जय महाकाल
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****************************१— किसी शान्त या एकान्त स्थान में जाइए। निर्जन, कोलाहल रहित स्थान इस साधना के लिए चुनना चाहिए। इस प्रकार का एक स्थान घर का स्वच्छ हवादार कमरा भी हो सकता है और नदी तट अथवा उपवन भी। हाथ-मुँह धोकर साधना के लिए बैठना चाहिए। आरामकुर्सी पर अथवा दीवार, वृक्ष या मसनद के सहारे बैठकर भी यह साधना भली प्रकार होती है। सुविधापूर्वक बैठ जाइए, तीन लम्बे-लम्बे श्वास लीजिए। पेट में भरी हुई वायु को पूर्ण रूप से बाहर निकालना और फेफड़ों में पूरी हवा भरना एक पूरा श्वास कहलाता है। तीन पूरे श्वास लेने से हृदय और फुफ्फुस की भी उसी प्रकार एक धार्मिक शुद्धि होती है जैसे स्नान करने, हाथ-पाँव धोकर बैठने से शरीर की शुद्धि होती है। तीन पूरे श्वास लेने के बाद शरीर को शिथिल कीजिए और ‘हर अंग में से खिंचकर प्राणशक्ति हृदय में एकत्रित हो रही है’ ऐसा ध्यान कीजिए। ‘हाथ, पाँव आदि सभी अंग-प्रत्यंग शिथिल, ढीले, निर्जीव, निष्प्राण हो गए हैं। मस्तिष्क से सब विचारधाराएँ और कल्पनाएँ शान्त हो गई हैं और समस्त शरीर के अन्दर एक शान्त नीला आकाश व्याप्त हो रहा है’ ऐसी भावना करनी चाहिए। ऐसी शान्त, शिथिल अवस्था को प्राप्त करने के लिए कुछ दिन लगातार प्रयत्न करना पड़ता है। अभ्यास से कुछ दिन में अधिक शिथिलता एवं शान्ति अनुभव होती जाती है। शरीर भली प्रकार शिथिल हो जाने पर हृदय स्थान में एकत्रित अँगूठे के बराबर, शुभ्र, श्वेत ज्योति स्वरूप प्राणशक्ति का ध्यान करना चाहिए। ‘अजर, अमर, शुद्ध, बुद्ध, चेतन, पवित्र ईश्वरीय अंश आत्मा मैं हूँ। मेरा वास्तविक स्वरूप यही है, मैं सत्, चित्, आनन्द स्वरूप आत्मा हूँ।’ उस ज्योति के कल्पना नेत्रों से दर्शन करते हुए उपरोक्त भावनाएँ मन में रखनी चाहिए। उपर्युक्त शिथिलासन के साथ आत्मदर्शन करने की साधना इस योग में प्रथम साधना है। जब यह साधना भली प्रकार अभ्यास में आ जाए तो आगे की सीढ़ी पर पैर रखना चाहिए। दूसरी भूमिका में साधना का अभ्यास नीचे दिया जाता है। २— ऊपर लिखी हुई शिथिलावस्था में अखिल आकाश में नील वर्ण आकाश का ध्यान कीजिए। उस आकाश में बहुत ऊपर सूर्य के समान ज्योति-स्वरूप आत्मा को अवस्थित देखिए। ‘मैं ही यह प्रकाशवान् आत्मा हूँ’ ऐसा निश्चित संकल्प कीजिए। अपने शरीर को नीचे भूतल पर निस्पन्द अवस्था में पड़ा हुआ देखिए, उसके अंग-प्रत्यंगों का निरीक्षण एवं परीक्षण कीजिए। ‘यह हर एक कल-पुर्जा मेरा औजार है, मेरा वस्त्र है। यह यन्त्र मेरी इच्छानुसार क्रिया करने के लिए प्राप्त हुआ है।’ इस बात को बार-बार मन में दुहराइए। इस निस्पन्द शरीर में खोपड़ी का ढक्कन उठाकर ध्यानावस्था से मन और बुद्धि को दो सेवक शक्तियों के रूप में देखिए। वे दोनों हाथ बाँधे आपकी इच्छानुसार कार्य करने के लिए नतमस्तक खड़े हैं। इस शरीर और मन बुद्धि को देखकर प्रसन्न होइए कि ‘इच्छानुसार कार्य करने के लिए यह मुझे प्राप्त हुए हैं। मैं इनका उपयोग सच्चे आत्म-स्वार्थ के लिए ही करूँगा।’ यह भावनाएँ बराबर उस ध्यानावस्था में आपके मन में गूँजती रहनी चाहिए। ४.जब दूसरी भूमिका का ध्यान भली प्रकार होने लगे तो तीसरी भूमिका का ध्यान कीजिए। अपने को सूर्य की स्थिति में ऊपर आकाश में अवस्थित देखिए— ‘‘मैं समस्त भूमण्डल पर अपनी प्रकाश किरणें फेंक रहा हूँ। संसार मेरा कर्मक्षेत्र और लीलाभूमि है। भूतल की वस्तुओं और शक्तियों को मैं इच्छित प्रयोजनों के लिए काम में लाता हूँ, पर वे मेरे ऊपर प्रभाव नहीं डाल सकतीं। पंचभूतों की गतिविधि के कारण जो हलचलें संसार में हर घड़ी होती हैं, वे मेरे लिए एक विनोद और मनोरंजक दृश्य मात्र हैं। मैं किसी भी सांसारिक हानि-लाभ से प्रभावित नहीं होता। मैं शुद्ध, चैतन्य, सत्यस्वरूप, पवित्र, निर्लेप, अविनाशी आत्मा हूँ। मै आत्मा हूँ, महान् आत्मा हूँ।महान् परमात्मा का विशुद्ध स्फुलिंग हूँ।“यह मन्त्र मन ही मन जपिए। तीसरी भूमिका का ध्यान जब अभ्यास के कारण पूर्ण रूप से पुष्ट हो जाए और हर घड़ी वह भावना रोम-रोम में प्रतिभासित होने लगे, तो समझना चाहिए कि इस साधना की सिद्धावस्था प्राप्त हो गई। यह जाग्रत् समाधि या जीवन -मुक्त अवस्था कहलाती है।
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