|| श्री हरि: ||
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सुन्दरकाण्ड
(पोस्ट 33 )
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(पोस्ट 33 )
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सुनहु सखा निज कहऊँ सुभाऊ | जान भुसुंडी संभु गिरिजाऊ ||
जों नर होई चराचर द्रोही | आवै सभय सरन ताकि मोहि ||
जों नर होई चराचर द्रोही | आवै सभय सरन ताकि मोहि ||
अर्थ - (श्रीरामजी ने कहा-) हे सखा ! सुनो, मै तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूं, जिसे काक्भुशुन्डी शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं | कोई मनुष्य (सम्पूर्ण) जड -चेतन जगत का द्रोहि हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तककर आ जाय, (१).
तजि मद मोह कपट छल नाना | करऊँ सध तेहि साधू समाना ||
जननी जनक बंधू सुत दारा | तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ||
जननी जनक बंधू सुत दारा | तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ||
अर्थ – और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूं | माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार – (२).
सब कई ममता ताग बटोरी | मम पद मनहि बाँध बरी डोरी ||
समदरसी इच्छा कछु नाहीं | हरष सोक भय नहिं मन माहीं ||
समदरसी इच्छा कछु नाहीं | हरष सोक भय नहिं मन माहीं ||
अर्थ – इन सबके ममत्वरूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बटकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है (सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है | (३).
अस सज्जन मम उर बस कैसें | लोभी हृदयं बसइ धनु जैसें ||
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें | धरऊँ देह नही आन निहोरे ||
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें | धरऊँ देह नही आन निहोरे ||
अर्थ – एसा सज्जन मेरे हृदय में कैसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है | तुम-सरीखे संत ही मुझे प्रिय है | मैं और किसी के निहोरे से (कृतज्ञतावश) देह धारण नहीं करता | (४)
दोहा – सगुन उपासक परहित निरत निति दृढ नेम |
ते नर प्राण समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम || (48).
ते नर प्राण समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम || (48).
अर्थ – जो सगुण (साकार) भगवान् के उपासक हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, निति और नियमों में दृढ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान है | (48).
सुनु लंकेस सकल गुन तोरे | ताते तुम्ह अतिसय प्रिय मोरे ||
राम बचन सुनि बानर जूथा | सकल कहहिं जय कृपा बरूथा ||
राम बचन सुनि बानर जूथा | सकल कहहिं जय कृपा बरूथा ||
अर्थ – हे लंकापति ! सुनो, तुम्हारे अंदर उपर्युक्त सब गुण हैं | इससे तुम मुझे अत्यंत ही प्रिय हो | श्रीरामजी के वचन सुनकर सब वानरों के समूह कहने लगे- कृपा के समूह श्रीरामजी की जय हो | (१)
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी | नहिं अघात श्रवनामृत जानी ||
पद अंबुज गहि बारहिं बारा | हृदय समात न प्रेमु अपारा ||
पद अंबुज गहि बारहिं बारा | हृदय समात न प्रेमु अपारा ||
अर्थ – प्रभु की वाणी सुनते है और उसे कानो के लिए अमृत जानकार विभीषण जी अघाते नहीं हैं | वे बार-बार श्रीरामजी के चरण-कमलो को पकड़ते हैं |अपार प्रेम, हृदय में समाता नहीं है | (२).
सुनहु देव सचराचर स्वामी | प्रनतपाल उर अंतरजामी ||
उर कछु प्रथम बासना रही | प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ||
उर कछु प्रथम बासना रही | प्रभु पद प्रीति सरित सो बही ||
अर्थ – (विभीषण जी ने कहा- ) हे देव ! हे चराचर जगत के स्वामी ! हे शरणागत के रक्षक ! हे सबके हृदय के भीतर की जानने वाले ! सुनिये, मेरे हृदय में पहले कुछ वासना थी, वह प्रभु के चरणों की प्रितिरुपी नदी में बह गयी | (३).
अब कृपालु निज भगति पावनी | देहु सदा सिव मन भावनी ||
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा | मागा तुरत सिंधु कर नीरा ||
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा | मागा तुरत सिंधु कर नीरा ||
अर्थ – अब तो हे कृपालु ! शिवजी के मन को सदैव प्रिय लगने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिये | “एवमस्तु” (एसा ही हो) कहकर रणधीर प्रभु श्रीरामजी ने तुरंत ही समुंद्र का जल माँगा | (४)
जदपि सखा तव इच्छा नाही | मोर दरसु अमोघ जग माही ||
अस कहि राम तिलक तेहि सारा | सुमन बृष्टि नभ भई अपारा ||
अस कहि राम तिलक तेहि सारा | सुमन बृष्टि नभ भई अपारा ||
अर्थ – (और कहा -) हे सखा ! यधपि तुम्हारी इच्छा नहीं है, पर जगत में मेरा दर्शन अमोघ है (वह निष्फल नहीं जाता) | एसा कहकर श्रीरामजी ने उनको राजतिलक कर दिया आकाश से पुष्पों की अपार वृष्टि हुई | (५).
दोहा – रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड |
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजू अखंड || (49 क).
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजू अखंड || (49 क).
अर्थ – श्रीरामजी ने रावण के क्रोधरूपी अग्नि में. जो अपनी (विभीषण की) श्वास (वचन) रूपी पवन से प्रचंड हो रही थी, जलते हुए विभीषण को बचा लिया और उसे अखंड राज्य दिया | (49 क).
दोहा – जो संपति सिव रावनहि दीन्ह दिएँ दस माथ |
सोई संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ही रघुनाथ || (49 ख).
सोई संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ही रघुनाथ || (49 ख).
अर्थ – शिवजी ने जो सम्पति रावण को दसों सिरों की बलि देने पर दी थी, वही सम्पति श्रीरघुनाथजी ने विभीषण को बहुत सकुचते हुए दी | (49 ख).
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शेष आगामी पोस्ट में |
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