on seeing the conscious way and when the seeker does so continuously, then slowly His Bhairav form begins to appear. He goes on acquiring the Ananda Bhairava form of fear. He starts attaining true Chit Anand Bhava. He is able to eliminate fear, that is, by knowing his true form, he attains Bhairava form.
Lord Shiva is explaining the science of perception to Lord Maa Parvati to know the true nature of Bhairav - here the word Dwadashanta has been used again and again. If we look at the real meaning of this word then science of Bhairav system According to our breath comes to the heart and the heart goes out from the nasal to 12 fingers out of the country and merges into the void, it spreads. The same distance of 12 fingers from the nasal cavity is called Dwadashant, where the soul is in this outer sky. Dissolves. In other sense, if you look at it and do a logical analysis of this word on the basis of physical condition, then it can be considered as its location in the zero above the topmost part of the crest, but in the above assumption, especially this word can be used here from the nasal gate. The 12 fingers have been interpreted with the aim of merging into the outer space of the breath of life, so whenever we explain this word, most of the time it is seen in the condition of merging in the external sky at a distance of 12 fingers from the nasal cavity of life. Will explain because aiming at the Brahmo fandra or Vyapini Chakra, these assumptions cannot be expressed or explained in the right way. Where the science of meditation will be explained by aiming for the 12 chakras located in the body, there will be an attempt to explain this subject matter more clearly.
व्याख्या Interpretation of the first assumption on the basis of Tantra - So far, keeping in view the Yoga philosophy, the logic of the first conception was interpreted on the basis of the criterion, but if the first assumption is interpreted on the basis of Tantra science, according to that interpretation The real meaning comes from any seeker who is breathing and exhaling. The pausing state is attained for some time while inhaling and exhaling, the void state is attained when the seeker focuses on the process of coming and going of this breath and the pause between the arrival and return of the breath in a conscious manner When one tries to look at time, then the soul and the person who goes back for a brief moment and reverses it, the resting state slowly increases continuously on seeing the conscious way and when the seeker does so continuously, then slowly His Bhairav form begins to appear. He goes on acquiring the Ananda Bhairava form of fear. He starts attaining true Chit Anand Bhava. He is able to eliminate fear, that is, by knowing his true form, he attains Bhairava form.
#VigyanBhairavTantra #Krishna #Buddha
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